Friday, May 8, 2009

उन्हे जाना कहाँ उन्हे खुद नहीं पता...

जीवन के कई साल उनके कहाँ फुर्र हो गए इसका तो उन्हे पता नहीं है लेकिन इतना मालुम है कि वो न जाने कितने जनों के मन के अन्दर बसे हैं। ये वो कभी कहते तो नहीं है पर उनके चेहरे की मुस्कुराहट से मालुम होता है।

उन्होनें चुराया है जगहों को, उन्होनें छुपाया है किसी कोने में खुद के बदलाव को। अगर वो चाहते तो शायद वो भी कहीं खो जाते पर यही सोचने में उनको कई साल लगने वाले थे। क्या खुद को कोई खोने और बदलाव की आग में झुलसने से बचा सकता है? क्या कभी आपने बचाया है खुद को?

कई जगह के रहनवाज़ बने हैं वो और उन्हे इस बात की खुशी भी है। रात का आलम गहराया हुआ है। हर चीज़ खुद को अपने मे बसाये रखने की ताकत से भर गई है। ये ताकत कोई उनसे छीन नहीं सकता।

उन्होनें बमों की लड़ी लगाई और पाँच फिट की दूरी से उसमे आग लगा दी। थोड़ी ही देर में बस, एक वही उन आवाज़ों के बीच रहे बाकी कुछ भी नहीं दिख रहा था और ना ही सुनाई दे रहा था। दबादब एक के बाद एक, आवाज़ से पूरा इलाका भन्नाया हुआ था। लोग जहाँ उन आवाज़ों से भय कर रहे थे और वो उन आवाज़ों को अपनी ताकत मानकर उनके बीच में खड़े थे।

बमों की बरसात हो जाने के बाद बातें जैसे ही होती वो उनसे दूर हो जाते। ये तो उनका रोज़ाना का काम है इसके बारे में क्या सुनना?

"क्या आतीशबाज़ी है भई मज़ा आ गया।"
"ये होता है स्वागत। टॉप क्लास।"

जहाँ बराती और घराती के बीच इन ज़ुमलों को लेकर वाह-वाही बरसाई जा रही थी वहीं वो दूर खड़े बस, अपने काम से खुश होते नज़र आते। वो कहते हैं, "भई हम तो खुशी बाँटने का काम करते हैं। यही हमारा नेग है।"

सब लोग कानों पर हाथ रखे खड़े हैं। अभी उन्होनें दरवाजे के सामने एक बहुत बड़ी बमों की लड़ी लगाई हुई है। बरात के पास में आते ही वो उसे जलायेगे। ये दुल्हे के लिए है स्पेशल। दूल्हा घोड़ी पर होगा। तो वो लगभग दस फिट की दूरी से ही उसे जला देगें। जब तक दुल्हा घोड़ी से उतरेगा तब तक वो जलेगी।

बमों की लड़ी गोल धारे में लगाई है उन्होनें और बीच में चार अनार लगाये है। सबसे पहले वो बमों की लड़ी जलेगी उसके बाद में वो चार अनार, उसके बाद में चार आसमान में फटने वाले बड़े बम। ये आखिर में होगा। उसके बाद में दुल्हा अन्दर चला जायेगा और उनका काम ख़त्म हो जायेगा।

बात अगर कहीं अटकती है तो वो है सन 1980 में। ये उनका पुश्तैनी काम था। चर्चा हो या आतीशबाज़ी के लिए उनका कहीं पर परीचित होना। ये बहुत आम सी बात होती। उनके अब्बा के मन में बम को लेकर न जाने क्या बसा होता। मगर वो चाहते थे की सभी त्यौहारों को बम से रोशन किया जाये। खुशी में सभी को बम से सलूट किया जाये। चाहे वो शादी की खुशी हो या दीवाली का शुभअवसर। वे हमेशा उसी के लिए तैयार रहते।

बम बनाना उनका शौक था। इसी शौर के कारण उनके अब्बू ने उनका नाम ही आतीश रख दिया था। मगर इस शौक के लिए कभी कोई ठिकाना नहीं मिलता था।, दूर-दूर तक सभी इसकी आवाज़ से चौंक जाते थे। मन में होता था कि कोई ऐसा बम बनाया जाये जिसमे सारे रंग हो। वो जब चले तो पूरे अंधेरे को काट दे। एक ही बम हो मगर उसके जलने मे वो पाँच बार अपनी रोशनी फैलाये। उसके रंग हवा में ऐसे झूमे की वो सारी रात को दिन के रोशन उजाने में तब्दील करदे। इसी की चाहत में ये भी अपने इस काम मे अपने हाथ आज़माने के लिए उतर गए।

हर वक़्त मन होता था कामयाबी हासिल नही हुई। देखते-देखते तंगी उनके सिर पर नाचने लगी। अब अपने शौक को रिझाने का काम उनकी तकलीफ के कारण बन गया। वो हमेशा सोचते थे की इसका असर क्या है? वो अपने आसपास देखते थे तो उन्हे लगता था की कुछ चीज़ को हासिल करने का सवाल उनके मन में ही आता था। बाकि तो सभी उन दुनिया में लीन थे। लेकिन दिमाग की फसल ने साथ देने से मनाकर दिया और बम में रंग भरने की चाहत को अधूरे में ही छोड़कर जाना पड़ा।

उनके अब्बू के मन में तंगी और कामयाबी के सवाल कभी नहीं खरोंचते थे। वो उनको देखकर हर वक़्त अचम्भे में रहते। इतना हुनर है लेकिन कभी किसी बड़ी बम बनाने वाली दुकान पर काम नहीं करते। बस, खुद मे घुसे रहते हैं। किसी को अगर सिखाने के लिए बुलाते नहीं है तो कोई आ जाये तो उसे भगाते भी नहीं है। उनका चेहरा लोग याद रखते हैं मगर उनकी जगह को नहीं? ऐसा क्यों होता था उसका कभी वो रत्तीभर भी अहसास नहीं कर पाये थे। छोटे-छोटे कागज़ों के टुकड़े उनके इर्द-गिर्द पड़े रहते, रस्सियों के गुछ्छे भी उनके मसालो में सने रहते और साथ में हर रोज़ कोई नया ही उनके उन गोलों पर मसाला रगड़ रहा होता। उन्हे तो ये तक नहीं मालुम होता था कि आज उनके पास में कौन बैठा है?

आतीश कहते हैं, "मैं उनके इस ज़ज़्बे को कभी नहीं समझ पाया था और ना ही साते जन्म तक मैं समझ सकता था। उनसे तो कुछ पूछने का भी मन नहीं होता था। घर में मैं और उनके अलावा था ही कौन? लेकिन उनकी दुनिया तो अलग ही थी। मैं उनकी दुनिया में शामिल नहीं था या मैं उनकी दुनिया से निकल भागा था ये मेरी गलती है।

वो बमों की पटली कसते हुए बाहर की तरफ मे रवाना होने वाले थे। तभी शादी वाले घर से उन्हे किसी ने रोका और वो थोड़ी देर के लिए रूक गए।

हारा-थका हुआ मैं वापस पँहुचा ये उस बात से तकरीबन 2 से 3 साल पुरानी बात है। अब्बू वहीं थे। जिन लौंडों को मैं उनके पास छोड़कर गया था उनमे से मुझे कोई दिखा नहीं या हो सकता है मेरी ही निगाह उनमे से किसी को पहचान नहीं पा रही थी। मेरे हाथ मे कुछ नहीं था, हमारा घर जला हुआ था। एक तरफ की दीवार को समझों पूरी ही जल गई थी। समान तो अन्दर पूरा सही सलामत था। अब ये पूछना तो बेकार था की ये जला कैसे? बम की दुकान कितनी ही मजबूत हो लेकिन एक दिन जलती जरूर है। और ये तो बमो का घर था। अब्बू मे मेरी तरफ इशारा करते हुए मेरा हाल-पूछा। मैं सलाम कहकर उनकी बगल मे ही बैठ गया।

दिन में तो कुछ भी बातें नहीं हुई थी, बस मसालो की महक में पूरा दिन मेरी नाक की तरह से जल रहा था। अब्बू ने चार अनार निकाले और उन्हे जलाया। उसी की रोशनी मे उन्होनें मुझे कुछ पैसे पकड़ाये और कहा गिनों। मैंने उस अनार की रोशनी मे वो पैसे गिने। उन्होनें दूसरा अनार भी जलाया। उस रोशनी मे मैंने बिजली का बिल देखा। 7 हजार रूपये हो गया था।

हमारा घर अकेला था मेरठ में। उसके बाद तो बस, जगंल ही शुरू होता था। रात का खाना खाकर फिर रात में उन्होंने एक और बम जलाया, उसे देखकर तो मेरे होश ही उड़ गए। अब्बू ने वो बम बना लिया था जिसमे से सात रंग निकलते थे। भइवाह- क्या बात है।

उस दिन के बाद में मैं कभी काम पर नहीं गया। यहीं मेरठ में रह गया। अब दिल्ली आया हूँ तो आने का मज़ा ही कुछ और है। दिल्ली के चांदनी चौक के इलाके के पीछे सदर बाजार मे हमारी अपनी जगह है। वही पर मैं भी अब्बू की तरह से बम बनाता हूँ। अनपढ़ हूँ लेकिन मुझे लोग मास्टर जी कहते हैं।

इतनी पहचान है कि आसपास की सारी शादियों में मुझे ही बुक किया जाता है। पूरा पहाड़गंज, चांदनीचौक, दिल्लीगेट, बारहखम्बा रोड़ और भी जगहों पर। नाम गूंज रहा है। सब अल्लाह की मेहरबानी है और अब्बू का हाथ है सिर पर। दिवाली के लिए तो मैं स्पेश्ल बम बनाता हूँ। और सबसे पहले मैं ही उसकी शुरूआत अपनी दुकान से करता हूँ।

बात चाहें कहीं की कहीं पँहुच गई हो, मगर जो वो अपने अन्दर लिए घूम रहे थे वो छलक उठा था। इस मुलाकात का कोई ठोर-ठिकाना नहीं था। लेकिन इसकी बुनाई समय के धागों ने कर दी थी। हम तो पात्र थे जो किसी ऐसे क़िरदार को अपने बीच महसूस कर रहे थे जिसका कोई भी पहलू हम पकड़ ही नही सकते थे। बात का अन्त होना जरूरी नहीं था।

लख्मी

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