कुछ देर कान बंद करके सुना, ऐसा लगा जैसे हर चीज़ आपको दबाने के लिए ज़ोर पकड़ रही हो। आँखों के सामने चलने वाली हर चीज़ कई टनों का भार लिए हिल रही हो। हर कपकपाहट में गज़ब की तेजी हो। कुछ पल के लिए अगर ठहर जाये तो कोई बड़ा और घातक कदम उठाने का मौका तलाश रही हो जैसे।
हर मूवमेंट में कोई तलाश उत्पन्न होने लग जाती है और हर एक मूवमेंट में समय की कोई न कोई गहरी परत चड़ी होती है।
कोई पैनी सी आवाज़ अगर बंद कानों में चली थी आती तो उसके वज़न का अहसास होने लगता। वे अपने भाव के साथ बह जाने को कहती। न जाने आवाज़ भाव लिए होती है या खाली वे बस, आवाज़ ही होती है। बाकि सब तो हमारे कर्म हैं कि हम उसे क्या नाम देते हैं।
कानों को बंद करने के बाद में दिमाग और सराऊंड हो जाता है। खुद में आवाज़ का गोला बनाता है और उसे अपने भंवर में सफ़र करवाता है। कहीं किसी कोने में ठहरी कोई आवाज़ उस वक़्त शौर मचाने लगती है।
ये एक बंद कमरा है। बंद कमरे में बंद कान करने बैठना किसी बेरूखी की लड़ाई लड़ने से कम नहीं होता। जहाँ हर छोटी से छोटी आवाज़ किसी खतरनाक लड़ाकू विमान की भांति दिमाग से टकराने के लिए तैयार रहती है और वहाँ पर जमीं सारी परतों को ख़त्म करने के लिए ज़ोर ले रही होती है।
लख्मी
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