Wednesday, October 17, 2012

'दस्तक' किताब


सोचा जाये तो एक आम शख़्सियत हमारी ज़िन्दगी में क्या ला सकती है? महज़ ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव या जगह की घनत्तवता, रिश्तों की बेरूखियां या बदलाव की हरकत, फैल होने का डर या समय की तलाश, फैसला लेने की कशमश या भीड़ की हिस्सेदारी, विरासत या जहदोजहद, वसीयत या सफ़र और क्या?

'दस्तक' एक छवि को हमसे परिचित करवाती है जिसका नाम है हसीना खाला। हसीना खाला एक ऐसी शख़्सियत जो आम है, जो अपनी राहें खुद से बना रही है और तय भी कर रही है। वे जो भीड़ में चलती हैं, वे जो भीड़ लिये चलती हैं और भीड़ में खो जाती है। वे जिन्हे अनदेखा भी किया जा सकता है। वे याद तभी रहेगी जब टकरायेगीं। भीड़ में हजारों हसीना खाला बने हम, ना जाने कितनों से रोज टकराते हैं और अनदेखे भी हो जाते हैं। मगर हसीना खाला उन अनदेखें चेहरों की बुनाई का एक अक्स है।
 
किताब किसी रचे गये व कल्पना किये गये शहर की दास्तान नहीं है वे जीते जागते उन अंदरूनी दृश्यों की तरफ इशारें करती हैं जिनके अन्दर से अगर कोई गुज़र जाये तो उसे भुलाया नहीं जा सकता। उन दृश्यों से शहर बनता भी है और धड़कता भी है। 'दस्तक' किताब ऐसा ही शहर लिये है। वे चल रही है तो दौड़ती नहीं, वे रूक रही  है तो ठहरती नहीं, वे सुन रही है तो बोलती नहीं। वे जाग रही है तो सोती नहीं और साथ ही साथ वे उन आवाज़ों से बनी है जो एक दूसरे में दाखिल होकर और कोई गाथा कह रही हैं। वे गाथायें जो किसी की निजी जिन्दगी से ताल्लुक रखती है लेकिन किसी अकेले की नहीं। 

हसीना खाला सिर्फ एक ही शख्स नहीं। किताब को पढ़ते हुए लगा की जैसे हसीना खाला कोई शख्सियत है ही नहीं। वे तो कोई परछाई सी बनी है। हल्की और विशाल परछाई सी। जो जिस पर गिर जाये उसी में ढल जा रही हैं। जैसे वो हर किसी में हो। इसलिये ये पूछना गलत होगा की हसीना खाला कौन है और कहां रहती है? हां, ये कहा जा सकता है की हसीना खाला कोई भी हो सकता है। वो भी घर से निकलने के लिये तैयार हो रहा है, वो भी जो घर लौट रहा है और वो भी जो घर आना ही नहीं चाहता।

जैसे जैसे दिन का बढ़ता जाता है वो अपने दिन और समय दोनों को एक साथ में रचती हैं। इस रचना में वो कभी अकेली व तन्हा नहीं होती। उनके साथ में होती है उनमें बहती वे सभी खुरदरी यादें , हसीन पल, अटपटे रिश्ते, अजनिबयत से भरी राहें और बिखरी व छुटी हुई मुलाकातें जो पहले से संजोई नहीं गई। वे रची जाती है। वो रचती है, अपने अन्दर बहते अनेकों लोगों की परछाइयों के साथ। वे परछाइयां जो एक बार मिली है, वे जो मिलती रही हैं, और वे जो कभी मिली ही नहीं सिर्फ सुनी गई हैं। हसीना खाला उन सभी अनेकों छोटे-छोटे दृश्य और अनदेखी परछाइयों को अपने साथ में लिये चलती हैं। जैसे वे सभी इनकी धडकन हो। वो लौट रही है तो अकेली नहीं। वो कहीं बैठी हैं, खड़ी हैं जैसे किसी भीड़ के साथ हैं। और अपने लिये जीने के साधन किन्ही अक्शों की तरह चुनती व बुन रही हैं।

'दस्तक' किताब में अगर हसीना खाला शहर में है तो शहर उनमें है। हसीना खाला अगर घर में हैं तो घर भी उनमें है का अहसास लिये हैं। वे हर बदलाव, जमीनी बुनाईयां व तोहफो में बंटती रवायतें व बनने और छूट जाने के हर पहलू को जानती व समझती है। उन्हे पता है कि शहर कहां की तैयारी में है। वे जानती है कि कहां पर आकर वे रूकता है। कहां पर टूटता है और कहां पर छूट भी जा रहा है। वे भागते शहर के पीछे नहीं बल्कि वे उन्हे चुन रही है जिनमें हजारों के होने का चिंह बसे हैं। किसी 'आफटर लाइफ'  की तरह जैसे उन्होनें खुद को रच दिया है। वे जिन्दगी जो किसी इवेंट के बाद से बनी है, बाद के लिये बनी है और बाद में बनी है। कभी कभी लगा की यशोदा सिंह उन अहसासों के बीच में खामोश हैं शायद तभी ये संभावनाएं नज़र आती हैं। 'दस्तक' मुलाकातों से बनी है। बिना किसी इंटरव्यू के। क्या इस किताब की कल्पना हसीना खाला जी के साथ लम्बी बातचीत से भी रची जा सकती थी? शायद नहीं, यशोदा सिंह का उनके साथ में रहना और बिना हसीना खाला जी के इंटरव्यू के इस किताब को बुन देना अपने आप में एक चैलेंज के समान है। बिना किसी फलसफे के, अपने लिखने वाले होने के प्रमाण देने के और ना ही किन्ही बड़े व उलझे शब्दों के इस्तमाल करने से। जिस जमीन से हसीना खाला जी अपने चुनाव और अंश बुन रही है 'दस्तक' की ज़ुबान भी वही है।

कहां जाये तो किसी के साथ किसी रिश्ते की बुनाई करने में घंटो सुनने की तैयारी में होना जरूरी नहीं। सिर्फ दो मिनट ही बहुत हैं। हसीना खाला उन दो मिनट को जी रही हैं। बिना कुछ अपना सुनाये, बिना किसी खास परिचय के। अच्छा हुआ यशोदा सिंह ने हसीना खाला जी को कोई कहंकार की तरह नहीं सोचा, नहीं तो हसीना खाला जी ही हर जगह जाकर अपनी ही गुजरी दास्तान सुना रही होती। यहां पर तो हसीना खाला उसी सादगी से जी रही है जिसे समान्य कहकर अमान्य करार कर दिया जाता है।

रवीश कुमार जी ने समाज कार्य विभाग के एक सेमिनार में कहा था, “हमने देखना छोड़ दिया है।"

हां, हमने सचमुच में देखना बंद कर दिया है। हम सोच रहे हैं कि हम देख रहे हैं। लेकिन हम वही देख रहे हैं जिनसे हमें टकरा जाने का और भिड़ जाने का डर है। असल में हम अपना बचाव कर रहे हैं तभी कुछ नहीं देख पा रहे। यशोदा सिंह की किताब ये नहीं कहती कि मुझे पढ़ो, वे कहती है मेरे साथ देखो। 'दस्तक' किताब का जब कोई एक लेख पढ़ते हैं तो साथ ही साथ शहर को भी चलते हुए महसूस कर पाते हैं। आसपास और दास्तान साथ में जैसे गुथी हुई चल रही हैं।

अभी बहुत कुछ है कहने और लिखने को। मगर अभी के दौर में यशोदा सिंह को बधाई देते हुए इसे रोक रहा हूँ। आगे जरूर बात करेगें। जरूर पढ़े।

दस्तक : यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन, 4695,21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
मूल्य: 175 रूपये



लख्मी

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