Wednesday, May 27, 2009

उपन्यास पढ़कर उनका दिमाग चलने लगा...

उपन्यास पढ़कर उनका दिमाग चलने लगा है। हर वक़्त किसी और दुनिया में खोये रहते हैं। हमे तो जैसे जानते ही नहीं हैं। एक बीबी और क्या चाहेगी अपने पती से की वो उसे प्यार करे और परीवार को सम्भाले। वो वक़्त की इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। रोज़ाना किसी न किसी उपन्यास में ओधें मुँह पड़े रहते। उनकी बीबी अनामिका गुर्राकर बोली, “35 साल के हो गये हो बुढ्ढे फिर भी बच्चों जैसी हरकत नहीं जाती। नौकरी तो छोड़ चुके हो अब क्या हमे छोड़ने का इरादा है।" ये बच्चे क्या सड़क पर छोड़ दूं।

विजय को कुछ पता नहीं था की उस के सिर पर करछी लेकर साक्षात कालीमाई के रूप में उनकी बीबी अनामिका खड़ी है। सुनते नहीं मैं कुछ कह रही हूँ। पाँच फुट पाँच इंच के इस मोटे-ताज़ी शरीर से थोड़ा काम भी कर लिया करो।

विजय मानो स्वंय ही अपने से पुँछे गये सवाल का जबाव जानता था पर वो इस जवाब को किसी और ही अंदाज में कहना चाह रहा था, "इसे रिवॉल्वर कहते हैं मैडम और इससे निकली एक नन्ही-सी गोली अच्छे-खासे इंसान की ज़िन्दगी को मौत में बदल देती है।"

अनामिका के तन-बदन में जैसे आग सी लग गई फिर अचानक ही वो ठन्डी पड गई। विजय ने उसके उतरे हुए चेहरे को पढ़ लिया कि बीबी बहुत डर गई है। ज़्यादा डराऊगाँ तो शयम को रोटी के बदले खाली थाली के दर्शन करने पड जायेगें। लेकिन अनामिका कहाँ मानती वो दोबारा किसी बात का बहाना लेकर फिर से कोशिश करने लगी। दुनिया भर के मर्द बाहर जा कर कमाते हैं एक तुम हो की पुरा दिन मुफ़्त में रोटियाँ तोड़ते हो।

वो आश्चर्यजनक ढ़ग से खुद को नियंत्रित करके आँखे उपर की तरफ कर के बोला, "अपनी नौकरी का ज़्यादा घमंड मत करो मैं अभी ज़िन्दा हूँ हाथ पैर सलामत है। जब मर जाऊँ तब खूब गालियों की बारीश करना। मैं जरा भी इतराज नहीं करूंगाँ।"

ओरतों को लड़ने के लिये किसी वजह की जरूरत नहीं होती वो लड़ाई की खुद एक वजह होती है। विजय चुप हो गया और मन ही मन उपन्यास किसी पन्ने को पढ़ने लगा। अनामिका फिर बड़बड़ाती हुई विजय की ओर लपकी।

"अगर ना ही पालने थे ये बच्चे तो पैदा क्यों किये?”

विजय बड़ी ही मुस्कराहट के साथ चेहरे पर ताज़गी लाकर बोला, "जैसे तुम्हारे बाप ने तुम्हे पैदा किया वैसे ही मैनें भी इन्हे पैदा किया है। चिन्ता किस बात की है। भगवान सबको देखता है। वो यहीं कहीं हैं तुम्हारा ड्रामा देख रहा है। जरा मुँह सम्भालकर बोलना समझी।"


"अगर तुम ये सोच रहे हो की मुझे डरा-धमका कर तुम चैन से बैठे रहोगें तो ये तुम्हारी गलत-फहमी है मिस्टर विजय।"

तभी विजय के होठों पर अजीब सी मुस्कराहट खिल गई उसने अनामिका को घूरते हुए पूछा, "तो तुम मुझे पढ़ने नहीं दोगी मुझे एक ही बात बार-बार दोहराने की आदत नहीं है।"

"मुझे तो तब तक चैन नहीं मिलता जब तक कोई मेरी बात न समझले और तुम समझ लोगे तो तुम्हारी सेहत के लिये अच्छा होगा।"

विजय ने तीव्र गती में कहा, "लगता है तुम्हारी खाल मसाला मांग रही है अभी मुझे तुमने ठिक से जाना नहीं है।"

"तुमने भी मुझे कहा पहचाना है।" अनामिका अन्जान सा चेहरा बना कर बोली।

विजय बातों से ही काम चला रहा था। उसे समझाने की कोशिश कर रहा था, "मान जाओ मुझे छेड़ो मत।"

उसने फिर चेतावनी भरी आवाज़ में कहा। पर वो कहाँ मानने वाली थी।

"देख रहे हो घर की क्या हालत बना रखी है पूरा घर कबाड़ी की दूकान लगता है। दिवारें पलस्तर छोड़ चुकी है रंग फिका पड़ गया है सफेदी की पपडियाँ रोज़ दिवारों से छूट कर गिरती है।

"ये सब पैसे से ही ठीक होगा। सूना !”

"कानों मे रूई ठूस रखी है क्या? अगर तुम अपनी खैर चाहती हो तो चुप हो जाओ।"

घर मे विजय ने एक-एक चीज को देख कर कहा, "क्या नहीं है हमारे पास फ्रीज है कूलर है टीवी है बर्तन भांडे, ओलाद है सब तो है और क्या चाहिये?"

गालियों से सांस लेने के बाद वो अपना मुँह विजय को चिड़ाकर बोली, "अच्छा और क्या चाहिये, बडे लखपती बाप के बेटे हो ना, जो इतने आसानी ये सब बोल दिया। ये पूराना फ्रीज जो कभी डन्डा पानी करता है कभी नहीं। वो खिड़की में लगा कूलर कभी रूक जाता है कभी चल पडता है और ये मुँह टीवी अपनी मर्जी का मालिक है। रिमोट के बटन तक अन्दर धंस गये हैं। जब तुम्हारा ये हाल होगा तो तुम्हे पता चलेगा। मुझे लगता है तुम मेरे हाथ से मरना चाहती हो। विजय बार-बार उसे शब्दों से समझाता पर वो कुछ ना समझती। लगता है की भेस के आगे बीन-बजाने से कोई फायदा नहीं।
मुझे कुछ करना पड़ेगा। खामखा मेरे सिर पर खून का इल्जाम आ जायेगा।

ये कहते ही उस के चेहरे पर हिंसा भरे भाव पैदा हो गये। अब जरा भी मेरी आँखों के आगे टिकी तो तेरा गला दबा दूंगा। मेरा सारा मज़ा खराब कर दिया।

उपन्यास को एक तरफ पटक कर वो बौखला कर उठा रास्ता छोड़। तुम लोग मुझे जीने नहीं दोगे। कहाँ जा कर मर जाऊँ?

बडी पैचिदगी भरी आवाज़ मे वो बोला, "तुम ये समझती हो की इन सब बातों से मेरा उपन्यास पढ़ना छूटवा दोगी तो मैं बताए देता हूँ की तुम गलत हो। अनामिका सिर को हथेली से पीटकर बोली।

"मेरी अक्ल में तुम्हारी कोई बात नहीं आती। यूँ खाट पर लमलेट पड़े रहने से कुछ नहीं हासिल होगा काम-वाम करना पड़ता है तुम तो बैशर्मो की तरह घर मे ही घुसे रहते हो। ज़ुबान को लगाम दो। विजय फिर से चौड़ा होकर बोला। मैं कुछ बोल नहीं रहा तो इस का मतलब ये नहीं की तुम सही हो। जरा अपने आप को आईने में देखो तेहजीब की तुम्हे जरूरत है।"

आईना जो दिखाता है तस्वीर अपने वर्तमान और गुज़रे वक़्त की। वो भी वक़्त साथ बहुत कुछ पीछे छोड़ आया था।विजय को उपन्यास के इलावा कुछ नहीं सुझता था। बचपन से वो स्कूल की किताबी दुनिया से दूर शहर की आबो-हवा में किस्सा गोहियो में खोया रहता था। उसकी छोटी-छोटी मगर बेहद चमकती और झिल-मिलाती आँखें, मुस्कान भरे चेहरे को और खिला देती। बचपन और जवानी के बीच उसने कहानियों और किस्सो की गुथ्थम-गुथ्था में अपना रोल अदा किया। वो धीरे-धीरे उपन्यासों की दल-दल में धंसता चला गया।

वो किसी उपन्यास की पंक्तितों में खोया हुआ एक टक नज़रें दिवार की ओर गढ़ाये हुए था। कमरे की कोई चीज़ उसे छू नहीं पा रही थी। कोई बात सुनाई नही दे रही थी और अनामिका उसके कांधे पर बैठकर कान खा रही थी। शायद तुम ये भूल गये हो की तुम बैठे कहाँ हो? क्यों?

वो बडे ही घमंडी स्वभाव मे बोली, "घर-घर होता है बाहर-बाहर होता है। अब दिवानों की तरह घर में पड़े रहोगे के कहीं जाओगे भी।"

"मैं सिर्फ तीन गिनुगाँ अगर तुम चुप नहीं हुई तो मैं बता नहीं सकता की मैं क्या कर जाऊँगा।" फिर चेतावनी दी उसने और हाथ उठाकर गिनती करना आरम्भ किया।

"एक" उसने दायनें हाथ की अगूंठे के साथ वाली उंगली उठाई। कमरे में सब कुछ शान्त हो गया बच्चे दोनों के बीच में ऐसे बैठे थे जैसे कोई तमाशा उनकी आँखें देख रही हो। बस, दिवार घड़ी की सुंई की हल्की सी टक-टक सुनाई दे रही थी ।

"दो " उसने बीच वाली उंगली उठाई तेज़ आवाज़ में जोर दिया।

अनामिका का चेहरा पीला पड़ने लगा वो विजय से वैसे बहुत डरती थी। वो इस लिये की विजय बहुत शान्त और ईमानदार आदमी था। झगडे में भी ईमानदारी से इंसाफ करता किस की क्या गलती है मसला हल कर देता था पर सेखीबाज़ होने के कारण रोब झाडती थी। उसे सहन करना हर किसी मर्द के बसकी बात नहीं थी।

तीन गिन्ने की नौबत नहीं आई वो इतने मे ही मान गई। तीनों बच्चे जोर से हंस पडे। घर का बनना जो कुछ देर के लिये मैदाने जंग बन गया था वो थम गया और घर-घर लगने लगा। दिवारें नज़दिक खिंची चली आई। फ्रीज़, कूलर, टीवी, अलमारी इत्यादी जो कुछ देर के लिये गायब हो गये थे। घर का तिनका-तिनका वापस आ गया।

राकेश

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