Saturday, October 19, 2013

कल्पना

कल्पना अपने में कई अलग व विभिन्न संसार लिये है जिसकी कग़ारें ज़िन्दगी को भव्यता का परिचय प्रदान करती हैं। कल्पना का फूहड़ सा अनाड़ी होना भी ज़िन्दगी को उसी के आम होने की दलदल से बाहर निकाल देता है। ऐसे झूठ की तरह जिसमें सच्चाई को उसकी अपनी पहुंच से बाहर धकेलने की ताकत होती है।

Friday, October 18, 2013

थकान

"थकान प्रभावों में नहीं आभाषों में है। जो ज़िन्दगी को बैचेनियां और रहस्यम बनाता है॥
जहां एकांत मिथक बैचेनियों की दुनिया है। हर दम एक नई आवाज़ में ध्वनित जो सीधा रास्ता नहीं अपनाना चाहती।"

सवाल के आजूबाजू

एक बार फिर से उसी किताब का रूख किया जिसने पहले भी मेरे कई सवालों का उत्तर दिया है। या कह सकते हैं कि उत्तर तो नहीं दिया लेकिन सवाल को सोचने पर जा पहुँचाया। सवाल पूछना आसान नहीं है। सवाल जब अपनी स्वयं की ज़िन्दगी से बाहर निकल रहा होता है तो हल्का जरूर हो सकता है लेकिन किसी और ज़िन्दगी में दाखिल होने के लिये बहुत मस्सकत करता है।


सोच और आंकने की समाजिक पद्धति के साथ में रहना और उसके भीतर अनुसाधनों को सोचना क्या है?

जिस तरह किसी जीवन और उसके भीतर बसे अनेकों शख़्सों के आंकड़ो और जीने के ढंक से जीवनशैली का ज्ञान बनाया जा सकता है वैसे ही उससे सीधा टकराने की कोशिश भी की जा सकती है। यह टकराना उसके खिलाफ जाना है और ना ही उसको तोड़ना है। बल्कि उसके भीतर ही रहकर उसके खिलाफ में रहना है।

वर्ग, पद, मनुष्य और जीवन – जहां इन्हे साथ और एक ही पौशाक में सोचने की जमी हुई कोशिश रहती है वहीं पर एक किताब 'सर्वहारा रातें'में कुछ हदतक जुदा करके सोचने की भी कोशिश दिखती है। ऐसे प्रतिबिम्ब सामने खड़े हो जाते हैं जिसमें सिर्फ किसी को जानकर ही अपना ज्ञान नहीं बनाया जा सकता।

“मैं जिस हाल में हूँ वो 'मैं" ही मुझे रास नहीं आ रहा॥
सिर्फ आइना बनकर जीने की कोशिश ही ताज्जुब लाती है ज़िन्दगी में।"

लख्मी

Wednesday, October 9, 2013

मैं

रिफ्लेक्शन व शहडोह जो कभी भी अपने से बाहर हो सकती है।
"मैं" अनेकता या विशालता का रूप है
स्वयं और लिबास के बीच हमेशा टकराव में रहता है।
अनेकों परतों का डेरा जैसा, अपने से बाहर के दृश्य को विविधत्ता मे ही सोचने पर जोर देता है।
मैं असल में, तरलता का ऐसा अहसास है जो जितना फैल सकता है उतना ही जमा भी रह सकता है।

Friday, October 4, 2013

पोशाक

पोशाक धूंधली रात में दिखने वाली एक रोशनी की तरह हैं। 
एक टोकरा की तरह जिसमें चूपके-चूपके दिमाग में कोई ख्याल बसा हो। 
दृश्य को अदृश्य भीड़ में कहीं खो देना। 
रोशनी का ऐसा नाकाब जिसे उतारने बिना शरीर नहीं दिखता। 
कोई ऐसी छवि जिसका वक़्त पर काबू ना रहे। छवि के जिन्दा होने के अहसास को उसकी मुमकिनताओं में जीने की ललक देता है।
रूप के अनेको किस्म जो अपने साथ सपनों का काफला लाते हैं।

पोशाक क्या शरीर ढकता है या उसे दिखाता है? ऐसी पोशाक जिसमें से कोई मुर्दा शरीर फिर से जिन्दा होकर बाहर आ गया हो। जिसमें शरीर से बाहर आकर एक आकृति दिखाई देती है जो नाच रही है।

काम

नियमित काम
खुद को शून्य में रखकर – असंख्य में देख पाना


बराबरी काम
"मैं" की अनेकता या विशालता का एक रूप


झुण्ड में काम
ऊर्जा के अनबैलेंस को बैलेंस में देखने का आभास

सौगात में काम
मौजूदा वक़्त को तैयारी में लाना कल और कहां के ख्याब के लिये


विभाजन में काम
परमपरागत जीने से विपरित दुनिया के स्वाद में ले जाना।


फीका काम
नियमित्ता के साथ टकराव


काम में अनेकता
गहनता में होना जो समय की विभिन्नताओं पर खड़ा है


काम के कारण
समय के गठन में वापसी जिसमें हर बार रूप बदलाव में होता है


काम का पूर्वआभाष
असंख्यता को पाने की अभिलाषा जिसमें भविष्य की लपेट नहीं है।


काम का किनारा
लघु ठहराव जो सुस्ताने से नहीं, तैयारी में देखा जा सकता है।


पारदर्शी काम
समय के रूपातरण होकर दृश्य अपनी मौजूदा छवि में नहीं है।

Wednesday, October 2, 2013

एक ऐसा एंकात भी

कभी पागल सी कोई नज़र मुझे छू ले। तो मैं गायब हो जाऊं। सब से हट कर मेरे मन में जब शरारत से भरी कोई धूली हुई सी बात आती है, तो लगता है अब थोड़ा बैठ जाना चाहिये।

क्योंकि ये चेहरा रोजाना के तीखे-फिके नक्शों को देखकर जब अपनी ताज़गी को समटने लगता है तो वो छाँटने लगता है अपने लिये राख मे से कुछ मुमकिन लम्हें। उसके बाद ही मेरी कल्पनाओं को टटोलती मेरी भूख इत्मिनान पाती है।

जब किसी कोने में अपने मन में बसे विचारों को जीने का समय मिलता है। काम से फ्री होकर पाबन्दी की  दुनिया से निजात पाकर। अपने लिये समय से फिर रिश्ता बनाना पड़ता है।

सिक्योरिटी के काम से एक ही ढ़ंग में खड़े-खड़े जीभ प्यास से सूखती है जब थकान हावी हो जाती है मगर उसमें भी नज़र चुराकर शरीर और दिमाग को सपनों से जोड़ना पड़ता है।

उसमें जब काम का समय पूरा हो जाता है और दुनिया की सवालिया नज़रो से हम दूर हो जाते हैं। तब एकान्त मिलता है जिसमें बैठकर खुद को भी सुनने में तखलीफ न हो।

राकेश

वक्त


समय के बहाव में हर चीज की भरपाई समाई होती है। बेआकार सा दिखता समय अपने से कई आकारों को बुनता चलता है। समय की कोई छाप नहीं है। समय को जीते हम अपने चिंहो को समय की छाप मानते हैं।

किताब, स्कूल और आसपास

किताब और जिन्दगी ये आपस में किस तरह टकराते है?

अनेकों रंगबिरंगी जीवनी घटनाओं का एक जत्था किसी एक शख़्स की ज़िन्दगी की कहानी कहता है। कभी सौगातें, कभी मुश्किलें, कभी फैसले तो कभी चाहतों के गट्ठर बनकर। हर शख़्स और रिश्तों के भीतर कई ऐसे कारणपस्त दृश्य छिपे हैं जो उदाहरण बने कईयो के जीवन में दखलअंदाजी करते हैं। एक दूसरे में ट्रांसफर होते ये दृश्य बनते एक जिन्दगी से हैं लेकिन फिर सबके हो जाते हैं। किताबी ज़ुबान इन सबके हो जाने से पिरोये जाते हैं। जिनमें हंसी, खुशी, चुनोतियां, परेशानियां और उनके निवारण, कामयाबी के चरण को बखूबी बुनियादी शब्दों में बांधकर एक पुल बनाया जाता है। किताब उस पुल को ध्यानपूर्वकता से पढ़ने और भविष्य की तस्वीर को गाढ़ा कर देने की फोर्स का एक नाम बनकर कैटेगिरियां बनाती चलती है।

उदाहरण के तौर पर हम बात करते हैं : जैसे स्कूल की किताब और उसके पाठ के आकार और पाठ के ज्ञान को उसके वज़न द्वारा किताबों में भरा जाता है। लेकिन इतने बेजोड़ जोड़ के बावजूद भी जब एक क्लास इनके बीच घूम रही होती है तब वे सभी वज़न आम जीवन की जमीन पर बिखर जाते हैं। जैसे किसी पाठ का जोरदार एक्सीडेंट जीवन के किसी पहाड़ से हो गया हो। पाठ कई हिस्सों में आम जीवन की जमीन को छूने लगता है। अणुओं की भांति रेंगता है। एक से दूसरे को धकेलता है। फिर मिलना व चिपकना शुरू करता है। जिसमें कई ऐसी जीवनिए घटनायें, शख़्स, भीड़, रिश्ते, कहानियां भी खिंच आती हैं जिनका स्कूली भाषा और जमीन को कोई जरूरत नहीं। एक क्लास में जैसे ही पाठ को छोटे पाठकों के सामने सुना दिया जाता है वे तभी किताब से निकल जाता है। आसपास से टकराता है और पाठकों के अनुभव का बन जाता है। क्लास का रूटीन और कसकसाती आवाज़ बेहद जोर लगाती है की आसपास से हटकर किताबी जुबान को बुना जाये लेकिन पाठक आसपास से कहानियां बीन लाते हैं। वो कसकसाती आवाज़ पाठ के सवालों से कहानी को फिर से दोहराती है लेकिन पाठक सवालों से पहले ही अपनी जीवनी कहानियों से उनके उत्तर दे डालते हैं। यहां पर किताब और आसपास हमेशा टकराते हैं। हम किस तरह सोच सकते हैं कि हमें किसी किताब की कहानी को जानना है या उस कहानी को बदल देना है? जैसे एक क्लास आसपास से गुथी व बुनी होती है। अनुभव, आसपास, रिश्ते, परिवार से सींचते, सीखते व मिलते बयान साथियों को बोलने के शब्द देते हैं। जहां स्कूल व पाठ उन्हे एक सतह यानि प्लेटफॉम देता है कि किसपर बोला या सोचा जायेगा वहीं आसपास उन्हे वे झलकियां प्रदान करता है कि उन्हे बोलना क्या है? उन्होने देखा क्या है और सुना क्या है। आसपास ये कहने, सुनने अथवा बोलने के लिये उदाहरण बन दृश्य देता है। 

ये आसपास क्या है? और क्यों पाठ के साथ होती बातचीत के दौरान उभर कर आने लगता है?

Tuesday, October 1, 2013

रफ़्तार

स्वयं से विपरित सोचने की कोशिश। विपरित घुमावदार या तीव्रता लिये हुए है। वे आगे जा रही है या वहीं है। अगर इसे मंजिल पर जल्दी पहुँच जाना से बाहर होकर सोचा जाये तो वे रास्ते की अवधारणा से परे होकर जीती है। अपनी मौजूद शारीरिक क्षमता से बाहर होकर जीने की कोशिश होती है। समय की सीमा धारा से बाहर होकर उससे रूबरू होने की राह और एक क्लैश जिसमें सम्पूर्णता अपने मौजूदा पल से भिंडत में हैं।