Tuesday, April 29, 2014

पर्दा और फिल्म के टुकड़े पार्ट 2

उनके लिए ये दौर खाली हाथ बैठने के समान नहीं था। वे हर वक़्त पार्को-पार्को घूमते थे। कभी-कभी तो उन लोगों के साथ नज़र आते जो पार्कों में अपनी पर्दे वाली फ़िल्मों से माहौल को रच रहे थे। उनका काम होता था पार्कों में दस फिट के अन्तराल में लोहे के डण्डे जमीन में गाड़ना और उसपर वो लहराता सफेद पर्दा लगाना। उसके साथ-साथ लगभग दस फिट की ही दूरी पर जमीन में टेबल लगाना उसके बाद उस टेबल पर वो मशीन रख देना जिससे निकलने वाली फ़िल्म की रोशनी पर्दे पर पड़ते ही पूरे पार्क को कुछ ही पलों में लोगों से लबालब भर देती थी।

दसवीं क्लास के पेपर देना उनके लिए अब जी का जंजाल बन गया था। उनका मन बिना उस सिनेमा की चमक से दूर ही नहीं होता था। वो रोशनी उनपर छा गई थी। जिससे उन्हे ये कभी नहीं लगता था कि वे अपना वक़्त ज़ाया कर रहे हैं।

विनोद जी ने अपनी पढ़ाई को छोड़ दिया था और उस पार्क सिनेमा की टीम के साथ जुड़ गए। खाली दक्षिणपुरी में ही नहीं बल्कि दिल्ली की कई और जगहों में भी ये सिनेमा चलता था। वो उन टीम के साथ दिल्ली की और अन्य जगहों में घूमते। वैसे तो उनका काम शाम में ही शुरू होता था। मगर उन्हे पता चल जाया करता था कि इस बार कहाँ पर चलना है और वो उनके साथ में निकल पड़ते थे। दक्षिणपुरी से किद़वाई नगर, किद़वाई नगर से त्रिलोक पुरी उनका जाना तय रहता था। उसके साथ-साथ और न जाने कहाँ-कहाँ पर उनका चक्कर लगता था। वे इस सब से बेहद ख़ुश थे। कुछ ही समय में ये बुखार एक लत की भांति छा गया था।


Wednesday, April 23, 2014

पर्दा और फ़िल्मों के टुकड़े


सूरज के ढलते ही शाम को रोशन करने की तैयारी हो जाती थी। ये वक़्त किसी को कुछ भी भुलने नहीं देता था और न ही किसी को कहीं जाने देता। सारे प्रोग्राम यहाँ पर आकर ख़त्म हो जाते। सभी बस, अपना कोना पकड़ने की जल्दी में रहते। कोई भी दूर से कुछ भी देखना नहीं चाहता था।

हर कोई जैसे करीब और बहुत करीब तक पँहुचने की सोचता। यहाँ पर किसी भी प्रकार का कोई बटवाँरा नहीं था। न तो यहाँ पर बैठने में महिलाये एक तरफ में बैठती थी और न ही मर्द, जिसका जहाँ पर दाव लग जाता वहीं की जगह पकड़ लेता और फिर थोडी ही देर में कहीं खो जाता।

यहाँ तो कुछ और ही था। जो दिलों में कुछ अरमा जगाने की चाहत और किसी दर्शनिये भाव की तरफ ले जाने की तैयारी में रहता था लेकिन ये सब तो हो ही रहा तो होने दो मगर यहाँ पर जमने वाला माहौल तो अपने दर्शनिक पैमाने खुद से बना लेता था।

पार्क के चारों ओर लोग कुछ ही समय में जमा हो जाते। माहौल चाहे हर रोज जमें या न जमें लेकिन शाम के हिस्सेदार हर कोई रोज बनना चाहते थे। ये दौर फ़िल्म और सिनेमा के लिए पहला कदम था। जब लोग बेसब्री से एक माहौल की तरफ में खींचे चले आते थे।

इस वक़्त में न तो पार्क का कोई आमने होता और न ही सामने। न आगे का हिस्सा होता और न ही पीछे का कोना। सब कुछ मिलवट जाता। चारों तरफ के घनघोर अंधेरे ने पार्क ख़ुद को एक जबरदस्त चमक देता। ये चमक न जाने कितने लोगों को अपनी ओर खींचने की ताकत लिए रखती।

एक बेहद रोशन पर्दा, जिसपर चलते रंग ने यहाँ के माहौल को रच दिया था। हर कोई उस पर्दे के बेहद सामने बैठने की जद्दोजहत में लग जाता। अपने-अपने घर से बोरी उठाकर पार्क में जमने की जल्दी में हर कोई रहता। कुछ देर की जद्दोजहद होती उसके बाद में सब खो जाते। किसी को कुछ नहीं दिखाई देता था। बस, दिखता था तो वो पर्दा और उसपर नाचते, घुमते लोग और तीन रंग। लाल, काला और सफेद। इसी को देखने के लिए लोग तरस जाते थे।

काले-सफेद टीवी के दौर में कोई और रंग माहौल को तुरंत भरने का काम करता था। उस समय में टीवी खाली यहाँ के रहीसो के पास ही हुआ करते थे। बाकि के लोग तो बस, उसके घर के सामने खड़े दिखते थे और बच्चे दरवाजों की दरारियो में से झाँकते रहते।

सब कुछ तैयार है, पर्दा भी लग गया है। दर्शक भी अपने-अपने काम से निच्चू होकर अपनी बोरियाँ लेकर जमीन पर विराजमान हो गए हैं। नज़र ठीक सामने हैं, कुछ नज़रे बाहर की तरफ में घूमती हैं किसी को तलाशती हैं, किसी का इंतजार करती है तो कुछ नज़र खाली ये देखने की फिराक में रहती हैं कि अपना कोई पास में है या नहीं।

सब इसी हबड़तबड़ में सब कुछ भुला बैठते थे और अगर नहीं भूलते थे तो सिनेमा का मज़ा लेना दुर्लब हो जाता। इसलिए सब कुछ गवाँकर बैठने में ही मज़ा होता। का‌फी देर तक पर्दा अगर सफेद ही नज़र आता तो आँखें हिलती ही नहीं थी और जैसे ही उसपर कोई और रंग झलकता तो चेहरों की सारी परेशानियाँ, सोच-विचार और थकावट सब कहीं ख़त्म हो जाती।

उस समय पार्क सिनेमा ग्राउंड का अहसास करवाते और वो पर्दा सिनेमा की एक ऐसी तस्वीर उभार देता जिसमें पूरा समाँ बंध जाता।

रोशनी पर्दे पर गिर चुकी है। पूरा इलाका मदहोशी के आलम में बस, खोने ही वाला है। बिना आवाज़ और शौर के ये पूरा माहौल उस पर्दे के सामने अपनी दुनिया में खोने के लिए उत्सुक है। कौन पर्दे के सामने बैठा है और कौन पर्दे के पीछे ये सोचना यहाँ बेफुज़ुल का होगा। पर्दे के दोनों ओर लोग ही लोग बिखरे हैं। दो घंटे के लिए ये पार्क उस दुनिया का हिस्सा बन जाता जिसमें वो फ़िल्म ले जाना चाहती है।

हफ्ते के दो दिन दक्षिणपुरी में पार्क हमेंशा घिरे रहते थे। अगर कहीं पर पता चल जाता की आज उस पार्क में फ़िल्म दिखाई जायेगी तो बस, शाम से ही वहाँ पर खाट, कुर्सियाँ, टेबले और बोरियाँ बिछनी शुरू हो जाती थी। दुकाने तो यहाँ पर जैसे फ़िल्म वालों के साथ-साथ ही चलती थी। किसी को पता हो या न हो लेकिन फैरी वालों इसका पता सबसे पहले लग जाता था। लोग फ़िल्म देखने के लिए हर रोज इस पार्क से उस पार्क घूमते थे तो कभी फैरी वालों से बातें करते थे। दो ही महीनो में पूरे मोहल्ले में फ़िल्म और पर्दे का बुखार छा गया था।

उस समय में अगर पर्दे की फ़िल्म का इतना बुखार था तो दूसरी तरफ में टीवी पर चित्रहार और दूरदर्शन पर आने वाली फिल्में भी काफी जोर पकड़ रही थी। यहाँ दक्षिणपुरी के पान वालो ने तो अपनी दुकान के सामने काला पेन्ट करके उसपर पूरे हफ्ते भर के बार में लिखना भी शुरू कर दिया था। कौन सी फ़िल्म किस दिन आने वाली है और कौन से पार्क में इस बार फ़िल्म लगेगी। ये देखने के लिए सभी उस दुकान खड़े रहते थे। ये सारी खबरे उनके पास कहाँ से आती थी ये पूछना किसी के लिए जरूरी नहीं था। बस, उस काले रंग के नोटिस बोर्ड को देखना उसपर लिखे को पढ़ना और सभी को बताना ये ही जरूरी होता था सभी के लिए।

संतोष जी के घर में पहला टीवी आया था। वे बड़े चाव से आज भी बताती हैं, "जब हमारे यहाँ पर टीवी आया था तो हमारे टीवी पर चित्रहार आ रहा था और जब हमारे पड़ोसी के यहाँ पर टीवी आया था तो मैच आ रहे थे।"

इसे बताकर वे हमेंशा बहुत खुश होती हैं। उनके पति ब्लैक एण्ड व्हाइट टेलीविजन के लिए रंगीन शीसा लेकर आये थे। जिसमें रंग सिर्फ चारों कोनों में ही होते थे। एक कोने में लाल, दूसरे में हरा, तीसरे में पीला, चौथे में नीला होता था और बीच में आसमानी रंग होता था। जब उसपर कोई प्रोग्राम आता तो एक ही चेहरा पाँच रंगो से भरा हुआ नज़र आता था। उसी को वो रंगीन टेलीविजन कहकर नवाज़ते थे। बस, उन्ही के घर में हर वक़्त भीड़ लगी रहती थी।

लोग कैसे कभी टेलीविजन तो कभी पार्क कैसे दौड़ लगाते थे। दिन भर टीवी पर और रात होते ही पार्कों में दौड़ जाते थे। बड़े पर्दे पर फ़िल्म देखान और छोटे पर्दे देखना, लोग इन दोनों का लुफ्ट बखूभी उठाना चाहते थे।

नृत्य का क्रिकेट में बदलना, नीले शीसे का रंगीन शीसे में बदलना और गानो का फ़िल्म में तब्दील होना कोई बड़ा असर नहीं था। जैसे लोग ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी के लिए रंगीन शीसा खरीद लाते थे वैसे ही सब कुछ अपनाया जाता।

लख्मी 

एक अंधेरिया कमरा

राकेश

Saturday, April 5, 2014

हमारे टीचर


फिर से एक बार प्रगति मैदान में एक किताब को लेकर गया। सोचा की वहीं पर कोई जगह देख कर पढ़ा जाए। अपनी जगह से दूर और अपने आप से कुछ अलग। जहां से लोग अजनबी होकर भी खुद को छोड़े हुये से दिखते हो। शायद ऐसी कई जगहें होगी। पर इस समय मैंने चुना प्रगति मैदान को।  

प्रगति मैदान में घूमने के बाद में एक जगह मिली जो वहाँ के कर्मचारियों के कमरे के पास में थी। मैं वहाँ पर किताब को लेकर बैठ गया। वहाँ पर मौजूद कर्मचारी मुझे गहरी निगाह से दिख रहे थे। यहाँ से वहाँ भागते हुये नोजवान और लोगो से दूर मैं आखिर यहाँ बैठा क्यो हूँ। हाथ में एक बैग है और उसे खोल कर बस यहाँ से वहाँ देख रहा हूँ। उनकी निगाह मुझ पर ही थी। जैसे मैं यहाँ के नेचर से बाहर का हूँ। नेचर ही नहीं हूँ।

पहले तो मैंने बस यहाँ से वहाँ देखता रहा। मैदान में नौजवानो का जैसे मेला सा लगा था। लड़कियां लड़के थोड़े से बुजुर्ग और बच्चे। इस जगह को जैसे अपना लिए थे। जैसे ये पूरी जगह उनकी ही थी। घूमना यहाँ पर मना नहीं है।

सब के घूमने से दूर एक मैं ही था जो किताब हाथ मे लेकर बैठा था। वो सारे कर्मचारी मुझे देख रहे थे। कुछ समय की खामोशी चल रही थी हमारे बीच में। कर्मचारी मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे। मैं कौन हूँ?, यहाँ पर क्या कर रहा हूँ?, जैसे बिना मेरी इजाजत के मेरी तलाशी ली जा रही थी। पर इससे ज्यादा मुझे फर्क नहीं था।  

कुछ देर आराम से मैंने किताब को पढ़ा। मेरा पहला पन्ना खत्म ही हुआ था की तभी एक कर्मचारी आया और मेरी पास में खड़ा हो गया। पहले तो मुझे देखता रहा। मैं भी उसे अनदेखा करके किताब मे लीन रहा।

एक ही मिनट के बाद मे वो बोला, “भाई साहब।“
मैंने उसकी ओर देखा और कहा, “क्या है सर?”
वो बोला, “आप कहीं और जाकर बैठ जाइए?”
मैंने पूछा, “क्यो?”
वो बोला, “आप यहाँ पर नहीं बैठ सकते। ये बैठने का स्थान नहीं है?”
मैंने बहुत ही विनम्र होकर कहा, “पर मैं तो आराम से किताब पढ़ रहा हूँ?”
वो बोला, “वो तो दिख रहा है। मगर यहाँ पर के जगह पर ज्यादा देर तक नहीं बैठ सकते। हाँ, घूमते रहिए।“
मैंने हँसकर पूछा, “मैं घूम घूम कर किताब नहीं पढ़ सकता मगर। क्रप्या मुझे बैठने दीजिये।“
वो नहीं माना और बोला, “बैठना है तो आप किसी पार्क में जाइये या घूमते रहिए। आप बस उठ जाइए।“
मैं उठ गया और उससे पूछा, “आप मेरे बैठ कर किताब पढ़ने को क्या कोई जुर्म मानते है?”
वो बड़े कड़ेपन से बोला, “मैं नहीं मानता मगर आप यहाँ से जाइए।“
मैंने पूछा, “यहाँ पर कोई ऐसी जगह है जहां पर मैंने बैठ कर पढ़ सकता हूँ?”
वो बोला, “मुझे नहीं मालूम।“
मैंने पूछा, “आप इतना गुस्सा क्यो हो रहे है?”
वो बोला, “मैं अपनी ड्यूटि कर रहा हूँ।“
मैंने पूछा, “किसी को बैठ कर किताब पढ़ते हुये हटाना क्या आपकी ड्यूटि में आता है?”
वो ज़ोर से बोला, “हाँ आता है।“

मैंने ज्यादा बात न करते हुये वहाँ से जाना ही मुनासिब समझा। मैंने जाते जाते बस पूछा, “क्या मैं सामने जो पार्क दिख रहा है वहाँ पर बैठ सकता हूँ?”
वो बोला, “अपना कोई आईडी दिखाये।“
मैंने कहा, “वो तो मैं अपने ही शहर में लेकर नहीं घूमता।“
इस पर वो बोला, “शहर अपना है ये कैसे बताओगे फिर? आप जाइए और आईडी ले आइये फिर बैठ जाना।“

मैं उसकी ओर देखता रहा और मुसकुराता हुआ बाहर निकल गया। सोचा ये कोई कर्मचारी नहीं है ये हमारे टीचर हैं। जो हमे सीखा रहे है।

शहर अपना है ये कैसे बताओगे आप?


राकेश