Monday, May 18, 2009

बातों के सहारे...

दिल्ली शहर के रग़ में बसी कई ऐसी जगहें हैं जो कहीं छुपी हुई हैं। उसी में जीते हैं कई ऐसे जीवन को खुद को बुलंद और कुछ न कुछ तलाशने में रखकर जीते हैं। उन्ही से मुलाकातों का सिलसिला खुद को शहर के बीचो-बीच छोड़ देता है और कहता है जाओ खोजों खुद को। उन्ही तलाश में एक जगह ये भी...


बस, कुछ ही समय का काम है यहाँ पर बाकि के वक़्त तो सिर्फ बातें होती हैं।

बातें यहाँ सौगात की तरह बाँटी जाती हैं। बातें जिनका मौड़ क्या है वे समझना बेमतलब का होगा। बातें उसी अहसास से गुज़रती है जिसमे हल्के-फुल्के पलों का बोल-बाला रहता है। बातें क्यों हो रही हैं?, क्या हो रही हैं? और कौन किस को खोजकर बातें कर रहा है वे तय नहीं है।

मगर फिर भी बातों की पतंग यहाँ सभी के अरमानों के बादलों मे बड़े प्यार से उड़ती है, लहरती है और कभी यहाँ तो कभी वहाँ पर ठुमकती भी है।

पहली ही नज़र मे ये एक बड़ी और गहरी जगह के रूप मे खुल जाती है, मानों जैसे हर गली एक अलग ही देश की हो जाती है। जहाँ कोई गोदाम में पड़े कागज़ों और गत्तों के ढेर पर अटका किसी को कुछ सुनाता दिखेगा तो कोई पुरानी कब्रों पर बैठा पूरे इलाके मे नज़र दौड़ाता हुआ लोगों के बारे मे कहता रहेगा। कोई ढेर मे से पन्नियाँ चुनता हुआ कोई अपना ही गीत गाता फिरता है। अपनी बोती भर जाने के बाद साथी की बोरी मे अपना हाथ घुसाता रहेगा। कोई चावलों मे परछा मारती हुई किसी के घर की बातों मे कोई हुई सी देखेगी।

नज़र जैसे ही उठती है तो छोटे-छोटे गुटों मे ये हल्की-फुल्की बातें एक-दूसरे के अंदर दौड़ती नज़र आती हैं।

इस जगह को यही सवारते हैं, सकेरते हैं और भरते भी हैं। सकेरा हुआ जर्दा भी यहाँ पर बेहद अनमोल है। छटाई, चुनना और इकठ्ठा करना जैसे शब्द यहाँ की रोज़मर्रा में उतर चुके हैं।

अभी कुछ ठप है, मगर इसका अहसास करना आसान नहीं है। इस तस्करी से भरपूर इलाके के आसरे कई कमाउ लोग जुड़े हैं जिनके यहाँ पर हर वक़्त रहने से ये कभी ठप नहीं लगती।

यहाँ पर होती बातों मे ये जगह हमेशा कमाऊ और माल से लदी दिखती है। लोग इंतजार करते हैं यहाँ पर कट्टो के चिट्ठे लगने का। गोदाम के भर जाने से दिहाड़ी की गुंजाइसें खुलने लगती है। जिसका इंतजार केवल यहाँ के लोग ही नहीं बल्कि वे लोग भी करते हैं जो ट्रक, टेम्पो के साथ मे रहते हैं। महिने मे चार बार ये मौका बड़ी बेसब्री से आता है, जिसमे दिहाडी कमाने वाला दौड़ लगाता है। ये दौड़ दस मे से आठ को तो जीतनी होती ही है तो दौड़ हमेशा लगती है।

किसी बड़ी खुशी के इतजार मे लोग छोटे-छोटे खुशी के अवसर नहीं छोड़ते। टेम्पो मे समान लादना हो या टेम्पो वाले के साथ हेल्परी करवानी हो, ये काम जोरो पर होता है।

इस काम की माँग शुरू होने वाली है। गोदाम भरा और लदा खड़ा है। बोरियों के चिट्ठो ने पीछे के गोदामों को ढक दिया है। गली में कोई कागज़ खुला हुआ नहीं दिखता। न ही कोई बोरी खाली पड़ी दिख रही है। सब कुछ कसकर बाँधा गया है। गोदाम की जमीन सूखी और साफ पड़ी है। सात-सात फिट के कट्टे काफि वज़नदार रूप लिए हुए है।

तैयारी जोरो पर हैं...

"हम तो भइये महीने टू महीने कमाते हैं यहाँ। कभी समान लदवाने का तो कभी कुछ बिनने का। उसी से शाम के खाने का और पीने का जुगाड़ हो जाता है। मस्त लाइफ कटती है हमारी। दिन में दो-चार को हराकर कुछ निकाल लेते हैं, और कभी हार जाते हैं तो थोड़ा पिट भी लेते हैं। लेकिन लाइफ मज़े मे गुज़रती है। कसर नहीं छोड़ते किसी भी चीज़ मे और कोई काम भी अधूरा भी नहीं रहने देते।"

"हम तो यहाँ की सफाई करते हैं, उसी में हैड टू हैड पैसा मिल जाता है। ये पैसा हमें कोई देता थोडइ है. जो मिलता है उसे ही बैचकर कमा लेते हैं।"

तीन लड़के गोदाम के नल पर तोलिया बांधे एक दूसरे से बातें कर रहे थे। एक कहता, "इस बार मामा के वलीमे मे कोई खुशी न मिली हमें तो, हमारे तो चाचाजान ही हमारे पीछे लगे रहे। कहीं जाने ही नहीं दिया।"

दूसरा बोला, "एक बात तो बताओ भाई, अगले महीने क्या करोगे? क्या यही समान लादने का काम करना है या किसी गाड़ी पर रहोगे?"

पहला बोला, "अरे हम जैसे मेहनती आदमी को काम की कमी न है, कर लेगें कोई भी काम।"

तीसरा बोला, "भइये काम कोई भी करेगें लेकिन वे करेगें जिस काम के बन्द होने के आसार नहीं होगें।"

एक औरत गली की छोटी सी नाली मे सीकों की झाड़ू मारती हुई कुछ बड़बड़ा रही थी। "कभी तो पानी का निकास छोड़ दिया करो जब देखो कुछ न कुछ ठूसकर उसे यहीं अटका देते हैं। हम सोचते हैं कि यहाँ पर कुछ जमे न मगर कोई न कोई समान इसमें अटका ही रहता है।"

दो आदमी गोदाम के अंदर एक बेहद छोटे टेबल फैन को चलाये बैठे थे और गोदाम में नज़रे घुमाते हुए बातें कर रहे थे। उनमे से एक आदमी बार-बार समान का हिसाब लगा रहा था। वे बोला, "एक बार गर किसी की नज़र लग जाए तो काम कहाँ होता है। सोलह दिन में भी इतना माल नहीं लपेटा की एक टेम्पो भी लद जाये।"

"मैं तो ये सोच रहा हूँ भाईजान की दिल्ली का सारा कूड़ा जा कहाँ रहा है जो यहाँ नहीं आया तो?"

बाहर चौपाल पर मिले दो दोस्त एक-दूसरे से पहली बार मिले हैं उस अहसास से बातें कर रहे थे। एक बोला, "अरे कैसा है यार? तू तो मिलता ही नहीं है। कहाँ हैं आजकल?"

दूसरा दोस्त, "बस, यहीं है तू बतला कैसा है? काम कैसा चल रहा है?"

पहला दोस्त, "काम तो बड़िया चल रहा है। बस, आजकल अपनी दुकान खोलली है लेकिन काम तो हम गोदाम में ही करते हैं। दुकान का महीना और गोदाम की दिहाड़ी दोनों की हुड़क लग गई है हमें तो"

दूसरा दोस्त, "तू यहाँ है कबसे जो दुकान खोलली और दिहाड़ी भी मार रहा है?"

पहला दोस्त, "भाई हम तो यहाँ पर होश संभालते ही आ गए थे। हफ़्ते मे तीन दिन काम करते और कुछ न कुछ जुटा ही लेते रहे। खूब दिहाड़ी मारी है हमने। यहाँ जितने भी काम हैं सबमे हाथ आज़माया है हमने तो, जब लगा की इस दूकान की जरूरत है यहाँ पर डाल दी।"

दूसरा दोस्त, "बहुत बड़िया यार, लगे रहो और मिलते रहो यार।"

बातों का काफ़िला बाहर की तरफ मे दौड़ा चला आता है। जिसे कोई नहीं रोक सकता और रोकेगा भी क्यों भला। ये तमन्ना ही कुछ इस तरह की है जिसपर जोर नहीं चलता। कई छोटे-छोटे मौकों मे ये खूब फलता है। ऐसा लगता है जैसे ये बातें इस जगह की अंतरमन की तस्वीरों को खोल देती हैं। जिसको देखने मे जितना मज़ा आता है उतना ही उसे समझने की चेष्ठा जगती है। जिसके सहारे ये जीती है।

लख्मी

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