Wednesday, October 2, 2013

किताब, स्कूल और आसपास

किताब और जिन्दगी ये आपस में किस तरह टकराते है?

अनेकों रंगबिरंगी जीवनी घटनाओं का एक जत्था किसी एक शख़्स की ज़िन्दगी की कहानी कहता है। कभी सौगातें, कभी मुश्किलें, कभी फैसले तो कभी चाहतों के गट्ठर बनकर। हर शख़्स और रिश्तों के भीतर कई ऐसे कारणपस्त दृश्य छिपे हैं जो उदाहरण बने कईयो के जीवन में दखलअंदाजी करते हैं। एक दूसरे में ट्रांसफर होते ये दृश्य बनते एक जिन्दगी से हैं लेकिन फिर सबके हो जाते हैं। किताबी ज़ुबान इन सबके हो जाने से पिरोये जाते हैं। जिनमें हंसी, खुशी, चुनोतियां, परेशानियां और उनके निवारण, कामयाबी के चरण को बखूबी बुनियादी शब्दों में बांधकर एक पुल बनाया जाता है। किताब उस पुल को ध्यानपूर्वकता से पढ़ने और भविष्य की तस्वीर को गाढ़ा कर देने की फोर्स का एक नाम बनकर कैटेगिरियां बनाती चलती है।

उदाहरण के तौर पर हम बात करते हैं : जैसे स्कूल की किताब और उसके पाठ के आकार और पाठ के ज्ञान को उसके वज़न द्वारा किताबों में भरा जाता है। लेकिन इतने बेजोड़ जोड़ के बावजूद भी जब एक क्लास इनके बीच घूम रही होती है तब वे सभी वज़न आम जीवन की जमीन पर बिखर जाते हैं। जैसे किसी पाठ का जोरदार एक्सीडेंट जीवन के किसी पहाड़ से हो गया हो। पाठ कई हिस्सों में आम जीवन की जमीन को छूने लगता है। अणुओं की भांति रेंगता है। एक से दूसरे को धकेलता है। फिर मिलना व चिपकना शुरू करता है। जिसमें कई ऐसी जीवनिए घटनायें, शख़्स, भीड़, रिश्ते, कहानियां भी खिंच आती हैं जिनका स्कूली भाषा और जमीन को कोई जरूरत नहीं। एक क्लास में जैसे ही पाठ को छोटे पाठकों के सामने सुना दिया जाता है वे तभी किताब से निकल जाता है। आसपास से टकराता है और पाठकों के अनुभव का बन जाता है। क्लास का रूटीन और कसकसाती आवाज़ बेहद जोर लगाती है की आसपास से हटकर किताबी जुबान को बुना जाये लेकिन पाठक आसपास से कहानियां बीन लाते हैं। वो कसकसाती आवाज़ पाठ के सवालों से कहानी को फिर से दोहराती है लेकिन पाठक सवालों से पहले ही अपनी जीवनी कहानियों से उनके उत्तर दे डालते हैं। यहां पर किताब और आसपास हमेशा टकराते हैं। हम किस तरह सोच सकते हैं कि हमें किसी किताब की कहानी को जानना है या उस कहानी को बदल देना है? जैसे एक क्लास आसपास से गुथी व बुनी होती है। अनुभव, आसपास, रिश्ते, परिवार से सींचते, सीखते व मिलते बयान साथियों को बोलने के शब्द देते हैं। जहां स्कूल व पाठ उन्हे एक सतह यानि प्लेटफॉम देता है कि किसपर बोला या सोचा जायेगा वहीं आसपास उन्हे वे झलकियां प्रदान करता है कि उन्हे बोलना क्या है? उन्होने देखा क्या है और सुना क्या है। आसपास ये कहने, सुनने अथवा बोलने के लिये उदाहरण बन दृश्य देता है। 

ये आसपास क्या है? और क्यों पाठ के साथ होती बातचीत के दौरान उभर कर आने लगता है?

आसपास कई ऐसी तेड़ी मेड़ी सतहों से बुना है। जिसमें कई बेजोड़, आवारा, भूल गई, भूल जाने वाली कहानियां यहां से वहां तैरती व सफ़र करती हैं जिसमें कई जगहों, भाषाओं को एक साथ खींच लाने की ताकत है। आसपास ऐसे ही कई अमेल व अमूल्य दृश्यों का एक गठबधंन भी है। जो हमेशा अदृश्य रहता है। मगर जैसे हर अनूभविये जीवनी इस अदृश्यिता से ही बुनी जाती है। आसपास उस जीवनी के बैग्राउडं म्यूजिक की भांति है। आसपास आवाज़ें देता है, उन आवाज़ों की कहानी बुनी जाती है, जो बुना गया है वो फिर आसपास में सुनने - सुनाने की महफिलों में बांटी जाता है और फिर किसी की छोड़ी गई सांसों की तरह वे किसी और के जीवन की दास्तान बन जाता है। जीवनी, अनुभव, शिक्षा, सिखना-सिखाना, पड़ोसिये विवरण, स्वयं की परिक्षा व सवालों के बुने जाने और उसके जवाबों की कल्पना ऐसे ही अदृश्य आसपास से होकर गुजरता है जिसमें रोकने और सोखने की इजाजत मिलती है।

कहा जाता है की आसपास कोई निर्धारित जगह नहीं है। शख्स जहां खड़ा हो जाता है वहीं से उसका आसपास शुरू हो जाता है। आसपास पड़ोस नहीं है और ना ही अपना चुना व बुना गया कोई दायरा। आसपास वहां तक है जहां तक कोई मुंहजुबानी कहानी जा सकती है और बदल सकती है। ऐसे ही आसपास बस में मिली बगल वाली सीट भी है और सरकारी दफ्तर के सामने लगी लाइन भी, ट्रेन की टीकट के लिये लगी भीड़ भी है और पार्कों में तमाशे देखते लोग भी, सड़क किनारे किसी के एक्सीडेंट पर जमते गुट, रिजल्ट देखते टकराते सिर, मेलों मे झूले पर चड़ते लोग, इम्तिहान देते स्कूल की क्लास, ताश खेलते और उन्हे देखते माहौल, मार्किट में जमी महफिलें और सिनेमाहॉल से भगाते पुलिस वाले भी आसपास बन जाते हैं। हर सतह एक ऐसी फिल्म की कहानी की तरह है जिसमें हर किरदार की अपनी ही कोई कहानी चल रही है और एक दूसरे से टकराकर कोई नया रूप ले रही है।

जहां एक स्कूल आसपास के मोखिक चित्रों को अपनी बाहर की दीवारों पर ही रोक देता है। अपना स्वयं का आसपास बुनने की कोशिश करता है। वहीं बाहरी कहानियां और किताबों के किरदार कभी ये बटवारा नहीं मानते। वे एक दूसरे में गुथे बुने अपना रंगरोगन पाते हैं। लेकिन सवाल ये है की इन रंगरोगन की संभावनाओ को समझा व उभारा कैसे जाये?

लख्मी

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