Wednesday, September 16, 2009

हाउस बॉय

बल्बो की चमकीली रोशनी हॉल की दिवारों और फर्श पर फैली थी। ईटेलियन मार्वल किसी आईने से कम नहीं दिख रहा था। खिड़कियों का लॉक खोला था। बाहर से अचानक हवा का झौंका सारे फर्श की रोनक को मटियामेट कर गया। शानदार लकड़ी के बड़े से टेबल की सारी पॉलिश ही बेअसर हो गई। उसे देखकर कोई भी कह सकता था की इस टेबल पर कई रोज़ से कपड़ा नहीं लगा। मेरे हाथों में हमेशा दो डस्टर रहते थे। एक पीला और दूसरा सफेद। पीला जो काफी मुलायम होता था। सफेद जो खद़ड का होता था। मेरी पैन्ट की जैब में कॉलीन की बोतल लगी रहती थी।
मैं फर्नीचर पर जमी धूल-मिट्टी को पहले सूखे सफेद कपड़े से साफ करता फिर बाद में गीले कपडे पर कॉलीन छिड़क कर दो-चार बार रगड़कर हाथ मारता।

हॉल में कोई फंग्शन था। एक घण्टे का वक़्त मेरे पास था। सूपरवाईजर ने बिना खटखटाये दरवाजा खोला और चारों तरफ गिद्द की तरह देखने लगा। मेरे हाथ जहाँ थे वहीं रूक गये। कमर के पीछे मैं दोनों हाथकर के खड़ा हो गया। सूपरवाईजर को देखा, मैंने सोचा की ये जरूर कोई कमी निकालेगा या सारा काम फटाफट करने के लिये कह कर चला जायेगा और क्या वो मुझे शबासी देने थोड़े ही आया था। मेरी तरफ आकर उसने पहले फर्श पर उंगलियाँ लगाकर देखा फिर वो टेबल को देखकर बोला, "क्या कर रहे हो आधे घण्टे से एक कमरा साफ नहीं हुआ। ये क्या है? ये टेबल ऐसे साफ होता है?”
"सर! सब साफ था अभी। अचानक से खिड़की खुली और बाहर से हवा अन्दर आई, सारे में मिट्टी हो गई।"

सूपरवाईजर, "देखो बहाने मत बनाओ। खिडकी खुली थी तो किसकी गलती है मेरी तो नहीं।"

वो डायलॉग बोलता गया। मैंने सहमती जताते हुए कहा, "सर ठीक है मैं दोबारा साफ कर देता हूँ।"
उसने कहा, "चारो तरफ देखकर साफ किया करो। कहीं कोई निशान न रह जाये। गेस्ट नराज हो जाते हैं। ये लोग जरा सी भी भूल बर्दास नहीं कर पाते। समझे क्या?”

"जी हाँ।"
"तो चलो शुरू हो जाओ।"
"ओके सर!”
मैं टेबल पर दोबारा डस्टिंग करने लगा। कमरे में जल रहे बल्बो की रोशनी एक तरफ थी और दूसरी तरफ खिड़की के शीशों में से पारदर्शी धूप आसमान से सफ़र करती चली आ रही थी। मेरे पास वक़्त देखने का कोई जुगाड़ नहीं था। बिना अनुमान के मुझे सारी जगह में सफाई करनी थी। कमरे के सारे एसी बन्द थे। अभी यहाँ कोई सेमीनार होने की तैय्यारी हो रही थी। मैं अपने अजीबो-गरीब दिमागी ख़्यालों को सोचते-सोचते काम पर भी ध्यान लगाये था। जो कर रहा था उसके विपरीत मेरे तन-मन में अनेक विचार प्रकट हो रहे थे। टेबल पर से मिट्टी ठीक प्रकार से साफ करने के बाद मैंने हाथ में गीला कपडा लिया और उस पर कोलीन छिड़क कर टेबल को रगड़ने लगा। अपने हाथों को जब काम करते देखता तो ऐसा लगता जैसे कोई मशीन का कोई पाट्स इस टेबल को चमका रहा हो। कभी हल्के हाथ से तो कभी भारी हाथ से टेबल की सतह को चमकाने की कोशिश कर रहा था।
मशीन कोशिश नहीं करती। मैं कोशिश कर रहा था पर खुद को यकायक मशीन मे बदलते देखा था।
पसीना माथे पर बार-बार आता पर टेबल पर पसीना गिरना ठीक नहीं था फिर से निशान बन जाते।फिर जीरो से सब शुरू करना पड़ता।

उस कमरे में कोई और भी था जो शायद मेरे काम को देख रहा था। मेरा वहम! जो बार -बार किसी की मौज़ूदगी को सामने ला रहा था। शायद अब न आ जाये। कितनी बार थका हूँ कितनी बार रूक कर सांस ली है और फिर से चल पड़ा हूँ। खुद ही होठों के बीच कुछ शब्द बुदबुदाने लगता। जल्दी कर कहीं वो आ न जाये। वो आ गया तो उसके सामने फिर से कोई डेमो दिखाना पड़ेगा।

मेरी उपस्थिती से सूपरवाईजर को क्या लेना-देना वो जो चाहता है वो चमक उपस्थित होनी चाहिये।
जो देखना चाहता है जिसके लिये कोई आ रहा है जिस को न्यौता है। सारी चीजें और जगह को उस मेहमान के लिये ही तो तराशा जा रहा था। हॉल के अन्दर तमाम तरह की चीज़ों और वहाँ पर बनी ओक्सीजन जो बन्द कमरे मे भी जीवन बनाये थी। साँस लेने के लिये इतना ही काफी नहीं था। शरीर की माँसपेशियाँ अकड़ गई थी। पानी में कई बार हाथ भिगोने से हथेलियों की खाल किसी दिवार के सिलन जैसी लग रही थी लग रहा था। ज़ुकाम तो था ही डन्डे पानी ने इसे और गाड़ा बना दिया था।

पैरों में रबड़ के लम्बे वाले जूते पहन रखे थे। जो घुटने तक आते थे। उनमे भी पानी भरा पड़ा था। जब मैं चलता तो जूतों में भरा पानी छप-छप से आवाज़ करता लेकिन बाहर नहीं आता। ईटेलियन मार्वल से बने फर्श पर इक बार तो वाईपर घूमा चुका था के फिर से सूपरवाईजर चैक करने के लिये आया।
"कितना हुआ? जल्दी करो वो फिर टेबल पर उंगलियाँ लगाकर सफाई जाँचने लगा।"
उसने कहा, "हाँ, ये तो ठीक है चलो।"
ये कहकर वो फौरन बाहर निकल गया। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। मुझे लगा वो कुछ देर रूक जायेगा पर ऐसा नहीं हुआ। मैं बाहर आया कैक्टर ऐरीया कुछ ही दूरी पर था। मुंसी जी मेरे पास आये और “ क्या चल रहा है बेटे?” वो मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले।

मेरी तरह उन्होंने भी यूनीफोर्म पहनी हुई थी। मैंने हँसकर उनकी बात का जबाब दिया बस मुंसी जी आप का आर्शिवाद है। उम्र करीब चालीस साल के होगें पर उनके चेहरे मे वो ताज़गी अभी ज़िन्दा थी जो युवाओं में होती है। तभी हाथ मे झाडू लिये डेनी साहब भी कोई गीत गुन-गुनाते हुए चले आ रहे थे।
हम हॉल के बाहर कोने में खड़े थे। मुंसी जी ने सलमान को होले से आवाज लगाई, "अरे मियाँ सलमान जरा हमें भी चाय का चखा दो।"
"अभी लो जनाब।" वो अपने लम्बे बालों को भवों से उपरकर के बोला।

कॉफी मशीन का बटन दबाया और एक-एक करके चाय प्लासटिक के कपो में डालने लगा मशीन से आती चाय और कॉफी की महक पूरे ऐरीयो को महका रही थी।

खास बात ये है की जो नाम अभी पुकारे जा रहे थे वो वास्तविक नहीं थे। इन नामों से इन सब शख़्सों को बुलाने का एक स्टाईल बना हुआ था। हमारे पूरे स्टाफ में करी दस शख़्स ऐसे थे जिनके नाम प्यार से रखे गए थे। भला डस्टर हाथ मे लेकर चलने वाला मुंसी कैसे हो सकता है। एक कॉफी पिलाने वाला, "सलमान खान कैसे हो सकता है।"
तज्जूब है वो सब इन्ही नामों को पसन्द करते थे। मगर काम जो ज़िन्दगी मे खास रूप लिये था।उसके लिये भी तो जीना जरूरी था। सारे क्लीन करने वाले प्रोडेक्ट लेकर सूपरवाईजर आ धमका। वहाँ यहाँ सब चाये का मज़ा ले रहे हो। वहाँ मेरी मैनेजर ने लगा रखी है चलो काम पर। ये किस्सा यही ख़त्म नहीं होना था। आगे भी बहुत कुछ बाकी था।

राकेश

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