Wednesday, May 23, 2012

मार्ग किसी अद्वश्य रेखा

तेजी से किसी की ओर जाने की और बढ़ने की प्रक्रिया की लाईन का किस कल्पना से रिश्ता होता है? जीवन विस्तार से अलग है या जीवन विस्तार के लिये कुछ रचना करने की समझ देता है? इन कारणों का विरोध धीमी गती के साथ बॉडी में उतरता है और किसी तेजी से बनने और बसने वाली जगह की तरह उठने की कोशिश करता है। 

मैं किसी ऐसी जगह की दिवार पर वो रोज बैठता हूँ जहां से निकलने वाला हर कोई कुछ पल के लिये तो किसी के साथ हो ही जाता है। कभी बैठे रहने से तो कभी साथ मे रास्ता पार करने से। किसी को नहीं मालूम इस बार उनके साथ मे कौन होगा। लेकिन इस बात का असर जरूर उनके चलने मे होता है कि कोई न कोई उनके साथ मे जरूर रहेगा। कितने क्षण के लिये नहीं मालूम, किस रूप मे नहीं पता, किस भाषा से नहीं जाता पर कोई होगा जरूर। हर रोज़ उस जगह पर ये बातें होती है। 

क्या है वो?  कौन है वो? मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? जो सामने है वो कौन था।? जो मेरे पास है वो कौन है? कल्पना का मार्ग किसी अद्वश्य रेखाओं में चले जाता है।  वो किसी जड़ से जुडे होने पर अपना बीच का रूप नहीं दिखा पाता मगर उनके सांस लेने का पताचलता है। कपड़ों पर अनगिनत निशान और जगह-जगह बने छेदों में से निकले धागे जो हवा से हिलते हैं। उसका वक़्त किस तरह की अदाकारी करता है।   नए के साथ जुड़ा हुआ है। उस बने खुले रास्ते पर रोजाना किसी का खुद को मरम्मत की आवश्यकता होती है। काल्पनिक जीवन विस्तार के एक साधन मात्र जैसा हो सकता है। क्या ये विस्तार जीवन मे कोई छवि गेरता है? लगातार कोई जैसे किसी की नकल करने में मग्न है। रास्ते का शोर उस की खामोशी को तोड़ने में सफल नहीं हो पाता है। हासिल क्या होता है, उसका छुट क्या जाता है? इस कल्पना के बारे में या इसे खोजने के बारे में मिली कहानियों में कुछ छुपा रह जाता है। शायद, वो अभिव्यक़्ति जिस का मिटना असंम्भव है। उसकी शक्ल में कभी खुद का धूंदला सा चेहरा नजर आता है तो कभी खुद में खेलती सर्सारहट महसुस होती है। वो अलौकिक शक्ति किसी का हस्ताक्षर है। अपने आप में जो सौगात के रूप में वापस करने के लिए जीवन की यात्रा देती है। 

राकेश

छत पर सोया एक रात

आज तुम लोगों के साथ साझा करने के लिए एक अजीब कहानी बता रहा हूँ। 

वह एक घटना है जिसें मैं वास्तव में किसी समय इस बारे में नहीं सोच पाया था। लेकिन मेरा पहला असाधारण अनूभव की छाया में कई व्यक्ति शामिल हैं। छाया जिसे लोग एक रूप में व आमतौर पर जानते हैं। जो इन पारदर्शी अंधेरे के प्राणियों ( यह शब्द मैं इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि मैं सिर्फ इंसानों की ही बातें नहीं करना चाहता) यानि सभी में दिखाई देते हैं और अनेक ढंग से गायब होने के लिए इसे छाया कहा जाता है।

चेहरे चाहे ताबें के हो या मास के वो असल में सुविधाओं के अभाव के जरिये, ज्यादातर लोगों एक दूसरे से परिचित करवाते हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरे एक या दो दोस्त है। मेरी रोजमर्रा मे मिले इन लोगों को किसी भी कारण इस बारे में नहीं पता की मुझसे सच –झूठ तकाजा नहीं किया जाता। उन्होंने एक बार मुझे बताया है। इन छाया प्राणियों द्वारा सजाया जा रहा माहौल, कभी कभी घर से बाहर प्रकाश को स्वीकार करने को कहता है।

एक कोने में एक दूसरे विभाजन के लिए दिखाई देती लाइनें है। काफी सारी, आड़ी तेड़ी, कुछ दीवार पर गड़ी हुई है तो कुछ खुरचने से बनी है। घर की दूसरी मंजिल पर सोने के लिए दीवार का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह मंजिल छत के आँगन और एक बाथरूम के लिए उपयोग की जाती है। हम सभी फर्श पर गद्दे पर सोए हुए थे। हमें पूरे फर्श की जमीन आँख के स्तर के मुताबित दृश्य दे रही थी। बाथरूम शायद बहुत छोटा है। पानी का गिलास रखा दिखाई दिया। गिलास मे एक दाग दिखाई दे रहा है। साथ ही एक खिड़की या अंदर यह सूर्य के प्रकाश की चांदनी है। जिसका कोई एक दरवाजा नहीं था। इसलिए हम अपनी गोपनियता को छुपाने की कोशिश में एक पर्दा चौखट मे डाल दिया करते थे।

एक रात वहाँ लग रहा था कि सोना मुश्किल हो सकता है। बाकी सब सो रहे थे और केवल चांद का प्रकाश गिर रहा है। मुझे याद है शहर का प्रकाश और चांदनी यह वास्तव में एक किसी के लिये बैक लाइट की तरह है। उसके प्रभाव के कारण होता है। जैसे चांदनीरात ....   "दरवाजा" एक प्रोजेक्शन स्क्रीन के रूप में अभिनय करता है। दीवार पर फोकस बनाता है। किसी छाया को वो चांदनी की वजह छत की दीवारों पर बिखेर देता है। और फिर सपाट पर्दे पर वे झलक नाचने लगती है।  वास्तव में सुबह जल्दी से या देर रात में सोया था। मैं वहाँ बैठा हूँ।| आँखों में आश्चर्य है। फिर अचानक किसी बहस ने ध्यान को पकड़ा। गली के अंदर से किसी के तेज चिल्लाने की आवाजों ने रात को परेशान कर दिया था। शायद यही आवाज़ दिन मे अगर होती तो कभी अपनी ओर ध्यान नहीं खींचती। नीचे गहमागहमी और ऊपर छाया का आंदोलन जारी था। ध्यान अगर उसपर से हट जाये तो वे जैसे कि बदल गया हो, जो पहले था वो सब कुछ अब नहीं था।

मैं गिरती छाया को देखे जा रहा हूँ। वो क्या है उसे सोचे जा रहा हूँ। कुछ देर तो समझ मे नहीं आया की क्यों। वो कभी कोई लड़की सी बन जाती तो कभी किसी जानवर की तरह। मगर ऐसा लगता जैसे वो नाच रही है। हवा के संगीत पत झूम रही है और अचानक ही गायब हो जाती है। मैं उसे देख सोच रहा हूँ "ठीक है, यह शायद सिर्फ परछाई बन चलती हवा के साथ कहीं उड़ जायेगी। 

इस बिंदु पर अपनी आँखें बंद सोने की कोशिश करता तो अचानक फिर से इसी नाच के आंदोलन मे फंस जाता। इस समय कोई पर्दा नहीं, मैं ये खुद को मनाने लगता हूँ। छाया चलती है तो मैं स्थिर रहता हूँ।  मैं पर्दे कि ओर देख रहा रहा हूँ तो कुछ ही सेकंड के भीतर मुझे कुछ भी पर्याप्त नहीं होता। यकीनन मेरी दृष्टि पर मेरा खुद का ध्यान केंद्रित नहीं है।

कुछ ही समय के बाद में पूर्णरूप से ये अहसास होने लगा था की छत पर सोना नामुमकिन है मेरे लिये।

राकेश

Saturday, May 19, 2012

Wednesday, May 16, 2012

एक लेख पर मेरे साथी का कोमेंट

झलकियों के बीच नाच

पिछली रात अशौक ने रजनी के चेहरे पर कई रंग लगा दिये। रजनी को इन सबका पता भी नहीं था। वे मदमस्त नींद में मुस्कुराती हुई सो रही थी। अशौक ने रंगो से उसके चेहरे को पूरी तरह से रंग दिया था। लाल, पीला, हरा और नीले रंग से इतनी लकीरें खींच दी थी की लगता था कई सारे इंसान के साथ रजनी आज बिस्तर में है।
(रंगो से इंसान को कैसे तशबीह किया डियर? कुछ अटपटा सा है कि सिर्फ एक रंग एक शख्स? कइ रंग तो कइ शख्स का अंदाज़ा?? कैसे?)

दूसरे दिन रजनी उठी तो हर रोज़ की तरह वो सबसे मिलने के लिये अपने कमरे से निकली। जो भी उसे देखता तो हंस पड़ता। वे समझ नहीं पाती। जो भी उससे बात करता तो बड़ी मुस्कुराहट के साथ। मगर रजनी अपने काम मे पूरी तरह जुटी हुई थी। वे जिस जिस के पास मे जाती वो ही उसे देखकर चौंक जाता। उसे करीब से जानने वाले उसपर हंसते और दूर से जाने वाले पूरी तरह से चौंक गये थे।
(कमरे से बाहर निकलर घर में ही रही? रजनी अपने काम मे बुरी तरह जुटि हुइ थी मतलब किस काम में? घर के? गर घर के तो पुरा जानने वालो और दुर से जानने वाले इसमें थे?? कैसे?)

सब की हंसी का कारण बनी रजनी वापस अपने कमरे में पहुँची। खुद को संवारने के लिये जैसे ही शीशे के सामने पहुँची वे खुद चौंक गई और फिर जोरो से हंसी। (यहां तो रजनी खुद को दुर से जानने वाली भी लगी और करीब से जानने वाली भी- यहां रजनी ने दुर और पास से जानने का सेपरेशन तोड़ दिया है। इस लाइन से शुरु कर सकते हो टेक्सट) काफी देर तक वे खुद को बस, देखती रही। रंगो को प्यार से छूती वे और भी ज्यादा बिगाड़ रही थी। जैसे खुद का ही चेहरा बिगाड़ रही हो। कुछ देर आइने के सामने खड़े होने के बाद में रजनी उसी हालत में फिर से घर के अंदर घूमी, अब की बार वो उन लोगों के पास मे गई जो उसे देखकर हमेशा नराज रहते थे तो कभी गुस्सा हो जाते थे। उनके सामने वे खड़ी रही।(यहां रजनी के किरदार के बारे में कुच समझ नही आता..मतलब जिनसे दुखी थी उनके पास गइ? नहीं ना! तो फिर येह फिर से वैसे ही जाना समझ आता है। पर उसने लोगो का सलेक्शन किया कि किसके पास जाना है क्या करता है देखों!) उन बच्चों के पास मे गई जो उसकी डांट फटकार पर भी हंसते थे। उन्हे डराने के लिये।

फिर दोबारा से अपने कमरे मे आइने के सामने आई और रंग को मलने लगी।


हर साल नाच मण्डली में हिस्सा लेती है। हिस्सा लेने से पहले वे कहां रहती थी व क्या करती थी। मण्डली का इससे कोई लेना देना नहीं होता था। शायद मण्डली का हर बंदा इसी रूप से नवाजा गया था। वे क्या छोड़कर आयी से ज्यादा वे इस बार क्या लेकर आयी है। नाच जमने से पहले यह जानने की रात हर साल जमती।

यह रात कई रोज की रातों से भिन्न होती। थकने और दुरूस्त होने से पहले की रात। (bahut khubsurat – yeh har kisi ki har raat ke liye ban jati hai) कभी याद नहीं रहती। हर कोई दिन के शुरू होते ही क्या रूप धारण करके इस बार बाहर निकलेगा को रचता, बोलता और उसमे खो जाता। ऐसा मालुम होता की जैसे हर कोई वो बनकर निकलना चाहता है जिसमे वो खूबसूरत लगे, दुरूस्त लगे और यादगार लगे और कभी कभी तो होता की वे वो बनने की कोशिश मे है जिसे वो पहली बार खुद पर ट्राई करेगा।

एक पूरी रात उस किरदार मे ढ़लने के लिये होती। एक दूसरे को गहरी निगाह से देख सभी उस किरदार का अहसास करते। जैसे सपाट चेहरे पर उस किरदार का रंगीला चेहरा बना रहे हो। एक ही रात मे सभी अपने चेहरे मे दिखते चेहरे को पोत उन राहों पर निकल जाते जो अब भी अपने ही जैसे को तलाश रही होती है। उन पुते रंगीले चेहरे के पीछे के चेहरे को सभी ताकना चाहते और खोचना भी।

वे आज तैयार थी अपने चेहरे की शेप के भीतर किसी और को बसाये। (hme` kohish karni hogi esi lines se bachne ki jisme lage ki han hum isme kuch keh gaye....kyunki kisi aur ko isme basaye kise? Taiyar thi kaise pata chala? Nikal jata hai...aur esi lines se hume lagta hai ki dikh raha hai sab...gar by chance yeh line tumhara bhai pade to use smjh ajayega ki kya kehne ki koshish hai? Hutar pe nach pehle pehla bhag tumhara bhai bhi padkar smjh sakega kyun? Kyunki usme padne wale ke sath likhne wala bhi maza le raha hai....nazar ajata hai...ese maze se likhna hoga)


रूप वापस लौटते हैं। किसी समय को साथ लेकर। वे समय जिसे जवाब देना चाहते हैं या वे समय जिससे बहस करना चाहते हैं। समय जिसमें रूप खो गये थे, जाने नहीं जा रहे थे, नकार दिये जा रहे थे। समय उन पड़ावो को रिले करता चलता है जिसमें फिर से ये उम्मीद होती है कि वे रंग ले सकते हैं। 

maza nahi aya dear.....

धन्यवाद
मेरे साथी

Tuesday, May 15, 2012

आइने के सामने

राकेश

आह क्यू की सच्ची कहानी / लेखक - लू शून


आह क्यू की सच्ची कहानी / लेखक - लू शून :
इसमें एक बहस महसूस हुई।
लू शून कहता है - आह क्यू जिसे मैं मिला वे अतीत से दोहराया नहीं जाता। साथ ही भविष्य में अपने निशां लेकर जाने वाले कोई ऐसा किरदार भी नहीं है जिसे उदाहरणता रख उस जगह को बयां किया जाये जिसनें आह क्यू जैसे कईयो से मिलने का मौका दिया।

असल में ये दिलचस्प दिक्कत रही है जैसे - मेरी एक दोस्त है निलोफर - उसका दूसरा घरेलू नाम है नीलम। 

नीलम और निलोफर : नीलम एक कलोनी मे रहने वाली लड़की है और निलोफर शहर मे निकलने वाली। मैं जिससे मिला वो निलोफर है। जो खुद को ऐसा किरदार बनाकर जीती है जिसका कोई कलोनी नहीं। मैं अगर निलोफर को लिखता हूँ तो वो उस जमीन के लिये क्या सवाल उठा पायेगी जिससे वे निकलकर अपनी किसी अभिव्यक़्ति को रच पायी है। आह क्यू को लिखते वक़्त लू शून के दिमाग में जगह और शख़्सियत का आकंड़ा फिट होने मे नहीं था। वे अभिव्यक़्ति को सोचने से पहले उस जगह को सोच रहा था जहां के लिये वे सवाल बन पायेगा। निलोफर को नीलम के नाम से जाना जाता है उसकी उस जगह पर जहां से वो निकलती है। मगर निलोफर ने नीलम को भी निलोफर बनकर ही जिया है। तो सही मायने मे "नीलम" कोई है ही नहीं। मगर आसपास एक हिस्सा सिर्फ नीलम से ताल्लुक रखता है और निलोफर को समझने की कोशिश करता है। मगर वे एक नाम है - जिससे जगह को बयां कर पाना मुमकिन नहीं।

वैसे ही आह क्यू वर्तमान मे जीने वाला एक शख़्स है। जिसे कई नामों से जाना व पूकारा जाता रहा है। लू शून मिला उस आह क्यू से जो कोई भी काम कर खुद को किसी अतीत व भविष्य मे नहीं ढलने देता। लोग उसे दोहराते हैं कि "आह क्यू" कोई भी काम कर सकता है। आज मिले आज करा लो, जो मिले वो करवा लो।

सुनाई जा रही कहानी - जुबानी है और जब वे सुनाई जा रही है तो वो बाहर नहीं रहती वे किसी के अन्दर चली जा रही है। अनेकों स्पष्ट यानि दिखते लोग, इन्ही असपष्ट अनदेखे किरदारों से लाइफ पर गहरे सवाल उठा रहे हैं। देखने वाली निगाह, पूछने वाली जुबान और सामने खड़े होने वाले कदम सभी को उस जमीन से हिला दे रहे हैं जिनका मानना है कि हर वक़्त पुख्ता रहना या तैयार रहना जीवन को आसान बनाता है।

तो फिर "रिडिंग" के खिलाफ हो जाना क्या है? कोई हमें कैसे पढ़ रहा है या कोई हमें कैसे खुद के शब्दों मे ढ़ाल रहा है? मे उभरते इस "कोई" के साथ किस तरह संवाद किया जाये? "ये कोई है कौन?”

"कोई" :

यह "कोई" सतर्कता है, सत्ता है, पारिवारिक है, संस्थाई है, या कोई समुह है जो अपने मे मिलाने से पहले ही हमें हमारे स्वयं से बाहर कर छोड़ता है। बोलता है - तुम्हारे अंदर सब कुछ है। जहां से तुम आये हो वो भी और वहां पर क्या देख पाये हो वो भी। अब वो हमें चाहिये उन सभी मुद्दों के साथ जिनसे तुम टकरा कर आये हो। खुद को लेकर आओ मगर खुद के स्वयं को छोड़कर। इस बहसिया शर्त को कई मौलिक ढांचो और बातचीतों में महसूस किया मैनें। यह किसी परछाई की तरह है मगर कई रूपों में दिखता हो जैसे - यह मेरे जीवन में हमेशा रहा। कभी इससे उठने की ताकत मिली तो कभी इसमें काफी उलझा रहा। लेकिन जीवन की रचना में इस "कोई" का दाव समाजिक और बौद्धिक दोनों के भीतर ही है।

यह कभी थर्ड परसन बना रहा - जिसने मेरे होने को मेरे ना होने के साथ जीने का तर्क दिया, कभी सेकेंड परसन – जिसने दोबारा से तैयार होकर आने का पंच दिया, कभी समाजिक छवि - जो क्या कर रहे हो पूछकर – भविष्य की ओर देखने को कहा, कभी बौद्धिक छवि - क्या कर सकते हो - कहकर अपने सामने खड़े रह पाने का हर बार चैलेंज दिया।



बहस जीवन के सवाल को लेकर होती है मगर वे जीवन किन व्यक़्तित्व के अभिव्यक़्तिय बनेगा के सफर मे होता है।

लख्मी

Saturday, May 5, 2012

किनारो के बीच में नाव

मायनो से बाहर की दुनिया को रचना। जो आदतन छवि को नकार रही है और उसे ना बनाने मे मसरुफ़ है बल्कि दुनिया में किस तरह की रचना को रखना है, जहाँ पर दुनिया वश से बाहर की लगे और सबको इसमें घुसने के अपने साधन बनाने हो। दुनिया को नया बनाना नहीं है और पुराने को तब्दील भी ना करना हो, इसके बीच में बहते जीवन को देखने का फ्रैम क्या है हमारे पास?

दो ठोस किनारो के बीच में बहता पानी (तरलता) अगर दोनों किनारो को आधार ना माने तो फिर दुनिया में अपनी ही सोच का कुछ अंश जोड़ना क्या है?
जोड़,जो कुछ सत्यापित करने के लिए नहीं हैं।
जोड़,जो नियमितता का तोड़ है।
जोड़, जो किसी कोलिज़न से मिलकर अपनी चरम सीमा को बनाती है।
जोड़, जो कभी मिलने के लिए बना ही नहीं है।
जोड़, जो किसी अदृश्य छवि/जादु को दिखाने की चाहत या चैलेंज में है।

कारवां जिसकी संख्या की गिनती अनेकता और विभिन्नता दोनों में आंका जाना मुमकिन नहीं है, वो कारवां हर किसी को अपने साथ लेकर चलने का न्यौता देता है। मगर उसके साथ में न्यौता है,जो दोनो के मिल जाने के मुवमेंट से बनता है। उसकी आगोश में सबका हो जाने का सेन्स देखने को मिलता है। जीवन का रस ही सबका होकर,सबके बीच मिल जाने में है।

कारवां कभी अपना नहीं होता,पराया नहीं होता और इसके साथीदार ना अपने लिए कुछ बनाने में होता है और ना किसी के लिए कुछ रख देने के दम पर। इस झुंड की कल्पना का ख्याल उन नये आयामों और रिश्तो को जन्म देने में खुलता है,जो सामाजिकता और नैतिकता के ख्याल से परे होते हैं। आसामान में उड़ान भरने का ख्याल,हकीकत है या नहीं है,होगा या नहीं होगा के बंधन से परे,साथ को जीकर आगे निकल जाने में है। आगे निकल जाना सिर्फ़ खुद की बोडी को लेकर निकल जाना नहीं है,वो निकल जाना कारवां से छूटकर नये कारवां और काफिले को तैयार करने मे है।

हम अपनी दुनिया को हकीकत है ये मानकर जीते है और ख्याल बनाना और ख्याल आना,ये दोनो ही हकीकत से बहस में रहते है। ये हकीकत बन जाये हम ये भी नहीं चाहते और ये झुठ है,इसमें भी हामी नहीं भरते है। इन दोनो को दुर और पास लाकर,बहस करवा या टकरा,इनके बीच से अपने जीवन का मजा बनाते है। मैं अकेला हूँ, मुझमें भीड़ है..ये एकान्त से विशालता में जाने का सिर्फ़ चिन्ह है। मैं ही सबकुछ हूँ या मुझमें ही सब बसा है,ये दोनो चीज़े मानकर हम स्वंय को गिरावट में ले जाने की क़गार तक आते है। बाहर और अन्दर दोनो के बीच के क्लेश और पल में निर्धारण बनता है,फैसले के लिए नहीं बल्कि बनाने के लिए। दोनो एक दुसरे से होते हुए निकलते है और वापिसी के चिन्ह छोड़ते हुए जाते है। निकल जाना और वापिसी की मुमकिनता पुराने ढांचो को तोड़ देने की ललक से बनती है।

लख्मी

भीड़ के बीच मे गधा

सुनसानियत का अहसास करवाते वर्दीदार सैनिक किसी की नज़र को पकड़ने की कोशिश में शरीर को एकटक बनाये हुये खड़े है। सब कुछ कंट्रोल मे हैं, सब कुछ कंट्रोल मे करने की आंख तेजी से कहीं अटकी हुई है। कुछ तलाशने की कोशिश से बाहर जैसे उसने अपने किसी टारगेट को चुन लिया है। लाइन लम्बी है, दूर तक जाने के अहसास से बनी है, लाइन मे अनगिनत वर्दीदारी खड़े होने के आसार है और अनेकों के सामने खड़े होने के भी। ना जाने कितने चेहरे अपने आपसे से बाहर होकर यहां पर इसी लाइन मे घूसने की कोशिश मे होगे।

उनपर भारी, उनकी लाइन में खड़ा, उनकी स्थिरता से आंख को चुराता हुआ, चेहरे को छुपाने से ज्यादा चेहरे को दिखाने की कोशिश में, ब्लैकवॉल को खुद मे समा ले रहा है। पीछे छुपी और बिछी "ब्लैकवॉल" जहां वर्दीदारी सैनिकों को पूर्ण तरह से देखने का और अपना दाव दिखाने का मौका देती है वहीं पर वे उस इलाके को छुपा लेती हैं जिसके समक्ष इस तैयारी का शामियाना लगाया गया है।

स्थिरता से रची गई कट्रोंल करती गली को डकमगाता एक चेहरा। वे जो महज़ चेहरा ही नहीं है। वे जो चेहरे के जैसा है, वे जो पूरा शरीर है. मगर वे जो शरीर के जैसा है। बदन पर कपड़े इसानी, वे जो इसान जैसा है, दिखता है मगर वो एक गधा। हाथ में एक नोट् फ्लैग पकड़े वे भी इसी स्थिरता का वासी है। पर स्टीकनेश से भरपूर नहीं। वे कभी देखने वाले का हो जाता सा लग रहा है तो कभी किसी सजायेवक्ता जैसा। शरीर की निठाल होती सक्रियेता। उस तरफ पूरी तरह ताला लगा रही है जहां पर तन तक खड़े, हाथों मे हथियार लिये सैनिको को देखकर नज़र बजाकर छुप जाने का खेल होता है। लगता है जैसे सामने खड़े होने की ताकत देता ये 'गधा' पूरे पावर के अभिनय को खुद मे उतार लिया है।

किसी शांत दिखती लकीर की तरह बनते चेहरे /  अनेको अनुमानों को खोल दे रहे हैं। कुछ देर पल जैसे खामोश रहता है। चेहरा अपना रूप ले रहा है। कभी दांय तो कभी बांय होता लगता है जैसे हर पल में एक पाउज़ ले रहा हो। हर बार पाउज़ का विभिन्न रूप और वज़न है।

घंटो अगर यूंही खड़े रहने पर भी दिन गुजर जाये तो दिखने वाली छवि अपने साथ चल देगी। वे जिसमें हर देखने वाला खुद को आसानी से पिरो सकता है। या पिरोये बिना वे जा ही नहीं सकता। जैसे कोई एक सवाल जिसे तलाशा जा रहा है वे – इस रूप मे ढाल देगा। पावर अभिनय है, डर है, स्टिकनेस है, मगर उस स्थिरता में जो तैयारी होने को डरावना करती है। 'गधा' उस तैयारी को उसने स्टेज दे दिया है।

लख्मी

टहलता हुआ पहिया


तीव्र चमक अपने खत्म होते होते किसी स्पार्क की तरह उछल कर टकराने वाले पर पड़ रही है। टकराहट उतनी ही ताकत से चल पड़ती है। झटके के वार से धक्का खाता पहिया, खुद को बेलेंस करता हुआ, लुढ़कता और टहलता हुआ चीजों को धकेलने के तैयार है।

पहले से तैयार जमीन उसके लिये किसी टेस्ट तरह है या बना रही है। तेजी और धीमे के बीच से होता हुआ वे ऊंचाई और निंचाई के साथ खेलता है। जैसे ही वे अपनी रफ्तार को हल्का करता तो सतह का खुर्दरापन उस छलांग मारते पहिये को, भी धक्का मार के आगे की ओर उछाल देता है। उससे वो रूकना नहीं, गिरता नहीं, थमता नहीं पर सतह पर बने रास्ते से टकराकर वे उनसे खुद को बना रहा है। खुद को उल्लास के लिये तैयार करता हुआ। सतह उसकी रफ्तार के साथ मे दूरी और पास का नया रास्ता बनाती चल रही है। राह ने उसके साथ किसी खेल को बनाया है। वे कहां जायेगा का अहसास मिसिंग है मगर कैसे जायेगा का अहसास तय मालुम होता है। सब भागती जाती, अपने वज़न से अपनी रफ्तार बनाती हुई। हल्के पहिये वाला सतह से अपनी रफ्तार बना रहे हैं। गति उस तीव्र चमक को सतह से हवा की ओर ले जा रही है। सतह से हवा तक पहुँचते पहुँचते चमक अपने रंग बदल रही है और साथ ही साथ अपने फोर्स को भी।

आहिस्ता आहिस्ता चमक सतह को छुती हुई किसी अंत की तलाश में मूवमेंट बना रही है। कुछ देर तक चमक लहराती हुई थमी रही है। अपना रंग बदला, आसपास के रंग पर छा गई, और फिर ऊंचाई को चूमने की कोशिश में किसी ना दिखने वाले गर्म अहसास से उड़ चली। कुछ दूरी पर उसके आने के लिये तैयार हो रहा है। एक सुखा गोला, उस गर्म अहसास को अपने मे ले लेने के लिये उत्सुक सा लगता है। उसके ऊंचाई पर खड़े रहने से उसने नीचे गिरना दाव किसी चैलेंज की भांति है। उसने उस गर्म अहसास से एक रंग ले लिया है। रंग ने जैसे उसे उड़ने का मौका दिया। घुमना, घूमना, घूमना जैसे वो नाच रहा है। हवा को अपनी भाप देता हुआ। हवा उसके पीछे पीछे चल रही है। लहराता रंग रोशनी से आसपास के नजारे को चमक तोहफे मे दे रहा है। कुछ जमीन उससे ये रंग चुरा रही है। जैसे कुछ लुटाया जा रहा है और जमीन उसे लूटने के लिये तत्पर है। कुछ देर तक ये डांस चलता रहा। तब वे खुलकर, बिखरकर, पीछे दिखती परछाई से गायब नहीं हो गया। जमीन ने उसके रंग को अपने शरीर पर ले लिया। जमीन भी उस भाप की गर्मी से कुछ देर जल रही है। किसी खतरनाक रूह की भांति वो गोला अपने परर फैलाता हुआ दिखा। जमीन मे कुछ ही देर मे जैसे उस भाप को ट्रांसफर कर दिया। आग लेने वाला कुछ देर तक उसे संभालने का अभिनय करता रहा। जमीन से उसे हिलने नहीं देता। पर जैसे ही परत आग से खुद को खोने लगती है तो हवा का झोंका उसे घुमाकर फैंक दे रहा है। हवा से अपनी जलन को हल्का करता हुआ वे जमीन पर पड़े बिखरे तिनको से मिल गया। तिनको ने उसे ले लिया। तिनको ने अपने को फुलझड़ियों की तरह रंग बिखेरने दिया। कुछ देर सब कुछ उन्ही फुलझड़ियों मे खो गया। उसने आसपास को खुद मे डुबो लिया। आसपास गायब ही हो गया। धीरे धीरे करके जब उन रंगो की ताप ने जोर पकड़ा तो चीज़े दूर होने लगी। उसमे से कुछ लेकर भागने के लिये। जिसको जो चाहिये था उसे मिल गया। मगर अभी उसके लिये वो पूरा नहीं था। एक नाता भाप से तेजी का - बनने मे कुछ कमी थी। समय ने उसे रोके रखा। रोककर उसे भागने का मौके को सोचने के लिये। वो रूका, रूका रहा। किसी गुलेल की तरह उसे तैयार करने के लिये। उसका आसपास पूरी तरह उजाले मे था। रूद्र था। रोशनियों की चकम को संभाले हुये। जिसे भागना है वे तैयार है। उसे गर्मी महसूस नहीं हो रही। रूद्रता उसके पीछे है। उसतक आने के लिये अपना जोर पकड़ रही है। कोई एक लोह उसतक आने के लिये निकल चुकी थी। उसतक पहुँचने मे उसे वक़्त लगा। मगर वो बहुत तेज थी। भड़काव मे थी। उसे भी पीछे से किसी ने तेजी से मारा था। उस तक वो पहुँच चुकी थी। कुछ देर वो उसकी गर्मी की फड़फड़ाहट को झेलता रहा। खुद मे भरता रहा। वो उसे रोक नहीं पाया - खुद को भी नहीं। किसी डर से या किसी उड़ान से या किसी सक्रियेता से वे दौड़ चला। मगर उसे घबराने की कोई जरूरत नहीं थी। उसके डर को अपने अंदर समाने के लिये - फोर्स को थमाने के लिये दीवारें जैसे तनी खड़ी थी। टकराहट की तेजी उसके पार भी निकल सकती थी। उसने उसे जाने नहीं दिया। खुद मे समा लिया। रोक लिया। उसकी चटकने की तेजी को रोक उसने चमक की सक्रियता को उसकी खासियत बना दिया। ना जाने कितनी देर वो उस सक्रियता को संभाले रखेगा!

लख्मी