Thursday, June 24, 2010

रोशनियाँ खोने लग जाती है।

नींद से भरा शरीर और रातों से जागी आँखें। उम्मीदों से बड़े सपनें, तन्हाइयों से गहरे लम्हें।

जब कमरे से बाहर देखा की रात अभी बाकी है तो सोचा रात में जो दिखता है उसको सोचना ना मूमकिन सा लगता है पर दूसरे ही पल सब साधारण लगने लग जाता है।

जैसे कुछ कर जाने की ताकत हमारे पास है । रोशनियाँ खोने लग जाती है। जब सुबह का उंजाला खुद को पेश करता है।

हवा जैसे चीजों को कोई नया जूंबा दे जाती है। माहौल अपनी मटरगश्ती में मश्गूल हो जाता है। कहीं दूर से आती कुछ आवाजें किसी जगह में हो रहे कार्यक्रम का अवागमन करती है।
"कौने है वहां?”

किसी ने अपने पड़ोस के मकान से आई अजीब सी आवाज को सुनकर कहा, "शायद कुछ सामन गिर गया था।" "बिल्ली होगी और कौन हो सकता है?” दिपा ने कहा।

दिपा यहां रहती है। उसको पता है की यहाँ सामने वाले मकान में कई दिनों से कोई आया नहीं है।

हाँ उसे ये जरूर पता है की यहां पहले कोई रहता था पर पिछले दस साल से कोई नहीं आया ।
बस आती है ,तो हमेशा कुछ गिरने-पड़ने की आवाजें। अब उस बरामडें मकड़ियों ने अपना कोना बना लिया है कॉकरोच और मच्छर रेस लगाते दिखाई देते हैं।
दिपा का भाई कृष्णा बी.ए. कर रहा है। वो रोजाना अपनी बालकनी में जब भी किताबे लेकर बेठता है ,तो उसे अपने सामने वाले मकान को देखकर दुख भी होता है।
कभी उसे देखने के बाद कई तरह की उल्झने पैदा हो जाती है।

वो सामने वाले मकान में जिसमे कई दिनों से कोई रहने ही नहीं आया।
पहले इस में कुच लोग रहा करते थे ।
पर अब यहा सिर्फ किसी के होने के अवशेष बचें हैं। जो दिखता है वो बाहर रखा बर्तन रखने का टोकरा। दिवार पर टंगी खूटियाँ ऊपर की तरफ लगा बल्ब जिसमें मकड़ी का बड़ा जाला बना है। लाल गेहरू से बने देवी-देवताओ के चित्र ।
जो किसी अपसर के वार्तावरण को ताजा कर देते है। जब ये सब समझ मे आता है, तो उस गुजरें वक़्त के टूकडे फिर से सामने आ जाते है।
जिनसे जीवन के पहलूओ की एक छाप मिलती है।

कृष्णा और दिपा अक्सर अपनी बालकनी में आकार बैठते हैं। उनकी नज़र ज़्यादातर अपने और सामने वाले बालकनी के कमरे के बारे में सोचती है। वो घर बनाने वाली चीजें जो हमेशा किसी के जरूरतमंद होने का अहसास कराती है ।
जिसको पाने की संम्भावता को पूरा करने की हर संम्भव कोशिश करनी होती है।

बाहर के दृश्य जो अपने आप में बहुत बड़े होते हैं जिसमे खुद को समाना मुश्किल होता है। उतना ही जो करीब होता है उससे भिड़ंत में जीत पाना सम्भव नहीं होता तो करीबी अहसास को कैसे सोचे? उस बालकनी के कमरे में जो भी बची चीज़ें नज़र आती थी वो किसी न किसी रूपरेखा को दर्शाती थी।

वैसे जगह की रूपरेखा ही मूश्किल हलात पैदा कर देती है।
जगह मे जब हम देखते है की अभी क्या हे और वो अपने होने के पहले को कैसे सोचता हे । या सोचता भी है क्या ? कही जो वर्नण जो हे वो आने वाले के लिये कोई जीवन की स्थापना तो नही है?


कही कोई शख्स नही बस किसी होने के चिन्ह है जो कभी बने है और जिसे कोई तलाश एक छौर तक बना गई है।
वो वक़्त से कैसा रिश्ता है ?
जिस मे सब दिखता भी है और कभी औझल भी हो जाता है।


अगर इस नज़रीये से देखे तो वो जगह जो अपने भीतर किसी जीवन के पुर्व-अनूमानो को लेकर जी रही है।


राकेश










































Wednesday, June 23, 2010

कट्टरपंथी द्वार

लिखना क्या है? और लिखने की कग़ारें क्या हैं? हम उनको कैसे लिखते हैं जो हमारी याद से बाहर है और उनके कैसे जो याद में होने के बाद भी बाहर है?

रिश्तों की कट्टरपंथी और उसके चेनसिस्टम में रहकर क्या किसी किरदार के खोने को लिखा या बयाँ किया जा सकता है? असल मे लिखना खाली ये ही नहीं कि जिस क़िरदार से दुनिया का दर्शन करने की चाहत बनाई है उसी को दूर या पास के खेल में लेकर लिखना होता है। बल्कि लिखना खुद के साथ बहस और खास लड़ाई को उभार पाने की कोशिश से भी उत्पन्न होता है।

शहर के बीच मे और रिश्तों के गठबंधन से बाहर निकलकर सोचने की कोशिश की, कोई किरदार अपने अकेले होने को खोने तक का अहसास करेगा तो शायद वो उस माहौल को बयाँ करने लगेगा जो भरपूर है। जैसे किसी को बताने से पहले उसके तोड़ को बताया जा रहा है। जैसे - किसी के होने और किसी के खोने के बीच में क्या उत्पन्न होता है उसको पीछे छोड़ा गया हो लेकिन सवाल यहीं पर बनता है कि क्यों? क्या किसी भरे पूरे माहौल के बिना किसी के होने के अहसास को लिखा जा सकता है?

एक साथी की डायरी पढ़ते समय महसूस हुआ की कुछ चीजें इन्सान के अंदर बसी हैं। जो स्वभाव और बर्ताव में नहीं दिख सकती। उसे पहले खुद ही महसूस किया जा सकता है उसके बाद वो बाहर निकलती है। जो इस जीवन के दर्शन में उभरता है। बहुत महीम सी लकीर है जिसे कभी तोड़ा या लम्बा नहीं किया जा सकता बस, महसूस किया जा सकता है।

हम रिश्तों में इतने क्यों बसे हैं? क्या रिश्तों के अलावा किसी चेहरे, शरीर और सादगी को देखना हमारे लिये मुस्किल है?

जिस अजनबी रिश्ते से चेहरा आखों में अपनी जगह बनता है वो धीरे-धीरे घर की ग्रफ्त में आने लगता है। इस ग्रफ्त से बाहर अगर जीवन और जीवन के सफ़र को देखा जाये तो जिंदगी कितनी ताज़ी रहेगी? हम जानते हैं की हमारी गोद में आने से पहले से ही दुनिया में नया कदम रखने वाला शरीर अनेकों रिश्तों से बंध जाता है, उसका अजनबी अहसास कहीं खोता जाता है। लेकिन इस दुनिया में और इस जीवन के मोड़ों में लगता है जैसे रिश्तों को आज़ाद छोड़कर अपनाना जीवनवार्ता को नई कहानियाँ और चेहरे दे डालता है।

इसे रिश्ते की तरह अगर न देखा जाये तो ये वो सम्भावनाएं खोलती है जिसमें हर सुबह ताज़ी होगी। कोई अपने दिन को अपनी जिन्दगी मे छाप छोड़ने के अहसास मे जीता है जिसके लिये जीना, दिन का ढ़लना और दिन का उगना हर तरह से जीवन की विषेश पलों मे ले जाता है उससे मिलने का अहसास क्या है? उसके माहौल बयाँ करने से पहले उसे इस महसूसकृत जीवन से मिलने न्यौता कुछ खास है।

लख्मी

Friday, June 18, 2010

मूलधाराओं से बाहर

मैंने एक लेख पढ़ा अच्छा लगा.
लेकिन उससे एक सवाल ने अपनी जगह बनाइ

मैंने कई ब्लॉग पड़े - जो हिन्दू और समाज को लेकर खुद को शहर रखते हैं। लेकिन हर किसी में शहर का वो अंग बसा होता है जिसे बोलना और न बोलना दोनों ही सूरत में उसको गाड़ा करने के समान ही होता है। मैं मानता हूँ उन सभी ब्लॉग में दुनिया भर के शब्द हैं। जो अपनी गाथा खुद कहते हैं बल्कि जो उन्हें लिख रहा है उस लिखने वाले के जीवन की भी झलकियाँ दे डालते हैं.जीवन इसे ही चलता है और साथ ही साथ बनता भी जाता है.

खैर, ये तो बात बहुत आसान है कहने के लिए.

पढते समय दिमाग में उछला की क्या हम हिन्दुस्तानी जब खुद को कहते हुए कुछ रचने की कोशिश करते है तो वही दुनिया क्यों बयाँ कर जाते है जो दिखती है या छुपी होती है? जो छुपा है उसे दिखना, जो खोता जा रहा हे उसे याद दिलाना, जो मिट रहा है उसे गाड़ा करना या हो छुट रहा है उसे पकड़ना इसके अलावा क्या है? या क्या हो सकता है? इन सभी ब्लॉग में पाया देश को लिखना, देश को बताना, हालत को लिखना और हालत को बताना. खुद को कभी दूर रखकर तो कभी खुद को शिकार बनाकर लिखना. इसमें भाव इतने नाज़ुक बनते जाते है जिन्हें तोडा या छेड़ा नहीं जा सकता है. क्योंकि ये उस जीवन की दास्ताँ बनती जाती है जिसके अंदर घुसने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसके बदलाव का इन्तजार करना. ऐसा लगा जैसे इन सबके बीच में उन कल्पनाओ की जगह कहाँ गायब हो जाती है जो हर शख्स खुद में लिए जीता है. खाली अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने रिश्तों और संधर्बो के लिए भी उसकी कल्पनाओ का एहसास छुपा होता है.

मैं पिछले दिनों कई लोगों से मिला, हर कोई अपनी जीवन की घटनाओ और जगह के रूपों को बताने के लिए तेयार था. लेकिन जब उनके हालत को पूछने की कोशिश करता तो वो हंस कर टाल देते. पहले तो मैं सोचता रहा की ये एसा क्यों कर रहे हैं. फिर जब इस धुन को लिखने की कोशिश की तो लगा की लोग अपने को उड़न में देखना चाहते है और दिखाना चाहते है तो उनके गुजरे वक्त और हालत को बताने से ज्यादा मायने रखता है उनकी कल्पनाओ की रचना करना.

सोचता हूँ इन बातों को : -
जगह पर लिखना, जगह में लिखना और जगह को लिखना:- इन बहुत दूरी का एहसास होता है.हम तीनो को मिला देते है।
वैसे ही किसी हालत को लिखना, हालत में लिखना और हालत पर लिखना इनमे भी दूरी का खास एहसास है।
किसी किरदार को लिखना, किसी किरदार में लिखना और किसी किरदार पर लिखना:- इसमें में.

हम कैसे लिख रहे हैं? कहाँ से लिख रहे हैं? कबसे लिख रहे हैं?
एक पल और अनेको पल मिलकर क्या बनाते हैं? इस दूरी को समझने की कोशिश होगी.

दुनिया बहुत गहरी है, जितना डूबना चाहे डूबा जा सकता है. बनी हुई मूल्धाराओं से बाहर कैसे जाया जाये? ये मूल्धाराओं में जीने की वो कोशिश है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद के साथ बहसी बनने के समान होगा.
क्या खुद के साथ बहसी बना सकता है?

लख्मी

काश मेरा भाव ही मेरा विरोधी होता!

दुनिया को देखने को जी चाहता है मगर क्या करूँ
जो चश्मा लगा है आखों पर वो कैसे उतारूँ?
जो देखना चाहता हूँ वही क्यों देखूं
जिस पर नज़र रोकना चाहता हूँ वहीँ पर क्यों मैं रुकूँ?

दुनिया पाना चाहता हूँ मगर अपनी ख़ुशी क्यों पकडे रखूं?
आजाद तमनाओं को क्यों अपनी जकड़ें रखूं?
मन से मचलना चाहता हूँ अपने शरीर में
लेकिन मन को अपने शरीर में लेकर क्यों चलूँ?

लगता है शरीर में बोझ बड़ गया है मेरी अनेकों जिंदगियों का
उसमे बहते अनेको किरदारों का, उनके अंदर बसतें उनके अनेको एहसासों का
कभी जी करता है उन सबको निकाल बाहर कर के अकेले भी जिया जाये
कुछ अलग का एहसास जो मड़ता है अंदर मेरे उसको शरीर में पिरोया जाये

शरीर फिर भी तनहा न हो सका वो न जाने और किन किरदारों में जा बसा
एक ही शरीर के कई टुकरे हो गये..
मेरी ही सूरत के कई चेहरे हो गये
खुद को पहली बार अपने ही शरीर से बाहर महसूस किया मैंने
उस लम्हे को जैसे अनेको बार जिया मैंने

सारे भाव मेरी ख़ुशी को कुछ समय के लिए जैसे मुझसे दूर कहीं सो गये
और हम एक से अनेक हो गये.

लख्मी

Wednesday, June 9, 2010

ठोस तरलता



क्या हो अगर सारी दुनिया की ठोस और मजबूत चीज़ें एक दम से तरलता में बदल जाये?
अगर आप किन्ही ठोस चीज़ों को तरलता में देखना चाहेंगे वे कौन सी चीज़ें होगीं?

घर, जिसको समाजिक जिन्दगी का सबसे मजबूत और ठोस ढाँचा माना जाता है। उसके अन्दर बहते हर लम्हे, याद, अनुभव और फैसलें खुद को मजबूत करने के आइने बनते जाते हैं। लेकिन कल्पना में उसको तरल करके देखने की नाज़ूक उम्मीदें हमेशा चलती रहती है।

ये दुनिया कुछ उन कल्पनाओं की ही भांति है जिसको खुद मे तरल अहसास से घुसा जाता है। एक बार मे लगता है जैसे खुद को छूने का अहसास है।

ये भले ही किसी इफेक्ट से उपजती है लेकिन इससे जीवन की मूलधाराओं और मजबूत ढाँचों मे उस अहसास से दाखिल होने का अंदेशा देता है जिससे हम खुद को तरल कर सकते हैं।

डर, भय और खौफ ये सभी शब्द बेजान हो जाते हैं और चेहरे के भाव मे किसी और अक्श का जीवन पनपने लगता है।

लख्मी

Tuesday, June 1, 2010

बहसी -

कलाकार और कलाकारी क्या है? इसके बीच मे कितना गेप है?
हम मानते हैं कि जो बन गया वो कलाकारी है मगर फिर जो बनेगा वो क्या है?

कलाकार और उनके कुछ बनाने के अंतराल में कई बहस और भिंड़त का खेल होता है जिसमें समय की अवधि और उसमे बनने टूटने वाले कई अनेकों अवशेष इस बात के गवाह बनते हैं की एक कलाकार और उसके चीज़ों से विरोध में जो पिरोया जाता है वो उसकी खास अभिव्यक़्ति का अहसास होता है। असल मायने में कलाकार खुद का बहसी होने का नाम है। ये बहसी होना क्या है? इस बहस के अन्दर जितना प्यार और स्नेह का घोल मिला होता है, उतना ही रिश्तों और उनसे टकरार का खेल भी शामिल होता है। चीज़ों की परख अगर खुद के मेल से परे हैं तो उसका वज़न सवालों और जवाबों का अनुभूती शामिल होता है।

देखा जाये तो, किसी चीज़ में अपना जीवन देना उसको अपनी पौशाक नहीं बनने देना। ये उस अभिव्यक़्ति की भांति होता है जिससे खुद के चेहरे और स्वभाव को तोड़ा और बनाया जाता है। अनेकों अभिव्यक़्तियों से जन्मी कग़ारें इसको भरपूर जीने के लायक बनाती है। वे अहसास जो किसी अन्य जीवन को भी अपना सारर्थी बनाकर जी लेगा और उसके अपना स्वरूप बना लेगा का जीवन बहुत मायने पूर्ण अहसास जगाता है।






कलाकार और कलाकारी के मध्य में किसी चिन्ह का खेल है।

लख्मी