Saturday, June 29, 2019

शमशानघाट से विदा

पंडित जी ने अपना कमन्डल उठाया और शमशानघाट से विदा लेने के लिए तैयार हो गए। बहुत ही नराज़ थे दिल्ली की सरकार से। अब शमशान घाट नये तरीके बनाया जा रहा है। जिसमे उसको बैठने के लायक बनाया जाएगा। जहाँ पर गन्दगी और कोई जानवर ना तो आएगा और ना ही दिखाई देगा। इसलिए पंडित जी की भी विदाई कर दी गई है। सबसे ज़्यादा जानवर पालने वाले ये ही शख़्स थे। जो अपना काम जानवरों से कराते आए है। चाहें वो अन्य जानवरों को भगाना हो या फालतू बच्चों को जो वहाँ से चीजों को बीन कर ले जाया करते थे। जिनके लिए यहाँ की कोई भी चीज भूत-प्रेत की नहीं थी। किसी की साड़ी या किसी का कोई भी कपड़ा हो फिर कोई खिलौना वो सब इनके लिए खेलने के ही आभूषण बन जाते। जिनसे अपने खेलो को सजाया और नाम दिया जाता। वो भी अब नज़र नहीं आएगे। धीरे-धीरे वहाँ कि सफ़ाई भी होने लगी है। वहाँ के पैशाब घर से लेकर लकड़ी की दूकान तक। शमशान घर की बाऊंडरी की दीवार में जितने आने-जाने के अनचाहें द्वार बने हुए थे। जो ज़्यादातर सुअर अपना आने-जाने के रास्ते बनाये हुए थे उसको भी बन्द कर दिया गया है।


ये काम पिछले 3 महिनो से चल रहा है। एमसीडी के कुछ काम करने वाले लोग वहाँ पर हर रोज आते है और सफ़ाई शुरु कर देते है। पंडित जी जिस कोने में अपना आसरा बनाया हुआ था उस जगह की भी सफ़ाई कर दी गई है। पंडित जी ने अपने घर के सामने एक दीवार बनाई हुई थी। अर्थी में आई लकड़ियों से और वहाँ पर पड़ी रहती चीजों से। वो भी वहाँ से हटा देने से इतना खुला-खुला लगता है की शमशान घाट लगता ही नहीं की किसी कालोनी के किनारे का हिस्सा है। वो दीवार ना होने से कालोनी के पार्क का एक छोर शमशानघाट से मिल जाता है और शमशान घाट बहुत बड़ा नज़र आता है।

पंडित जी पूरी सरकार को गालियाँ देते हुए अब अपना बोरिया-बिस्तरा समेट चुके थे। बस, रजिस्टरों पर उनके हस्ताक्षर लेने बाकि थे। मगर वो तो मदिरा में इतने धुत थे कि उनके हस्ताक्षर कैसे कराये जाए ये सोचना पहले जरूरी था। उनको शिवराम जी ने और उनकी घरवाली ने पकड़ा हुआ था वो बहुत नशे में थे।


सफ़ाई हो जाने के बाद भी वहाँ पर एक ही आदमी ने अपना दब-दबा बनाया हुआ था। वो था लकड़ी वाला। लकड़ियों का काम इतना बड़ गया है कि अब शमशान घाट मे लकड़ियाँ ही लकड़ियाँ नज़र आती है। अब वहाँ पर लकड़ी नहीं बल्की अर्थियाँ बिकती है। वो अब लकड़ियों को पहले से ही मोक्षस्थल पर अर्थियाँ बनाकर तैयार रखते है और वही बिकता है। शमशान घाट के गेट के ऊपर एक लाइन जो लिखी है की 'बाहर की कोई भी चीज को अन्दर नहीं लिया जाएगा। कृप्या लकड़ी व क्रियाक्रम का सारा समान अन्दर से ही ले।' हर मोक्षस्थल पर पहले ही अर्थी का सारा समान तैयार होता है तो मुर्दा आता है और उन लकड़ियों पर लेटा दिया जाता है बस, मुखागनी दे जाती है और कार्य समपन्न।


एक-एक अर्थी की कीमत लगा दी जाती है। कीमत होती है 1200, 1500, 2000, 3000 रुपये तक लगा दी जाती है बस, उसी का सौदा किया जाता है। 1200 रुपये में लकड़ियाँ कम और बचा-कुचा माल ज़्यादा होता है। जिसमे चलने के बाद में मुर्दे के खिसकने का डर ज़्यादा रहता है। कई बार तो गीली-गीली लकड़ियाँ रख दी जाती है। जिन्हे जलाने में कई किलो देशी घी लग जाता है तो लोग ऐसा काम ही नहीं करते। वो तो चाहते है की मरने के बाद तो उसे कोई दुख ना हो और मिट्टी का तेल डाला नहीं जा सकता। बस, 2000 रुपये तक में सौदा करने के लिए तैयार हो जाते हैं लोग।

लकड़ी वाले ने कई टन लकड़ियाँ मंगाई हुई है और शमशान घाट मे चारों तरफ़ में अपनी लकड़ियों को फैला हुआ है। देखने मे तो शमशान घाट किसी पार्क से कम नहीं लगता। अब देखा जाए तो डर जैसी हवा दूर तक नहीं भटकती। शाम मे तो शायद वहाँ कई तरह की रोनक बन जाती होगीं। हर वक़्त वहाँ पर लाउडस्पीकर मे गायत्री मन्त्र की कैसेट चलती रहती है और वहाँ आए अर्थी के साथ में लोग उस मन्त्र का आन्नद लेते हैं।


शिवराम जी भी उन्ही पंडित जी के साथ मे शमशान घाट से जाने की कह रहे थे। शायद आगे बनने वाले शमशान घाट मे किसी शिवराम जी की जरूरत नहीं होगी। जो अपनी मर्जी से किसी भी अर्थी के साथ मे लग जाया करते। जो उसे पहले पुन्य का काम मानते और उसके बाद मे कुछ पाने की तमन्ना रखते। अब तो वहाँ पर कोई सरकारी नौकरी करने वाला आएगा जो सारे काम सरकारी नियमों के अनुसार करेगा। शायद अर्थी में होने वाले कामो को भी और रिवाज़ो को भी वो नौकरी मान कर ही करेगा। अब तो सारे काम नियम अनुसार ही होगें। कब क्या करना है वो सब अब कागज़ो में लिखा-पढ़ी के बाद ही आगे बढ़ाया जाएगा।


इन शब्दों में पंडित जी के बोल ज़्यादा थे। शिवराम जी तो बस उन्हे सम्भाले हुए थे और उलटे पाँव जाते-जाते शमशान घाट को ताक रहे थे।

शायद ये उनका आखिरी दिन था।

लख्मी 

Thursday, June 13, 2019

मोहल्ले का पहला घर


हवा जैसे उनके इस कमरे में बिना किसी बंदिश के सफर करती और धूप कोनों में से आकर उनको चूम जाती। मटको को एक के ऊपर एक रखकर उन्होने एक कमरा बनाया हुआ था। तीन तरफ मटको की दीवार बनाकर उसपर हल्की चटाई के साथ तिरपाल डालकर उसे छत का नाम दे रखा था जिसमें बाहर की हर चीज़ शामिल हो जाती तो दूसरी तरफ कमरे के अन्दर का हर माहौल और समय बाहर की दरो - दीवारों को खुद में मिला लेता। ये ऐसा रोशनदान था जो दीवारें होने के बाद भी दीवारे नहीं थी और रोशनदान होने के बाद भी रोशनदान नहीं था। सभी कुछ एक – दूसरे की तस्वीरों में निगाह जमाने जैसा कोई ख़ास पहलू। दीवारें, सुनते ही जैसे दिमाग में मजबूती और महफूज़ियत का दम भरने लगती हैं। जो अगर बाँटती है किन्ही से तो दूसरी तरफ एक और तरफ बनाने का आसरा देती हैं। मगर यहाँ जैसे दीवारें कम और खिड़कियाँ ज्यादा थी। हर छेद एक झरोखा जो यहाँ के हर हिस्से को एक – दूसरे से जोड़कर एक ही बना देता है। इसका कोई एक तरफ नहीं है। कभी कोई किरदार दरवाजे नहीं बल्कि किसी दीवार से कुछ मांग लेता तो कभी कोई बच्चा वहीं से कोई चीज़ पकड़ा देता। दीवार छूकर पकड़ लेने का खेल खेलती जिसमें उन्हे भी तो मज़ा आता था। जब चाहे वो उन्ही मटको की दूरी से बने छेदों से किसी को आवाज़ लगाकर बुला लेती। वहीं एक अन्दर खड़ी हो जाती और एक बाहर बस, बातें होना शुरू हो जाती। उन्हे बातें करते हुए लगता जैसे न तो यहाँ किसी का अन्दर है और न ही बाहर।

कई पहरेदारों और सरकारी कर्मियों का ये जमावड़ा थी। हर लाइन के बन्दे यहाँ पर आकर टकराते थे। किसी से भी कुछ भी करवालों, हाँ बस, थोड़ा सा खर्चा करना होगा। ये रीत बड़ी दिलचस्प सी बनती जा रही थी। कहीं पर दो लोग रात में अपने आप ही चौकीदारी का काम करने के लिए खड़े हो जाते थे तो कोई दो लोग सबका कूड़ा सकेरने तो कोई दो लोग गलियों की सफाई करने के लिए काम का महीना पूरा होते ही सब पँहुच जाते अपने - अपने हिस्से के पैसे मांगने। कम से कम एक रुपया हर घर से या ज़्यादा से ज़्यादा दो रुपया, अच्छे खासे पैसे उनकी जैबों मे बन जाते।

Friday, June 7, 2019

थोड़ा और इंतजार



भरी दोपहरी में जैसे सब कुछ शांत पड़ा है। सारी आवाजें जैसे यहां से होकर गुज़र चुकी हैं। लेकिन यहां पर कोई भी नहीं रूकी है। पूरी जगह ने सारी आवाजों को अपने शोख़ लिया है। जहां पर अस्पताल बिमार को सिर्फ बिमारी से जानता है और अस्पताल की कुछ जगहें बिमार को पेपरों से तो कुछ सिर्फ दवाइयों से। वहीं पर कुछ कोने ऐसे भी होते हैं जहां पर बिमार सिर्फ बिमार होता है।

फोटोस्टेट की मशीन सुबह से चल रही है। दुकानवाला कई बार उसे बंद कर चुका है। एमरजेंसी के गेट के साथ ही में इस दुकान से ही मालुम पड़ रहा है की आज कितनी भीड़ है। जितनी बाहर दिखाई दे रही है उससे कई ज़्यादा शायद अंदर होगी। बाहर वाले बाहर ही बैठे सुस्ता रहे हैं और अंदर वाले अंदर ही रूके हैं। ना तो कई समय से, बाहर से अंदर जा रहा है और ना ही कोई बाहर आ रहा है। कई पर्चे दुकान के बाहर ही बिखरे पड़े हैं। हर पर्चा जैसे अपनी अहमियत खो चुका है। दवाइयों के छिले हुए लिफाफे और पत्ते ज़मीन को छुपाये हवा से यहां से वहां नाच रहे हैं। कई गोलियां, केपशूल, इंजेक्शन और बोतलें खाली हो चुकी हैं। कुछ तो ज़मीन पर बिछी चटाई के हवाले हो गई है। इस चटाई का मालिक कौन है, वे कहां गया है, ये उसके काम की थी या गलती से भूल गया है? ये सोचते हुये और उन्हे देखते हुए निकलना कोई बड़ी बात नहीं है।

दोनों हाथों की कलाइयों में गुलुकोश की सुइयां लगाए एक लगभग साठ साल की बुर्जुग औरत उस चटाई पर आकर बैठी। हाथों में दो लीटर की बड़ी पानी की बोतल और उसी हाथ में अपने पेपरों की थैली पकड़े वो वहीं पर आकर बैठ गई। वो बोतल को अपनी पुरी कोशिश से खोल रही है। हाथ कांप रहे हैं। पतले पतले हाथों की नसों को उस जोर से उभरते हुये देखा जा सकता है। धूप की चमक जैसे ही उसके उन हाथों पर पड़ती तो सुई की जगह पर लगा लाल रंग चमक उठता। हल्का-हल्का खून जैसे उस जगह पर जम चुका है। उन्हे कोई नहीं देख रहा बस, एक कुत्ता उनकी ओर पूरी से तरह ध्यान दिये हुए है। लेकिन वो किसी की ओर नहीं देख रही है। बड़ी जोर आजमाइश के साथ उन्होनें अपनी उस बोतल का ढक्कन खोल लिया और दोनों हाथों की पूरी ताकत से उस दो लीटर की बोतल को उठाया। मगर उनकी ये पहली कोशिश पुरी तरह से कारगर नहीं हो पाई। उन्होने फिर से कोशिश की। इस बार मुंह तक बोतल तो गई लेकिन पानी मुंह तक नहीं जा पाया। कुछ बूंदे मुंह में ज़रूर गिरी होगी लेकिन बाकी का सारा पानी उनके कपड़ों पर गिर गया। उनकी प्यास नहीं भुजी। उन्होनें अपनी थैली को खोला और उसमें से एक प्लासटिक का गिलास निकाला। वो शायद गंदा था। उन्होने उस गिलास में थोड़ा सा पानी भरा और उस गिलास को खंगाल कर पानी फेंक दिया। फिर उसमें दोबारा से पानी और उस कुत्ते की ओर खिसका दिया।

कुछ देर के लिये वो उस कुत्ते को देखती रही और वहीं बैठी रही।

दूसरी तरफ से एक औरत अपने तीन छोटे बच्चों के साथ में बैठ गई। एक बड़ी सी पन्नी ज़मीन पर बिछाकर। उसके तीनों बच्चे उसकी ओर देख रहे हैं। इस तरह से जैसे वो अभी ही कुछ ही देर में गिर पड़ेगी। वो अपने दोनों हाथों से ख़ुद को रोके हुए है। ज़मीन पर उसने अपने दोनों हाथों को जमाया हुआ है। कुछ देर तक वो इसी तरह से बैठी रही। उसके तीनों बच्चे उसी की ओर देखते रहे।

"आपने सुना नहीं है क्या आपको एक्शरा करवाकर लाना है।" एक जोर दार आवाज़ उनके कानों में पड़ी। एक आदमी जिसने अपने मुंह को ढक रखा था और हाथों में प्लासटिक के दस्ताने पहने हुए थे। वो एक टक लगाये उस शख़्स को देखती रही। उन्होनें जल्दी से अपने कागज़ों की पन्नी में से एक बड़ा मिटिया रंग का लिफ़ाफ़ा निकाला और उस शख़्स के हाथों में थमा दिया।

ये पुराना है। आपकों समझ में नहीं आता है क्या?” उस लिफ़ाफ़े को बिना खोले ही उस शख़्स नें उस औरत को वापस दे दिया। वो औरत वहीं पर बैठी उन एक्शरों में कुछ झांकने लगी और वो आदमी आगे की ओर बड़ गया। साथ वाली चटाई पर एक पूरा परिवार बैठा है। अपने बीच में अपने पेपरों को बिछाए। उसे नम्बरबारी से लगाते हुये वो उस आदमी को देख रहे हैं।

हां जी आपका क्या है?” वो आदमी उनकी ओर देखते हुए बोला।
उनमें एक शख़्स अपने पेपर उनको पकड़ाते हुये बोला, “जी इनको टीबी की शिकायत बताई है।"
वो आदमी पूरे पेपर देखते हुये बोला, “तुम्हे कैसे पता की इनको टीबी की शिकायत है?”
जी वो हमारे मोहल्ले के डाक्टर ने बोला था।" वो आदमी नज़र चुराते हुये बोला।
वो आदमी इस नज़र को भांपते हुये बोला, “भाई साहब टेस्ट तो इसमे एक भी नहीं है और आप सीधा सीधा टीबी बोल रहे हैं। मैं क्या देखकर समझूं की इनको क्या है? पहले पूरे टेस्ट तो कराइये ना।"

वो आदमी आगे बड़ गया।

जिस-जिस ओर वो आदमी जाता सभी की नज़र उस ओर ही हो जाती। मगर कुछ हिस्सा अब भी अपने में ही लीन था। इस सब क्रिया से अंजान था। पूरी जगह में जैसे गुट बने थे। कोई किसी का इंतज़ार करता दिख रहा था तो कोई पहली बार आया। कोई किसी के साथ आया था तो कोई सिर्फ सुस्ता रहा था। कोई खुद ही मरीज़ था तो कोई मरीज़ के बाहर आने का इंतज़ार कर रहा था। कोई दवाइयां लेने के लिये बैठा था तो कोई फोर्म भरने के लिये। कोई कुछ बेच रहा था तो कोई खुद ही नौकरी पर था। कोई सोने के लिये आया था तो कोई जैसे कई रातों से सोया ही नहीं था। कोई खाना खाने लिये तैयार हो रहा था तो कोई खाना खाकर भागने के लिये तैयार था। कई लोग, कई गुट, कई परिवार, कई मरीज़, कई साथी, कई कामगार सभी एक-दूसरे के करीब आकर दूर हो जाते। कोई जैसे किसी को नहीं जानता था और ना ही जानना चाहता था फिर भी एक ही धूप से बच रहे थे और एक ही छांव में बैठे थे। एक ही हवा खा रहे थे और एक ही ज़मीन के हिस्सेदार थे। हर कोई अपने शरीर में कोई ना कोई बिमारी लिये हुए बस, उसकी समाप्ती के लिये दुआ करने के लिये इस अस्पताल में हाज़री भरने के लिये आया हुआ था।



लख्मी