Monday, June 22, 2015

कहीं दूर से


अभी सुबह के सवा चार बजे थे। ललीत गहरी नींद से जागा और दोनों हाथो को मरोड़कर उठा। उसे गाड़ी गैराज में भेजनी थी। कल रत उसकी मशीन ने रास्ते में धोखा दे दिया था। 

उसने मेरे चेहरे को देख कर कहा, "क्या रात भर सोया नही?" 

ये सुन कर मेरी आँखें इस कोशिश में लग गयी की एक झपकी मिल जाए। खैर, ललित ने जेब से मोबाइल निकला और हैलो हैलो। मुझे पहचाना? 

गॉव के सुबह सवा चार, किसी रात से कम नही होते यहाँ साँस लेना जितना सरल होता है उतना ही सरल छोड़ना भी होता है। 

"बहुत अच्छा" आवाज आई। 
"चेहरा जरूर याद होगा?" 
"बहुत अच्छा तभी सारी बातें होंगी।" 
"तुम बड़े भाई हो, बस यूं ही थोड़ी जरुरत है।"

कितनी संवेदना थी उसकी बातों में। काम के बाद वो अपने आसपास गर्दन घुमाकर देखता फिर बीच में कोशिश करता की अँधेरे में बहुत दूर देखा जा सके। पंछियों के कंठ से निकलती आवाजें बेहद प्रिय लग रही थी। अब सिर्फ एक बात खाये जा रही थी की घर कैसे पंहुचा जाये? हम लोग वहाँ ठहरने के मूड़ में नही थे। शहर दूर था मगर दिशाएँ दिखाई दे रही थी। मालूम पड़ रहा था की चाय की दुकान पास में है। इसके अलावा अलमारी, दरवाजा मिटटी की चौड़ी दीवारें काफी बड़ी है। 

हम कुछ देर के लिए जैसे रास्ते में ही खो जाने वाले थे। 


राकेश 

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