Friday, February 8, 2013

कुछ अनसुने किस्से


अगर ये पता हो जाये की हमें करना क्या है तो दिमाग चलना बंद हो जाता है और फिर शरीर किसी मशीन की तरह चलता है उस काम को करने के लिये। काम उस मशीन को पूजा मानता है।

अखबार की कई कटिंग ना जाने कितने सालों से उपर वाले कमरे की दिवारों मे किन्ही पतले सरियों में फसी पड़ी हैं। दीवारें कई मेग्जिन की कटिंगो से सजी है और अलमारियां उन कहानियों की किताबों से जिसमें अपने उन दिनों को गुजार देने की बातें शामिल हैं जब सिर्फ कटिंग करना ही अपना एक मात्र काम था। सुबह अखबार और मेग्जिन डाला करते और शाम मे उसी मे अपने लिये भी मेग्जिन और अखबार ले आते और फिर शाम में शुरू होता अपने कमरे को अपने लिये तैयार करना। हर कलेक्शन बनाने की इच्छा शक़्ति जैसे अपने जोरों पर थी। कहानियों की दीवार, डायलॉग की अलमारियां, तस्वीरों की छतें और पर्चियां नौकरियों की और एक बड़ा सा मेप जिसमें कहां कहा गये नौकरी के लिये उसका हिसाब समित एक अपना भी मेप बना था।

मेरे कई दोस्त उसमें मेरा साथ देते। हर कोई उसमें कितना पैसा कहां लगा, कहां गये और कहां पर नहीं जा पाये सब नोट होता। कभी कोई नौकरी नहीं। इस बात का कतई गम नहीं। लेकिन वो साथी कहीं किसी नौकरी मे खो गये। तब जाकर अहसास हुआ की काम की दुनिया कुछ चुराती नहीं उसे गायब हो जाने पर मजबूर करती है।

अपना तो एक अखबार का ठिया है और मेग्जिन का भी। 18 साल से वहीं कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ वही फिर से अपनी बचकानी हरकत को चालू करूं। क्या पता कुछ उनके जैसे नये दोस्त मिल जाये।

लख्मी

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