Wednesday, December 30, 2009

एक कहानी - दो हँसों का जोड़ा

दो हँसो का जोड़ा एक बहुत ही गुम गाँव में रहता था। ये गाँव कई बड़े - बड़े गाँवो में जाने - आने के बीच के रास्ते में था। इसलिए लोग इसे जानते तो थे लेकिन कोई यहाँ रूकता नहीं था। हाँ, जब कभी किसी के घर पहुँचने के रास्ते में बारिश पड़ जाती या कोई रूकावट हो जाती तो लोग यहाँ पर किसी के आँगन में कुछ समय के लिए रूक जरूर जाते। मगर इसको जानने किसी के लिए जरूरी नहीं था।

गाँव के एकदम छोर पर एक घर था पूरा छप्पर का बना हुआ। वहाँ पर ये हँसों का जोड़ा रहता था। इनकी एक बेटी थी। ये दोनों बेहद बुर्ज़ुग थे। उसकी देखभाल ठीक तरह से नहीं कर सकते थे। मगर फिर भी वो उसी में अपना सारा दिन बिता देते। उसी के प्यार में दिन बितते गए और लड़की बड़ी हो चली। उनका काम इतना भी सही नहीं था की वे उसकी शादी के लिए धन-दहेज़ जुटा पाये। मगर गाँव के लोगों ने मिलकर उनकी लड़की की शादी करदी।

बिना लड़की के उनका दिन कटना बेहद मुश्किल हो चला था। उनक दोनों के पास में कुछ करने को नहीं था। जब दोपहर होती तो उनको लगता की वो अब क्या करें?

एक दिन उस बुर्ज़ुग औरत ने घर के बाहर एक चूल्हा लगाया और रोटियाँ सेकने लगी। उनका आँगन तो आने-जाने का रास्ता था ही तो जो भी वहाँ से गुज़रता वो उनको रोककर रोटी खिलाती। बदले में उनसे कुछ नहीं लेती। जो भी वहाँ पर उनके हाथ की रोटी खाता वो यही सोचता की ये औरत कुछ लेती क्यों नहीं है? सभी यही सोचते। देखते - देखते उनके यहाँ बहुत लोग आने लगे। बहुत देर बातें करते और रोटियाँ खाते। चले जाते - उनका दिन भी यूहीं कट जाता। बस, जो भी वहाँ से रोटी खाकर गुज़रता वो यही कहता, “अम्मा कभी हमारे गाँव से गुज़रों तो हमारे घर जरूर आना।"

एक दिन पिता का मन किया बेटी से मिलने का। लेकिन उनके घर खाली हाथ तो नहीं जा सकते थे। मगर कोई न कोई बहाना बनाकर जाने की सोच ही ली। उन बुर्ज़ुग औरत ने उनके लिए रोटी बनाई और पोटली में कुछ दालें, राज़मा और चने रख दिये। उन्होनें अपनी बुग्गी तैयार की और चल दिये। बस, उस अम्मा ने कहा था कि उस गाँव से निकलोगे तो वहाँ पर होते हुए जाना नहीं तो उन्हे बुरा लगेगा।

वो जिस किसी भी गाँव से निकलते तो किसी न किसी के घर जरूर जाते। वहाँ जाकर कहते, “मैं रोटी बनाने वाली अम्मा का पति हूँ। उन्होनें कहा था आपसे मिलकर जाऊँ।"

हर कोई उन्हे कुछ देर रुकने को कहता और उनकी बुग्गी में कुछ कुछ रख देता उन्हे बिना बताये। ऐसे ही वो कितनों के घर जाते और हर कोई ऐसे ही करता।

वो जब अपनी बेटी के यहाँ पहुँचे तो उन्हे बड़े प्यार से कहा, “बेटी से मिलने का मन था। जो बन पड़ा वो ले आये। बस, बेटी से दो - चार पल बात करले। खैर-ख़बर लेकर चले जायेगें। लेकिन जब उनकी बुग्गी को देखा तो वो समानों से भरी लदी पड़ी थी। सभी हैरान थे लेकिन उनको कुछ नहीं पता था।

यहाँ पर रूके हुए थे और वहाँ अम्मा और न जाने कितने राहगिरों को रोटियाँ खिला रही थी।
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ये कहानी यहीं पर ख़त्म हो जाती है लेकिन कहानी कुछ छोड़ जाती है। जब मैं ये कहानी सुन रहा था तो दिमाग में खुद को लेकर कई बातें घूम रही थी। मैं क्यों शहर में घूम रहे लोगों को अजनबी कहता हूँ?, ये अजनबी शब्द कहाँ से पैदा होता है? और क्यों होता है?
लोग एक – दूसरे में मिलते क्यों हैं?
लोग मिलने के बाद देकर क्या जाते हैं?
क्या मिलने के बाद मे कुछ देकर जाना जरूरी होता है?

ये रोटियाँ बनाना और रिश्ते का तार तैयार करना कितना आसान लगता है। जीवन के सही - गलत और जाना-पहचाना - अजनबी जैसे शब्दों को भूलकर तैरने का अहसास जगाता है। ये कोई प्रयोग नहीं था और ना ही कोई मूवमेंट। ये शहर के उस अन्जानी परत मे खुद के किसी खास तार को छोड़ देने की कसक थी। जिसे कोई भी कहीं भी कर सकता है।

लख्मी

2 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

ek sidhi sadi kahani magar vichar aapke laazwaab..sundar baton ka prwah is kahani ke madhyam se..badhai...navvarsh mangalmay ho!!!

Udan Tashtari said...

बहुत प्रेरक प्रसंग और उम्दा संदेश!!


मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.


नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.