Monday, December 19, 2011

Friday, December 16, 2011

लिखने की जूस्तजू

- खुद के बाहर जाकर लिखना
- खुद को छोड़कर लिखना
- खुद को तोड़कर लिखना।
- खुद को किनारे पर खड़ा करके लिखना
- खुद से लड़ते हुये लिखना
- अपने को भावनात्मकता से बारह ले जाकर लिखना
- नैतिक और पहचान से बाहर होकर लिखना
- “मन" के वश मे आये हुए लिखना
- नियमित्ता से टकराते हुये लिखना
- खुद को भीड़ मे रखकर लिखना
- अपने को एंकात मे महसूस करके लिखना
- हकीकी जीवन ब्योरे से बाहर होकर लिखना
- लाइव टेलिकास्ट होकर लिखना
- अंजान और परिचय से बाहर होकर लिखना
- "कारण" के बिना लिखना
- सवालों से लिखना
- बिना सवालों के लिखना
- खोज़ करते हुये लिखना
- बिना सवाल जवाब के बातचीत लिखना
- खुद को सवाल करते हुये लिखना
- खुद को गायब करके लिखना
- खुद को छुपा कर लिखना
- किसी मे दाखिल होकर लिखना
- बिना सहमति के लिखना
- खुद को और आसपास सुनकर लिखना
- जीवन कोमेंट्री करते हुये लिखना
- बिना कहानी के लिखना
- अपने को समझाते हुये लिखना
- “कहाँ" की कल्पना करते हुये लिखना
- काल्पनिक किरदार को बनाते हुये लिखना
- अतीत और याद के बाहर होकर लिखना
- जगह को पहेली की तरह महसूस करते हुये लिखना
- चीज़ों से लिखना
- बेजान चीज़ों के बीच मे बातचीत कराते हुए लिखना
- दृश्य को दर्शन बनाकर लिखना
- बिना किसी निर्णय के लिखना
- खुद को चोट पहुँचाकर लिखना
- खुद के दायरे से टकराते हुये लिखना
- अपने मे किसी और के अहसास से लिखना
- अपने से अजनबी बनकर लिखना
- बिना पारिवारिक और काम के घेरे मे जाये लिखना
- बिना किसी स्टॉप के लिखना
- खुद को लिखना, बिना कोई परिचय दिये
- स्वयं के साथ बातचीत करके लिखना
- काम और रिश्तों के बाहर जाकर बातचीत करके लिखना
- खुद को वास्तविक्ता से बाहर ले जाकर लिखना
- खुद की उम्र कम करके लिखना।
- खुद के बने - बनाये तरीके से हट कर लिखना
- नये ढाँचे बनाते हुये लिखना
- जगह को रहस्य बनाकर लिखना

"प्रभाव"

हम लिबास, छवि, रूप और नकाब को सोचते हैं। इनसे बहस करते हैं, बदलते हैं, लड़ते हैं और संधि भी करते हैं लेकिन ये क्या है? और इनके बीच में क्या है? पिछली रात – "अंत के बिना" एक प्रफोमेंस देखा। कुछ ऐसा लगा की ये इनके बीच में हैं - ये एक पिरोया हुआ संवाद है जो एक दूसरे के गुथे होने से तैयार होता है।

"अंत के बिना" का एक दृश्य :
एक लड़की अपने चेहरे पर रंग ही रंग चड़ाती है बिना पहले किया हुआ रंग मिटाये बिना। कभी लाल, कभी सफेद, कभी हरा, कभी पीला, कभी नीला तो कभी काला। लगाती जाती है - लगाती जाती है। फिर उन्हे एक सफेद कपड़े से पोंछती है। तो रंग साफ नहीं होते बल्कि एक ऐसा रंग चेहरे पर चड़ जाता है जो उसने मला नहीं था।

प्रफोमेंस :
अपने पूरे शरीर पर काला रंग चड़ाये वे कमरे से बाहर आता है। कई काले रंग के कुर्ते पहने हुए। एक – एक कर वे अपने सभी कुर्ते पब्लिक में बैठे लोगों को पहना देता है। फिर एक शरीर जो अपने रंग से निजी रंग से पुता हुआ था वे भी किन्ही हिस्सों से किसी और रंग मे चला जाता है। जिन लोगों को उसने अपने कुर्ते पहनाये थे बिना उतारे हुए उनके भीतर भी वे उस रंग की कसक डाल देता है।

इनमें हम अभिव्यक़्तियों, नकाब और लिबास को किन सवालों के थ्रू सोच सकते हैं? जबकि ये इस अवधारणा को तोड़ता है की जीवन कई रूप मे जीता है। जो एक से निकलकर दूसरे मे जाना है। शायद एक – दूसरे के बीच में कई सवाल है जो इन्हे जुदा करते हैं। एक दूसरे के विपरित खड़ा करते हैं। हर छवि एक दूसरे से भिन्न होती है लेकिन क्या वे एक दूसरे से बिना है?

लिबास क्या है? किसी को धारण करना है या कुछ और है? "वक़्त" इस सवाल को पूछता है - बेहद गहरी चुप्पी के साथ। मुझे लगा की "चुप्पी" ही इसका जवाब है लेकिन ऐसा नहीं है। "चुप्पी" उस लिबास की वो आवाज़ है जो चीखती है - मौजूद रहती है।

छवि, रूप, लिबास या नकाब – ये "पिछला छोड़ना" और "किसी दूसरे" में जाना नहीं है। वे रीले करता है। किन्ही चेहरों को, सफ़र को - जो जीवनंता के अहसास से बनी होती है। ये लड़ाका नहीं होती - ये रोमांचक है। वे जो अपना रोमांच चुनती नहीं है - खोजती है। ये एक - दूसरे के भीतर से निकलकर जीने वाली आकृतियाँ है। कुछ भी बाहर का नहीं है या ये सब अंदर का नहीं था। ये अंदर बना था बाहर से और बाहर गुथा है अंदर से। "पिछले की कग़ार" जो अगले को बनाती हो।

बेहद रोमांचक है -
बिना रूके उस ओर ले जाता है जिसका छोर नहीं है। गुथा हुआ, पिरोया हुआ और धारण करना के मौलिक ढाँचों से सीधा टकराता है उसे तोड़ता है। फिर बात करता है। बहुत अच्छी रात रही -

लख्मी

Thursday, December 1, 2011

ख्याब़ों जो बिना आवाज़ के हैं



एक स्नेह फिसलकर निकली हाथो की पकड़ से, कहीं दूर... कहीं दूर.....

उसका कोई चेहरा नहीं,
उसकी कोई आवाज नहीं,
उसका कोई शरीर नहीं,
उसकी कोई महक नहीं,
उसका कोई छुअन नहीं,
उसका अहसास नहीं,
उसका कोई चुभन नहीं,
उसका कोई दर्द नहीं,
उसकी कोई खुशी नहीं,
उसकी कोई याद नहीं,
उसकी कोई कल नहीं,

पर उसकी धड़कन है जो मेरी सांसो से बात करती है - कुछ कहती है, बंद आंखो में आकर कुछ लकीरें खींचती है और फिर कहती है मुझे पहचान - अपनी धड़कन से....

राकेश