Friday, June 18, 2010

काश मेरा भाव ही मेरा विरोधी होता!

दुनिया को देखने को जी चाहता है मगर क्या करूँ
जो चश्मा लगा है आखों पर वो कैसे उतारूँ?
जो देखना चाहता हूँ वही क्यों देखूं
जिस पर नज़र रोकना चाहता हूँ वहीँ पर क्यों मैं रुकूँ?

दुनिया पाना चाहता हूँ मगर अपनी ख़ुशी क्यों पकडे रखूं?
आजाद तमनाओं को क्यों अपनी जकड़ें रखूं?
मन से मचलना चाहता हूँ अपने शरीर में
लेकिन मन को अपने शरीर में लेकर क्यों चलूँ?

लगता है शरीर में बोझ बड़ गया है मेरी अनेकों जिंदगियों का
उसमे बहते अनेको किरदारों का, उनके अंदर बसतें उनके अनेको एहसासों का
कभी जी करता है उन सबको निकाल बाहर कर के अकेले भी जिया जाये
कुछ अलग का एहसास जो मड़ता है अंदर मेरे उसको शरीर में पिरोया जाये

शरीर फिर भी तनहा न हो सका वो न जाने और किन किरदारों में जा बसा
एक ही शरीर के कई टुकरे हो गये..
मेरी ही सूरत के कई चेहरे हो गये
खुद को पहली बार अपने ही शरीर से बाहर महसूस किया मैंने
उस लम्हे को जैसे अनेको बार जिया मैंने

सारे भाव मेरी ख़ुशी को कुछ समय के लिए जैसे मुझसे दूर कहीं सो गये
और हम एक से अनेक हो गये.

लख्मी

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