Tuesday, May 12, 2009

बस, इंतजार ही किया...

किसी भी वक़्त को वो कभी आसानी से पकड़ नहीं पाये। बस, उस वक़्त के आर-पार ही भागते रहे। शायद इसी में उन्हे मज़ा आता था। घंटो वो एक ही जगह पर खड़े रहते। जिसका वो इंतजार कर रहे थे वे कैसे दिखते हैं ये भी उन्हे पता नहीं था, और वो उन्हे कैसे पहचानेगें ये भी। फिर भी उनका रोज उस जगह पर तकरीबन चार घंटे खड़ा होना तय रहता।

आज उन्हे किसी ने बड़े प्यार से बुलवाया था। उसी की खुशी उनके चेहरे पर छाई थी। अपनी पढ़ाई ख़त्म करके उनके पास कुछ भी करने को नहीं था। घर मे जो भी हो लेकिन वो इतना तो जानते थे कि अभी उनके पास दो साल तो है जिसमे वो कुछ अपने लिए कर सकते हैं। अगर ये गवा दिए तो फिर तो लग गये किसी काम पर जिसमें उनका मन कतई नहीं था।

वे भागे-भागे जाते थे उस तरफ जहाँ पर उन्हे कोई अपने साथ बिना वज़ह के ले जाने की कहता। वो रात-रात भर घूमते। कभी वेटर बनकर पार्टियों में, कभी शादियों में डीजे वाले साथ, कभी नाटक करने वालो के साथ, कभी बाजारों में तो कभी जागरणों में। उन्हे इन जगह पर जाने से कोई भी नहीं रोक सकता था। दिन और रात को उन्होनें बड़ी सहजता से ज़ुदा-ज़ुदा कर रखा था। दिन में क्या करना है और रात में क्या उन्हे खूब पता था। कभी वो दिन को रात बना देते तो कभी रात को गहरी रातें। जिसमे कोई किसी को ना तो जानता है और न ही पहचानता है।

एक बेहद छोटा सा ग्रुप जिसको बनाने में इतनी मेहनत नहीं लगी थी लेकिन उसे रोजाना बनाये रखने में अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती थी। इसमे एक ढोलक बजाने वाला था, एक ड्रमसेट, एक गाने वाला और एक चांगों बजाने वाला हाँ कभी-कभी इसमे गिटार तो कभी मटके बजाने वाले भी जुड़ जाते थे।

उन्ही के आने जाने से ये फलता-फूलता था। सब इसी की रौनक में बेहद खूश होते। कई रौनक इन सब ने सा‌थ मिलकर ताज़ा की हैं। शुरू-शुरू में तो ये अपने ही रिश्तेदारों की जगहों को रौनक करते थे। चाहें कुछ भी, कुछ मिले या ना मिले बस, सब के सब खुद ही पँहुच जाते और माहौल को खुशगवार बना देते। ये माहौल को ताज़ा बनाना लोगों के दिलों मे उतरने के समान था। जो वे बहुत आसानी से कर लिया करते। जिसका असर शायद उन्हे दूसरे ही पल मे मिल जाता था।

ये भी उन पार्टियों के हिस्सेदार थे और उस ग्रुप के साथी थे। भले ही उन्हे कुछ बजाना नहीं आता था और न ही कुछ माहौल बनाना। ये तो खुद ही उस माहौल के दिवाने थे। हाँ इन्हे चांगों बजाना बेहद भाता था। मगर उसे खरीदना तो दूर उसे सीखने के भी उन्हे कुछ देने होगें इसी से वे डर जाते थे। लेकिन ये उनका खुद का ही भ्रम था।

रोज शाम में चार बजे वो ग्रुप साथ होता। जिसमें कोई न कोई गाना बजाया जाता। कभी गाना नया होता तो कभी पुराना। गाने के साथ मे गाने वाला, बजाने वाले और सुनने वाले सभी साथ में होते। ये सारा प्रोग्राम किसी न किसी की छत पर होता। सब कुछ यहाँ पर जैसे शांत होता, छत पर किसी के होने का अहसास गायब हो जाता। बस, जो भी होता वो दिलों के अन्दर से निकलने वाली आवाज़ होती और उन सब के रियाज़ के कण जिसने में बेहद ताकत होती।

ये छत छोटी थी, मगर इतनी भी छोटी नहीं थी कि इन सभी के लिए जगह न बन पाये। कहीं से बहुत मद्दम आवाज़ आ रही थी। जैसे कोई तारों के साथ खेल रहा है। हर तार के अन्दर से निकलती आवाज़ रात के आलम को हसीन बना रही थी। मदहोशी के आलम मे हर किसी को जैसे करीब ला रही हो। आसमान साफ था, संगीत के साथ जैसे जुगाली कर रहा था। कभी नवाबो की तरह से सब कुछ सुनता तो कभी मदहोश होकर हवा के झौकों से के रूप में फूलों की बरसात करता। वाह! क्या मज़ा था।

उन्होनें पहली बार एक चांगों खरीदा था। लेकिन इसको बजाना उन्हे आज भी नहीं आता था। घर में रखकर उसे वे कभी सीधा तो कभी उल्टा करके देखते। ये पुराना था, पुराना तो खरीदा था लेकिन उनके दिल में इसका अहसास नये से भी काफी ज़्यादा था। वे उनके दिल का जैसे टुकड़ा था।

लख्मी

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