आह क्यू की सच्ची कहानी / लेखक - लू शून :
इसमें एक बहस महसूस हुई।लू शून कहता है - आह क्यू जिसे मैं मिला वे अतीत से दोहराया नहीं जाता। साथ ही भविष्य में अपने निशां लेकर जाने वाले कोई ऐसा किरदार भी नहीं है जिसे उदाहरणता रख उस जगह को बयां किया जाये जिसनें आह क्यू जैसे कईयो से मिलने का मौका दिया।
असल में ये दिलचस्प दिक्कत रही है जैसे - मेरी एक दोस्त है निलोफर - उसका दूसरा घरेलू नाम है नीलम।
नीलम और निलोफर : नीलम एक कलोनी मे रहने वाली लड़की है और निलोफर शहर मे निकलने वाली। मैं जिससे मिला वो निलोफर है। जो खुद को ऐसा किरदार बनाकर जीती है जिसका कोई कलोनी नहीं। मैं अगर निलोफर को लिखता हूँ तो वो उस जमीन के लिये क्या सवाल उठा पायेगी जिससे वे निकलकर अपनी किसी अभिव्यक़्ति को रच पायी है। आह क्यू को लिखते वक़्त लू शून के दिमाग में जगह और शख़्सियत का आकंड़ा फिट होने मे नहीं था। वे अभिव्यक़्ति को सोचने से पहले उस जगह को सोच रहा था जहां के लिये वे सवाल बन पायेगा। निलोफर को नीलम के नाम से जाना जाता है उसकी उस जगह पर जहां से वो निकलती है। मगर निलोफर ने नीलम को भी निलोफर बनकर ही जिया है। तो सही मायने मे "नीलम" कोई है ही नहीं। मगर आसपास एक हिस्सा सिर्फ नीलम से ताल्लुक रखता है और निलोफर को समझने की कोशिश करता है। मगर वे एक नाम है - जिससे जगह को बयां कर पाना मुमकिन नहीं।
वैसे ही आह क्यू वर्तमान मे जीने वाला एक शख़्स है। जिसे कई नामों से जाना व पूकारा जाता रहा है। लू शून मिला उस आह क्यू से जो कोई भी काम कर खुद को किसी अतीत व भविष्य मे नहीं ढलने देता। लोग उसे दोहराते हैं कि "आह क्यू" कोई भी काम कर सकता है। आज मिले आज करा लो, जो मिले वो करवा लो।
सुनाई जा रही कहानी - जुबानी है और जब वे सुनाई जा रही है तो वो बाहर नहीं रहती वे किसी के अन्दर चली जा रही है। अनेकों स्पष्ट यानि दिखते लोग, इन्ही असपष्ट अनदेखे किरदारों से लाइफ पर गहरे सवाल उठा रहे हैं। देखने वाली निगाह, पूछने वाली जुबान और सामने खड़े होने वाले कदम सभी को उस जमीन से हिला दे रहे हैं जिनका मानना है कि हर वक़्त पुख्ता रहना या तैयार रहना जीवन को आसान बनाता है।
तो फिर "रिडिंग" के खिलाफ हो जाना क्या है? कोई हमें कैसे पढ़ रहा है या कोई हमें कैसे खुद के शब्दों मे ढ़ाल रहा है? मे उभरते इस "कोई" के साथ किस तरह संवाद किया जाये? "ये कोई है कौन?”
"कोई" :
यह "कोई" सतर्कता है, सत्ता है, पारिवारिक है, संस्थाई है, या कोई समुह है जो अपने मे मिलाने से पहले ही हमें हमारे स्वयं से बाहर कर छोड़ता है। बोलता है - तुम्हारे अंदर सब कुछ है। जहां से तुम आये हो वो भी और वहां पर क्या देख पाये हो वो भी। अब वो हमें चाहिये उन सभी मुद्दों के साथ जिनसे तुम टकरा कर आये हो। खुद को लेकर आओ मगर खुद के स्वयं को छोड़कर। इस बहसिया शर्त को कई मौलिक ढांचो और बातचीतों में महसूस किया मैनें। यह किसी परछाई की तरह है मगर कई रूपों में दिखता हो जैसे - यह मेरे जीवन में हमेशा रहा। कभी इससे उठने की ताकत मिली तो कभी इसमें काफी उलझा रहा। लेकिन जीवन की रचना में इस "कोई" का दाव समाजिक और बौद्धिक दोनों के भीतर ही है।
यह कभी थर्ड परसन बना रहा - जिसने मेरे होने को मेरे ना होने के साथ जीने का तर्क दिया, कभी सेकेंड परसन – जिसने दोबारा से तैयार होकर आने का पंच दिया, कभी समाजिक छवि - जो क्या कर रहे हो पूछकर – भविष्य की ओर देखने को कहा, कभी बौद्धिक छवि - क्या कर सकते हो - कहकर अपने सामने खड़े रह पाने का हर बार चैलेंज दिया।
बहस जीवन के सवाल को लेकर होती है मगर वे जीवन किन व्यक़्तित्व के अभिव्यक़्तिय बनेगा के सफर मे होता है।
लख्मी
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