Monday, October 15, 2012

अधपका सबके बीच

मैं पूर्ण नहीं हूँ, अपूर्ण भी नहीं हूँ, आधा - अधूरा, अधपका सबके बीच हूँ। मेरा रूप कितना विशाल, घना और तरलता में है, ये सफ़र अनिश्चित्त है। समय सदेव उसके साथ बहस में रहता है।

हम इसी समय को रचने के मौके में खुद को उतारते हैं। कब आप बोडी को मौजूद करोगें और कब आप बोडी को छोड़कर ख्यालों मे आसमान को मापोगे? समय इन दोनों रूपो को एक साथ एकत्रित करता है। इस निरंतर व्यवस्थित होने से निकाल के अपने लिए एक अनिश्चितता को तैयार करना, अपने आसपास इसके लिए जगह खुद बनाना। अपने को रचने के लिए बेपरवाह समय को रचना है। रास्ते में जो मिलेगा, उसे भी अपने साथ बहा लेना है।

मेरा शरीर मुझसे अपेक्षा नहीं रखता की मैं उसकी निगरानी करता रहूँ या उसकी निगरानी में रहूँ। उसकी नंगन्ता से मेरे साथ रिश्ता ड़र से ना शुरू हो। मैं जितना पोशाक से बाहर अपने आप को देखने का उनमाद रखता हूँ उतना ही बे-पोशाक होकर भी। ये अस्त्तिव मेरे शरीर को सिर्फ नाम देता है, पहचान देता है पर उसकी बे-परहावा छलांगे मेरे लिये रिक्स भी है। वो रिक्स जो मैने अपने से चुना है जिसमें ध्वस्थ होने का ख़तरा और अवारा होने की गुज़ाइश है पर अपूर्ण मे ही रहना है जिसमे मैं जीता हूँ। वही मेरी रचना और मेरे समय की अनिचता है मेरी टकरार मेरे सध्यात के बनाए ढ़ाचे से है। 

शरीर मुझे कहाँ फैंकता है, समय के दायरों का उल्घन करने की कोशिश करूँ तो कहाँ पहुँचता हूँ किसको रचने मे निकलता हूँ।
अनफिनिश हूँ और अपने आपको अनफिनिश रखने की कोशिश मे हूँ। इस अहसास से निरंतर अपने आपको रिवेंट करने में हूँ। मेरा समय अनिश्चिता मे है। ये कहीं पर टिकने या टिक जाने की बहस मे नही है। वो इस कि एक भाषा ढूंढ रहा है अपने आपको अपूरता मे चुनना वो थकान है जो मुझे तलाशती है, मैं जिसे तलाशता हूँ। मेरे पैर कहीं ले जायेगे और मेरा मूवमेंट उसको छोड़ देगा, मैं उस फलसखे से टकराता है। जो कहता है कि अस्थिर हो जाना समय का अस्थिर होना नहीं है। ये समय, मेरे अपनाये समय से बहस मे है। जो मुझमे फिट नहीं होता मगर मैं इस अनफिट से जीने की लरक मे चला जाता हूँ।

फिट ना होना, उसको लुफ्ट मे रखना नहीं है बल्कि वही जीवन को बना कर रखना है।

लख्मी

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