भरी दोपहरी
में जैसे सब कुछ शांत पड़ा है। सारी आवाजें जैसे यहां से होकर गुज़र चुकी हैं।
लेकिन यहां पर कोई भी नहीं रूकी है। पूरी जगह ने सारी आवाजों को अपने शोख़ लिया है।
जहां पर अस्पताल बिमार को सिर्फ बिमारी से जानता है और अस्पताल की कुछ जगहें बिमार
को पेपरों से तो कुछ सिर्फ दवाइयों से। वहीं पर कुछ कोने ऐसे भी होते हैं जहां पर
बिमार सिर्फ बिमार होता है।
फोटोस्टेट
की मशीन सुबह से चल रही है। दुकानवाला कई बार उसे बंद कर चुका है। एमरजेंसी के गेट
के साथ ही में इस दुकान से ही मालुम पड़ रहा है की आज कितनी भीड़ है। जितनी बाहर
दिखाई दे रही है उससे कई ज़्यादा शायद अंदर होगी। बाहर वाले बाहर ही बैठे सुस्ता
रहे हैं और अंदर वाले अंदर ही रूके हैं। ना तो कई समय से, बाहर से अंदर जा रहा है और ना ही कोई बाहर आ रहा
है। कई पर्चे दुकान के बाहर ही बिखरे पड़े हैं। हर पर्चा जैसे अपनी अहमियत खो चुका
है। दवाइयों के छिले हुए लिफाफे और पत्ते ज़मीन को छुपाये हवा से यहां से वहां नाच
रहे हैं। कई गोलियां,
केपशूल, इंजेक्शन और बोतलें खाली हो चुकी हैं। कुछ तो ज़मीन
पर बिछी चटाई के हवाले हो गई है। इस चटाई का मालिक कौन है, वे कहां गया है, ये उसके काम की थी या गलती से भूल गया है? ये सोचते हुये और उन्हे देखते हुए निकलना कोई
बड़ी बात नहीं है।
दोनों हाथों
की कलाइयों में गुलुकोश की सुइयां लगाए एक लगभग साठ साल की बुर्जुग औरत उस चटाई पर
आकर बैठी। हाथों में दो लीटर की बड़ी पानी की बोतल और उसी हाथ में अपने पेपरों की
थैली पकड़े वो वहीं पर आकर बैठ गई। वो बोतल को अपनी पुरी कोशिश से खोल रही है। हाथ
कांप रहे हैं। पतले पतले हाथों की नसों को उस जोर से उभरते हुये देखा जा सकता है।
धूप की चमक जैसे ही उसके उन हाथों पर पड़ती तो सुई की जगह पर लगा लाल रंग चमक
उठता। हल्का-हल्का खून जैसे उस जगह पर जम चुका है। उन्हे कोई नहीं देख रहा बस, एक कुत्ता उनकी ओर पूरी से तरह ध्यान दिये हुए
है। लेकिन वो किसी की ओर नहीं देख रही है। बड़ी जोर आजमाइश के साथ उन्होनें अपनी
उस बोतल का ढक्कन खोल लिया और दोनों हाथों की पूरी ताकत से उस दो लीटर की बोतल को
उठाया। मगर उनकी ये पहली कोशिश पुरी तरह से कारगर नहीं हो पाई। उन्होने फिर से
कोशिश की। इस बार मुंह तक बोतल तो गई लेकिन पानी मुंह तक नहीं जा पाया। कुछ बूंदे
मुंह में ज़रूर गिरी होगी लेकिन बाकी का सारा पानी उनके कपड़ों पर गिर गया। उनकी
प्यास नहीं भुजी। उन्होनें अपनी थैली को खोला और उसमें से एक प्लासटिक का गिलास
निकाला। वो शायद गंदा था। उन्होने उस गिलास में थोड़ा सा पानी भरा और उस गिलास को
खंगाल कर पानी फेंक दिया। फिर उसमें दोबारा से पानी और उस कुत्ते की ओर खिसका
दिया।
कुछ देर के
लिये वो उस कुत्ते को देखती रही और वहीं बैठी रही।
दूसरी तरफ
से एक औरत अपने तीन छोटे बच्चों के साथ में बैठ गई। एक बड़ी सी पन्नी ज़मीन पर
बिछाकर। उसके तीनों बच्चे उसकी ओर देख रहे हैं। इस तरह से जैसे वो अभी ही कुछ ही
देर में गिर पड़ेगी। वो अपने दोनों हाथों से ख़ुद को रोके हुए है। ज़मीन पर उसने
अपने दोनों हाथों को जमाया हुआ है। कुछ देर तक वो इसी तरह से बैठी रही। उसके तीनों
बच्चे उसी की ओर देखते रहे।
"आपने सुना नहीं है क्या आपको एक्शरा
करवाकर लाना है।"
एक जोर दार
आवाज़ उनके कानों में पड़ी। एक आदमी जिसने अपने मुंह को ढक रखा था और हाथों में
प्लासटिक के दस्ताने पहने हुए थे। वो एक टक लगाये उस शख़्स को देखती रही। उन्होनें
जल्दी से अपने कागज़ों की पन्नी में से एक बड़ा मिटिया रंग का लिफ़ाफ़ा निकाला और उस शख़्स
के हाथों में थमा दिया।
“ये पुराना है। आपकों समझ में नहीं
आता है क्या?”
उस लिफ़ाफ़े
को बिना खोले ही उस शख़्स नें उस औरत को वापस दे दिया। वो औरत वहीं पर बैठी उन
एक्शरों में कुछ झांकने लगी और वो आदमी आगे की ओर बड़ गया। साथ वाली चटाई पर एक
पूरा परिवार बैठा है। अपने बीच में अपने पेपरों को बिछाए। उसे नम्बरबारी से लगाते
हुये वो उस आदमी को देख रहे हैं।
“हां जी आपका क्या है?” वो आदमी उनकी ओर देखते हुए बोला।
उनमें एक शख़्स
अपने पेपर उनको पकड़ाते हुये बोला, “जी
इनको टीबी की शिकायत बताई है।"
वो आदमी
पूरे पेपर देखते हुये बोला,
“तुम्हे
कैसे पता की इनको टीबी की शिकायत है?”
“जी वो हमारे मोहल्ले के डाक्टर ने
बोला था।"
वो आदमी नज़र
चुराते हुये बोला।
वो आदमी इस
नज़र को भांपते हुये बोला,
“भाई साहब
टेस्ट तो इसमे एक भी नहीं है और आप सीधा सीधा टीबी बोल रहे हैं। मैं क्या देखकर
समझूं की इनको क्या है?
पहले पूरे
टेस्ट तो कराइये ना।"
वो आदमी
आगे बड़ गया।
जिस-जिस ओर
वो आदमी जाता सभी की नज़र उस ओर ही हो जाती। मगर कुछ हिस्सा अब भी अपने में ही लीन
था। इस सब क्रिया से अंजान था। पूरी जगह में जैसे गुट बने थे। कोई किसी का इंतज़ार करता
दिख रहा था तो कोई पहली बार आया। कोई किसी के साथ आया था तो कोई सिर्फ सुस्ता रहा
था। कोई खुद ही मरीज़ था तो कोई मरीज़ के बाहर आने का इंतज़ार कर रहा था। कोई दवाइयां
लेने के लिये बैठा था तो कोई फोर्म भरने के लिये। कोई कुछ बेच रहा था तो कोई खुद
ही नौकरी पर था। कोई सोने के लिये आया था तो कोई जैसे कई रातों से सोया ही नहीं
था। कोई खाना खाने लिये तैयार हो रहा था तो कोई खाना खाकर भागने के लिये तैयार था।
कई लोग, कई गुट, कई
परिवार, कई मरीज़, कई
साथी, कई कामगार सभी एक-दूसरे के करीब आकर दूर हो
जाते। कोई जैसे किसी को नहीं जानता था और ना ही जानना चाहता था फिर भी एक ही धूप
से बच रहे थे और एक ही छांव में बैठे थे। एक ही हवा खा रहे थे और एक ही ज़मीन के
हिस्सेदार थे। हर कोई अपने शरीर में कोई ना कोई बिमारी लिये हुए बस, उसकी समाप्ती के लिये दुआ करने के लिये इस
अस्पताल में हाज़री भरने के लिये आया हुआ था।
लख्मी
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