कहते हैं रात दिनभर की सारी आवाज़ों को अपनी खामोशी में छुपा लेती है। पर क्या सच में रात खामोश होती है? तकरीबन रात के पोने एक का टाइम है। मैं अभी अभी अपने काम पर से घर में दाखिल हुआ हूँ। पूरा कमरा गर्म भाप से भरा हुआ। दरवाजा खोलते ही लगा जैसे दिनभर की खामोशी अब टूट जायेगी। एक पल में लगा की यहां, बंद दरवाजें के पीछे कई आवाज़ों की गूंज पहले से ही शामिल है। सब कुछ बोल रहा है। दिवारें, दिवार पर लटकी घड़ियां, घड़ियों में लंगड़ाकर चलती सुइयां, तस्वीरें, उनमें छुपी यादें, कमरें की कुर्सियां, उनकी गद्दियां, पलंग और उसपर रखे तकिये। सभी कुछ मुझसे बातें करने की कोशिश में है। कुछ भी शांत नहीं है। दरवाजें आपस में अड़ंगी देकर एक दूसरे को अपने से अलग कर रहे हैं और कमरे के भीतर खेलती हवा सबको छेड़ रही है और हवा की अपनी कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मगर वो जिसको भी छू लेती वहीं बोल पड़ने की फिराक में है और छिंगूरों की गूंज किसी को पुकार रही है और तेज हो रही है और शोर मचा रही है और तेज और तेज बस, जैसे उसमे अपने कंठ को पूरी तरह से विशाल कर लिया है। लगता है जैसे वो मेरे आने से पूरी तरह से नराज़ है। मुझे डरा रही है। जैसे कोई भूतिया फिल्म का बैचेन भूत मुझे मेरे ही घर से निकाल रहा हो।
आधे कमरे में उजाला है और आधे में नहीं है। कान बहुत कुछ सुनना चाह रहे हैं। कोई ऐसी आवाज़ जिसे वो पहचानते हो। सुन चुके हो। समझ सकते हैं। कमरे की सारी चीजें अपनी ही चीख पुकार में लगी है। कमरे का पंखा "करर...करर..करर" कर रहा है जैसे कोई घर का बुर्जुग अपनी बिमारी में कर्राह रहा हो। तो घड़ी की सुइयां टिक..टिक...टिक..टिक..टिक... उन आवाज़ को छुपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन फिर भी वो पंखे की कर्राहने की आवाज़ को ज्यादा अपना रहे हैं ये थके हुए कान।
रात की सारी बाहरी आवाज़ें बदल चुकी है। वे सभी अपनी ही आवाज़ों ( वॉलयम ) की ताल को सुर में लाने की कोशिश कर रही है। और अंदर की आवाज़ों को बदमाशी करने का मौका मिल गया है। अअअ भट, भट, भट, अअअ भट.भट.भट करती खिड़की कमरे में कोई संगीत तो बजाती है मगर बाहर के मौसम को अंदर आने का भी न्यौता दे डालती है। कभी कभी महसूस होती ठंडी हवा कानों को थकावट को थोड़ी सी ताजगी देती मगर फिर उसी जगह पर लाकर छोड़ जाती।
कानों ने आज से पहले यह सभी आवाज़ें कभी नहीं सुनी थी। शायद इन आवाज़ों को सुनने के लिये कानों के स्थिर होने का इंतजार करना होता है। मेज पर रखी किताब के पन्ने फड़..फड़...फड़ कर रहे हैं जैसे वहीं पर वापस आने के लिये लड़ रहे हो जहां पर पिताजी ने इन्हे आज शाम में छोड़ा होगा। साथ में रखे लेम्प में लटके छोटे छोटे घूंघरू छनछन.....छन....छन... कर उनकी लड़ाई को देखकर नाच रहे हैं। गर्दन हर किसी छोटी से छोटी आवाज पर ही यहां से वहां घूम जा रही है। डर लग रहा है। घबराहट हो रही है। आवाज़ों में कोई डरावनी बात नहीं है। लेकिन फिर भी कान को बंद करके मैं कुछ देर के लिये बैठ गया। बहुत जोरों से मैंने कानों को अपने दोनों हाथों की हथेलियों से भींच लिया। हवा तक को आने का रास्ता जैसे बंद कर लिया। कुछ देर के लिये सभी आवाज़ें बंद हो गई। मैंने आहिस्ता आहिस्ता अपने कानों को खोलना शुरू किया जिस तरह से किसी की आंखो के ओपरेशन के बाद में उसे देखने को कहा जाता है। फिर से वही आवाज़ें आनी शुरू हुई। अब की बात बर्तनों के खिसकने की आवाज़ बेहद जोरों से आई। मैं झट से वहां पर उठकर गया। देखा तो दो चार छोटी चूहिया वहां से भाग रही है। टिरर.....टिरर.....टिरर की आवाज़ ने मेरे कानों को अपनी ओर खींचा।
कान जरूरत से ज्यादा जैसे सुनने की कोशिश कर रहे हो। आवाज़ों को सुनकर उन्हे समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आंखे रोशनी से डर रही है तो कान खामोशी से। किसको क्या चाहिये इसका कुछ भी अहसास नहीं हो रहा है। कूलर अपने पूरे जोश में चल रहा है। उसके पीछे यह महसूस होता कि जैसे कई सारी औरतें जोरो से लड़ रही है। बार – बार मैं कूलर को बंद करता और उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश करता। मगर लगता था कि शायद मेरे कानों को अभी दिन और रात के बारे में ज्ञात नहीं हो पाया है।
कुछ ही क्षण के बाद, चीखने की आवाज़ कमरे के भीतर गूंजी। लगा जैसे कोई व्यथा में किसी को पुकार रहा है। एक पैनी सुई सी वो बीच बीच में उठती और फिर अचानक ही खमोशी में बदल जाती। लगता नहीं था कि वो आवाज़ कहीं बाहर से आ रही है। मैं यहां से वहां उस आवाज़ की गर्मी को पहचानने की कोशिश करता। कभी दरवाजे पर जाता, कभी छत पर तो कभी बालकनी में। हर जगह से उस आवाज़ को सुनने की कोशिश करता। मगर वो कभी दायं तो कभी बायं नाचती। कुछ देर के बाद में कमरे में वापस चला आया।
बीच कमरे में खमोश खड़ा रहा और अपनी पूरी कोशिश से उस आवाज़ के कमरे में दाखिल होने का इंतजार करता रहा। वो आती - सुई सी पतली "इइइइइइ-आई" कभी लगता की कोई औरत दर्द में चिल्ला रही है तो कभी लगता वही औरत मुझे डरा रही है तो कभी लगता कि कोई जानवर व्यथा में है। वे आवाज़ यहां से वहां कमरे में घूमती। मैंने अपना बिस्तर खोला और तकियों के भीतर अपने कानों को दबोज लिया। आवाज़ का पतलापन तो खत्म हो गया लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ। मैं उसी अवस्था में पड़ा रहा। काफी देर बीत जाने के बाद में मैं उस बिस्तर से बाहर निकला और महसूस किया कि वे आवाज़ कहीं नहीं है मगर फिर भी मेरे कान उसको सुन पा रहे हैं। पूरी गली शांत सो रही है। जानवर भी गली में टहल रहे हैं। मगर मेरे कानों में वही गूंज घूम रही है।
लगता था कि जैसे उस आवाज़ ने मेरे कानों में घर कर लिया है।
लख्मी
आधे कमरे में उजाला है और आधे में नहीं है। कान बहुत कुछ सुनना चाह रहे हैं। कोई ऐसी आवाज़ जिसे वो पहचानते हो। सुन चुके हो। समझ सकते हैं। कमरे की सारी चीजें अपनी ही चीख पुकार में लगी है। कमरे का पंखा "करर...करर..करर" कर रहा है जैसे कोई घर का बुर्जुग अपनी बिमारी में कर्राह रहा हो। तो घड़ी की सुइयां टिक..टिक...टिक..टिक..टिक... उन आवाज़ को छुपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन फिर भी वो पंखे की कर्राहने की आवाज़ को ज्यादा अपना रहे हैं ये थके हुए कान।
रात की सारी बाहरी आवाज़ें बदल चुकी है। वे सभी अपनी ही आवाज़ों ( वॉलयम ) की ताल को सुर में लाने की कोशिश कर रही है। और अंदर की आवाज़ों को बदमाशी करने का मौका मिल गया है। अअअ भट, भट, भट, अअअ भट.भट.भट करती खिड़की कमरे में कोई संगीत तो बजाती है मगर बाहर के मौसम को अंदर आने का भी न्यौता दे डालती है। कभी कभी महसूस होती ठंडी हवा कानों को थकावट को थोड़ी सी ताजगी देती मगर फिर उसी जगह पर लाकर छोड़ जाती।
कानों ने आज से पहले यह सभी आवाज़ें कभी नहीं सुनी थी। शायद इन आवाज़ों को सुनने के लिये कानों के स्थिर होने का इंतजार करना होता है। मेज पर रखी किताब के पन्ने फड़..फड़...फड़ कर रहे हैं जैसे वहीं पर वापस आने के लिये लड़ रहे हो जहां पर पिताजी ने इन्हे आज शाम में छोड़ा होगा। साथ में रखे लेम्प में लटके छोटे छोटे घूंघरू छनछन.....छन....छन... कर उनकी लड़ाई को देखकर नाच रहे हैं। गर्दन हर किसी छोटी से छोटी आवाज पर ही यहां से वहां घूम जा रही है। डर लग रहा है। घबराहट हो रही है। आवाज़ों में कोई डरावनी बात नहीं है। लेकिन फिर भी कान को बंद करके मैं कुछ देर के लिये बैठ गया। बहुत जोरों से मैंने कानों को अपने दोनों हाथों की हथेलियों से भींच लिया। हवा तक को आने का रास्ता जैसे बंद कर लिया। कुछ देर के लिये सभी आवाज़ें बंद हो गई। मैंने आहिस्ता आहिस्ता अपने कानों को खोलना शुरू किया जिस तरह से किसी की आंखो के ओपरेशन के बाद में उसे देखने को कहा जाता है। फिर से वही आवाज़ें आनी शुरू हुई। अब की बात बर्तनों के खिसकने की आवाज़ बेहद जोरों से आई। मैं झट से वहां पर उठकर गया। देखा तो दो चार छोटी चूहिया वहां से भाग रही है। टिरर.....टिरर.....टिरर की आवाज़ ने मेरे कानों को अपनी ओर खींचा।
कान जरूरत से ज्यादा जैसे सुनने की कोशिश कर रहे हो। आवाज़ों को सुनकर उन्हे समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आंखे रोशनी से डर रही है तो कान खामोशी से। किसको क्या चाहिये इसका कुछ भी अहसास नहीं हो रहा है। कूलर अपने पूरे जोश में चल रहा है। उसके पीछे यह महसूस होता कि जैसे कई सारी औरतें जोरो से लड़ रही है। बार – बार मैं कूलर को बंद करता और उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश करता। मगर लगता था कि शायद मेरे कानों को अभी दिन और रात के बारे में ज्ञात नहीं हो पाया है।
कुछ ही क्षण के बाद, चीखने की आवाज़ कमरे के भीतर गूंजी। लगा जैसे कोई व्यथा में किसी को पुकार रहा है। एक पैनी सुई सी वो बीच बीच में उठती और फिर अचानक ही खमोशी में बदल जाती। लगता नहीं था कि वो आवाज़ कहीं बाहर से आ रही है। मैं यहां से वहां उस आवाज़ की गर्मी को पहचानने की कोशिश करता। कभी दरवाजे पर जाता, कभी छत पर तो कभी बालकनी में। हर जगह से उस आवाज़ को सुनने की कोशिश करता। मगर वो कभी दायं तो कभी बायं नाचती। कुछ देर के बाद में कमरे में वापस चला आया।
बीच कमरे में खमोश खड़ा रहा और अपनी पूरी कोशिश से उस आवाज़ के कमरे में दाखिल होने का इंतजार करता रहा। वो आती - सुई सी पतली "इइइइइइ-आई" कभी लगता की कोई औरत दर्द में चिल्ला रही है तो कभी लगता वही औरत मुझे डरा रही है तो कभी लगता कि कोई जानवर व्यथा में है। वे आवाज़ यहां से वहां कमरे में घूमती। मैंने अपना बिस्तर खोला और तकियों के भीतर अपने कानों को दबोज लिया। आवाज़ का पतलापन तो खत्म हो गया लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ। मैं उसी अवस्था में पड़ा रहा। काफी देर बीत जाने के बाद में मैं उस बिस्तर से बाहर निकला और महसूस किया कि वे आवाज़ कहीं नहीं है मगर फिर भी मेरे कान उसको सुन पा रहे हैं। पूरी गली शांत सो रही है। जानवर भी गली में टहल रहे हैं। मगर मेरे कानों में वही गूंज घूम रही है।
लगता था कि जैसे उस आवाज़ ने मेरे कानों में घर कर लिया है।
लख्मी
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