हवा
जैसे उनके इस कमरे में
बिना किसी बंदिश
के सफर करती और धूप कोनों में
से आकर उनको चूम जाती। मटको
को एक के ऊपर एक रखकर उन्होने
एक कमरा बनाया हुआ था। तीन तरफ
मटको की दीवार बनाकर उसपर
हल्की चटाई के साथ तिरपाल
डालकर उसे छत का नाम दे रखा था
जिसमें बाहर की हर
चीज़ शामिल हो जाती तो दूसरी
तरफ कमरे के अन्दर का हर माहौल
और समय बाहर की दरो -
दीवारों
को खुद में मिला
लेता। ये ऐसा रोशनदान था जो
दीवारें होने के बाद भी दीवारे
नहीं थी और रोशनदान होने के
बाद भी रोशनदान नहीं था। सभी
कुछ एक – दूसरे की तस्वीरों
में निगाह जमाने
जैसा कोई ख़ास पहलू।
दीवारें,
सुनते
ही जैसे दिमाग में
मजबूती और महफूज़ियत
का दम भरने लगती हैं। जो अगर
बाँटती है किन्ही से तो दूसरी
तरफ एक और तरफ बनाने का आसरा
देती हैं। मगर यहाँ जैसे दीवारें
कम और खिड़कियाँ ज्यादा थी।
हर छेद एक झरोखा जो यहाँ के हर
हिस्से को एक – दूसरे से जोड़कर
एक ही बना देता है। इसका कोई
एक तरफ नहीं है। कभी कोई किरदार
दरवाजे नहीं बल्कि किसी दीवार
से कुछ मांग लेता तो कभी कोई
बच्चा वहीं से कोई चीज़ पकड़ा
देता। दीवार छूकर पकड़ लेने
का खेल खेलती जिसमें
उन्हे भी तो मज़ा आता था। जब
चाहे वो उन्ही मटको की दूरी
से बने छेदों से किसी को आवाज़
लगाकर बुला लेती। वहीं एक
अन्दर खड़ी हो जाती और एक बाहर
बस, बातें
होना शुरू हो जाती। उन्हे
बातें करते हुए लगता जैसे न
तो यहाँ किसी का अन्दर है और
न ही बाहर।
कई
पहरेदारों और सरकारी कर्मियों
का ये जमावड़ा थी। हर लाइन के
बन्दे यहाँ पर आकर टकराते थे।
किसी से भी कुछ भी करवालों,
हाँ
बस, थोड़ा
सा खर्चा करना होगा। ये रीत
बड़ी दिलचस्प सी बनती जा रही
थी। कहीं पर दो लोग
रात में अपने आप ही
चौकीदारी का काम करने के लिए
खड़े हो जाते थे तो कोई दो लोग
सबका कूड़ा सकेरने तो कोई दो
लोग गलियों की सफाई करने के
लिए काम का महीना पूरा होते
ही सब पँहुच जाते अपने -
अपने
हिस्से के पैसे मांगने। कम
से कम एक रुपया हर घर से या
ज़्यादा से ज़्यादा दो
रुपया,
अच्छे
खासे पैसे उनकी जैबों मे बन
जाते।
रात
हो या दिन यहाँ पर ना जाने कितने
लोगों का बसेरा बना रहता। कोई
भी इस जगह से और इस कोने से
वाकिफ नहीं था और न ही यहाँ पर
रुकते किसी बन्दे से। जो भी
आता बस,
अपनी
जगह चुनकर वहीं पर जम जाता।
रात का आलम यहाँ का कभी तो कठोर
बना रहता था तो कभी ना जाने
कितने रोशनी के तार यहाँ पर
खींचे रहते। ये पहला घर था
जहाँ पर बिजली कागज़ों की
मोहताज़ नहीं थी और ना ही किसी
मुखिया के। बस,
एक
तार बाहर में जाते
खम्बे पर डालकर लटकाया हुआ
था। सबको बिजली चाहिये ही।
पहरेदार अलग रोशनी मे बैठकर
अन्धेरे मे नज़र मारना चाहते
थे और चौकीदार रोशनी में
सोते हुए अंधेरों में
खर्राटे मारते लोगों को "जागते
रहों"
का
नारा देकर चमकाये रखते थे।
नींद
का ख़ुमार जोरों पर छाया है।
हर कोई उसके संमदर मे डुबकियाँ
मारना चाहता है। इतनी रात तो
हो गई है कि उस कमरे की तरफ में
नज़रों का जाना वाजिव सा महसूस
हो रहा है। वही लटकते तार और
उसमे लगे एक दो सो वॉट
कर बल्ब की रोशनी बाहर निकलने
लगी है। खम्बों में
भले ही लाइट जले या न जले लेकिन
यहाँ इस घर में लाइट
का जलना जरूरी माना जाता है।
ना जाने सरकार कब कोने के मकानों
में बिजली का प्रबंध
करेगी ये किसी को कुछ पता नहीं
था। सड़क पर गुप अंधेरा रहता
है, जिसके
कारण कभी तो सड़क पर आग जलाकर
रखनी पड़ती है नहीं तो टॉर्च
को हमेशा चालू रखा जाता है।
वो तो भला हो एक अन्जान बिजली
वाले का जो पिछले महीने के चार
रातें यहाँ पर रुका था। उसी
ने अपने पास से यहाँ खम्बे से
बिजली का जुगाड़ किया था नहीं
आज भी गर्मी में आग
जला कर बैठना पड़ता।
बल्ब
चालू होते ही सबके हाथ ऐसे
अपने माथे की तरफ बड़ते जैसे
खुदा को देख लिया हो और सलाम
किया जा रहा है। उस कमरे के
सारे छेदों में से
रोशनी इस कदर बाहर आती जैसे
वो सारी रोशनी की तेज़ तारों
से ही वो कमरा जमीन से जुड़ा
हुआ है नहीं तो अब तक न जाने
कहाँ हवा मे उड़ रहा होता। वो
तारें कमरे से निकलती और जमीन
की तरफ मे बड़ती। ऐसा एक तरफ
ही नहीं बल्की कमरे के चारों
तरफ हो रहा है। मोड़ के बीच मे
बना ये कमरा,
आसपास
मे रखे मिट्टी के समानों,
बर्तनो
और मिट्टी के ढेहरों पर पड़कर
उनमे जैसे कई सोते हुए मोतियों
को जगा रहा हो। रोशनी सबको
अपनी तरफ मे इशारा करती बड़ने
का। अपने को देखने का। वो रोशनी
की तारें कमरे को जमीन से कुछ
इस कदर बांधे रखती जैसे वो कोई
हल्के टेंट का बना मकान है
जिसे उड़ने से रोका हुआ है।
नहीं तो अभी तक आकाशगंगा मे
तैर रहा होता। बाकि तो हर कोई
उसकी रोशनी के एक – एक तार पर
बैठ गया था। एक भारी इंट की
तरह।
वो
उसे निकालना तो नहीं चाहती
थी लेकिन अब बरदास्त के बाहर
था। काफी दिनों से उसे खुद मे
छुपाये चलते -
चलते
मन उकता सा गया था। लेकिन किसको
दिखाये ये भी तो पता नहीं था।
ऐसा तो नहीं था कि उनके इर्द
– गिर्द मे लोगों की कमी थी।
ऐसा भी नहीं था कि वो वे लोग
हैं जो रेडियो की तरह या टीवी
की तरह सबमे बात फैला देगें।
यहाँ जितने भी लोग हैं वो तो
एक – दूसरे को जानते भी नहीं
है। कोई भी किसी के नाम से वाकिफ
नहीं है। बस,
सब
आते हैं और चले जाते हैं। तो
इनमे से किसी को भी दिखाने मे
हर्ज ही क्या है?
अपनों
ने इतना अपने मे बांध लिया था
कि अजनबियों मे भी अपने नज़र
आते थे। यही उनके लिए डर था।
एक
बेहद छोटा सा डिब्बा,
जिसमे
गेरू से आँख और मुँह बना हुआ
था। उसको बाहर निकालकर वो
दरवाजे पर ही बैठ गई। उसमे
बहुत कुछ भरा हुआ था। वो एक –
एक चीज को उस रोशनी मे नज़र
गड़ाकर देखती और फिर वापस रख
लेती फिर कुछ निकालती और दोबारा
रख लेती। वो कुछ कागज़ों मे
खोई हुई थी। जमीन पर एक गोले
से आकर मे रोशनी पड़ रही थी वो
उसी मे उस डिब्बे को रखकर खोले
बैठी थी। काफी कागज़ पहचानने
के बाद मे उन्हे एक कागज़ के
टुकड़े को बाहर निकाला। उसे
अपने हाथों मे पकड़े वो घर के
एक तरफ मे आकर खड़ी हो गई। बस,
बार
– बार वो उसे कभी मोड़ती तो
कभी सीधा कर लेती। वो इंतजार
करती रहती की कोई आये और उनसे
पूछे की क्या पढ़वाना है?
वो
इसी ताक मे वहाँ काफी देर तक
खड़ी रही थी। उनके सब्र का बाण
छूट रहा था वो वहीं पर चली गई
जहाँ पर सारे बाहर से आये लोग
सोये से हुए थे। वो भी जानती
थी के यहाँ पर चाहें कितनी ही
रात हो जाये लेकिन कोई सोता
नहीं है। वो वहाँ पर जाकर किसी
बन्दे को जागते हुआ देखने की
कोशिश कर रही थी।
सारे
सोये हुए से लग रहे थे बस,
एक
पहरेदार ही वहाँ खाट पर बैठा
जाग रहा था। वो उसके पास मे
जाना नहीं चाहती थी। शायद पता
नहीं इस कागज़ मे क्या लिखा
हो? जिसे
ये पढ़कर कोई इल्जाम लगवा दे?
क्या
पता उन्होने कुछ पैसे के बारे
मे बताया हो और ये उनके बारे
मे पूछने लगे?
वो
इसी उलझन मे खड़ी रही। पर इसे
आये भी तो काफी दिन हो गए थे
अगर आज नहीं पढ़वाया तो महीना
ही गुज़र जायेगा। आज तो पढ़वाना
ही है। वो उन पहरेदार के पास
गई और उनकी तरफ मे उस कागज़ को
करते हुए बोली,
“याए
पढ़ दिजियों सर जी।"
उन्होने
उनकी तरफ में देखते हुए वो
कागज़ अपने हाथों मे ले लिया
था और उस कागज़ का खोलते हुए
बोला,
“क्या
है ये?”
वो
अपने डिब्बे को बगल मे दबाते
हुए बोली,
“हमारे
उनका है जे,
ऊ
नखलऊ गए हुए हैं,
वहाँ
से भेजें है जे,
महीना
बीत गया हमें पढ़ने वाला ना
मिला।"
वो
उसे खोलते हुए देखने लगे। मगर
जहाँ पर वो बैठे थे वहाँ रोशनी
थोड़ी कम थी। वो उसे अपने पैरों
मे ले जाते हुए देखने लगे।
रोशनी उनके चेहरे पर नहीं बस,
पैरों
मे पड़ रही थी। वो खाट पर बैठे
- बैठे
ही उसे नीचे की तरफ करके देखने
लगे।
उसे
पूरा खोलकर देखने के बाद मे
बोले,
“यहाँ
पर इतने लोग आते हैं उनसे पढ़वा
लेती। ये पिछले महीने की सत्ताईस
तारीख मे आया था आज तो उन्नीस
तारीख हो रही है दूसरे महीने
की।"
वो
अपने मे बहुत ही धीमे से कहने
लगी,
“यहाँ
पर मोये डर लग रो,
कोई
जाने का कहता की जे क्या पढ़वा
रही है। आज बहुत हिम्मत जुटा
कर पढ़वा रही हूँ।"
उन्होनें
बिना आगे कुछ कहे वो पढ़ना
शुरू किया -
“रामप्यारी
यहाँ लखनऊ मे घर का बंदोबस्त
हो नहीं पा रहा है। मैं खूब
घूम लिया मगर कोई रखने को राज़ी
ही नहीं हो रहा है। का करूँ
समझने तो कछू ना आ रहा है?
मगर
तू चिंता मती करियों,
मैं
हियाँ पर बहुत ही तंदरूस्त
हूँ। मैं जुटा हुआ हूँ काम मे
और घर के बंदोबस्त में। अगले
मे मैं कर लूंगा मोहे जे लग
रहा है।
अपना
ख्याल रखियों,
हियाँ
गर कछू ना हुओ तो वहीं पर बना
लेगें पक्का सा मकान। मैं अगले
महीने की बाईस तारीख
मे आऊँगा। मैंने छुट्टी की
अप्लिकेशन के है। ठीक है?
उन्होनें
सारा कागज़ ख़त्म करते हुए
उससे कहा,
“कैसा
है तेरा मर्द तुझे छोड़कर गया
हुआ है,
और
तेरे बारे मे कुछ नहीं लिखा?”
वो
मुस्कुराते हुए बोली,
“उन्होने
जे काई से लिखवाया होगा और मैं
जे काऊ से पढ़वाऊगीं ये वो खूब
जाने है।"
पहरेदार
जी ने पूरे कागज़ को झुककर
पढ़ा था तो अपनी कमर को थोड़ा
सीधा कर रहे थे। वो उनको आवाज़
देते हुए बोले,
“चल
अब थोड़ा पानी तो पिला दे,
गला
सूख गया मेरा।"
वो
डिब्बे को अपने हाथों मे उठाती
हुई, उस
झरोखे से भरे कमरे मे चली गई।
जब वापस आई तो उनके हाथों मे
पानी का ज़ग था। वो पानी को
अपना ओक बनाकर पीते हुए फिर
से बोले,
“तुझे
डर नहीं लगता इतने सारे लोग
तेरे घर के आसपास मे सोये रहते
हैं? तू
इन्हे भगाती क्यों नहीं है?”
वो
उनकी तरफ देखते हुए बोली,
“ये
मोये जाने ना है तभी डर लगे
हैं नहीं,
जानते
तो मोहे खूब डर लगता। सबके
बारे मे सोचना पड़ता। तुम्हे
पता है सर जी मेरे वो हैं ना
वो भी किसी के आंगन मे सोते
हैं।"
पहरेदार
साबह जी कुछ कह नहीं पाये इसके
बाद वो फिर बोले,
“तुम
कहाँ के हो वैसे?”
वो
यही नहीं बताना चाहती थी। क्या
पता ये जगह पूछ कर हमें यहाँ
से भगा न दे। वो कुछ ऐसा बोलना
चाहती थी जो उन्हे बस,
इस
बात को घुमा सके। वो बोली,
“हमरा
गाँव तो पैंठा है। मथुरा के
रहने वाले हैं हम। ब्याह के
यहीं के हो गए हैं। वो बाहर गए
हैं कमाने।"
पहरेदार
साहब बोले,
“तुम
यहाँ पर कैसे आये?”
वो
बोली,
“कहे
तो रहे हैं कि ब्याह के बाद
यहाँ आये है?”
पहरेदार
जी कुछ समझाते हुए बोले,
“सीधा
यहीं आई थी या दिल्ली मे कहीं
और आई थी?”
वो
बोली,
“हम
झुग्गियों मे आये रहे।"
“तू
यहाँ पर अकेले रहती है तो क्या
करती है?”
पहरेदार
साहब बोले।
“हमरा
काम रहा है ये मिट्टी के बर्तन
बनाने का। हमरे यहाँ हर घर ऐसी
ही जगह में होता है। जहाँ पर
लोगन ने बर्तनो की जरूरत होत
रही है वहीं पर हमरे यहाँ का
हर एक घर चलो जावे है। यहाँ पर
हम आ गए। कहीं और कोई और होगा।"
वो
बहुत प्यार से बोली थी।
“तुम्हे
पता कैसे चल जाता है कि फलानी
जगह मे ऐसी जरूरत पढ़ने वाली
है?”
पहरेदार
साहब बोले।
वो
बहुत ताव से बोली,
“गली
- गली
चक्कर मारत रहे हैं। तो भईया
जी पते तो लग ही जावे है। हम
खूब बर्तन बनाकर जगह – जगह
घूमत रहे हैं। जहाँ लगे है कि
ये जगह कहीं जाने वाली है या
ये जगह बसी जा रही है तो बस,
वहीं
के हो जावे हैं।"
"हमें
देख,
हमें
तो तब पता चलता है किसी जगह का
जब वहाँ से कोई पकड़ा जाता है
या वहाँ का कोई कागज़ तैयार
होता है।"
पहरेदार
साहब बड़े हताशपन मे जैसे बोल
गए थे।
वो
उनको देखकर बोली,
“आप
तो इस जगह के सर जी हैं,
आप
है तभी तो हम है। ये मेरे वो
बोलते हैं हमेशा।"
"अरी
ये तो देख की हमें तो कोई भेजता
है मगर तुम तो अपने आप जगह को
खोज़ते हुए आते हो।"
पहरेदार
साहब बोले।
वो
चारों तरफ मे नज़र मारने लगी।
सभी सो रहे थे। उनको भी बाते
करते -
करते
काफी देर हो चुकी थी। पहरेदार
जी की तो ड्यूटी थी जागने की।
कुछ लोग अभी भी यहाँ आये चले
जा रहे थे। ये शायद चौकीदारी
करने वाले थे।
ये
इस जगह का ऐसा कोना था जिसमे
आवारगियों का एक – दूसरे के
साथ एक खास तरह का समझौता था।
दिल के तार एक – दूसरे के साथ
भले ही ना जुड़े हो लेकिन भटकने
और ठहरने की राहें जरूर एक –
दूसरे के साथ ही बंधी थी। जगह
अभी किसी की नहीं थी और अगले
कुछ सालों तक ये किसी की होने
वाली थी। ये शायद ये कोना तो
बिलकुल भी नहीं। कई सारे मजबूत
बसेरों के बीच मे ये कोना एक
दम आजाद था। कभी ये राहगीरों
की रौनक से सजता तो कभी सराये
बन जाता तो कभी रेन बसेरा। मगर
इतना तो तय था की हर कोई एक –
दूसरे की महक से यहाँ पर खिंचा
चला आता और रूक भी जाता।
इस
जगह का अहसास लोगों मे जैसे
किसी रोग की तरह से फैलता था।
जहाँ हर कोई अपनी चाहतों का
बिछोना लिए चलता -
गुज़रता
था। कुछ पल के लिए ठहरता और
दिन के उजाले मे कहीं खो जाता।
फिर जब लौटता तो उसका चेहरा
कहीं गायब सा होता लेकिन उसके
शरीर का अहसास इतना गहरा होता
की वो अपने साथ कई और लोगों के
होने का आभाष साथ मे लेकर आता।
वो
जाते -
जाते
बोली,
“दिन
तो देखो इतते लोगों मे होने
के बाद भी अकेले से रहवे हैं
लेकिन रात मे दिखे कोई न है
मगर फिर भी लगे हैं जैसे ओरपास
बहुत से जने सो रहे हैं।"
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