Thursday, June 19, 2014

स्कूल की किताबों में सवाल


आज सबसे मुश्किल दिन रहा। यही सोचने में दिन गुजरा की वे सवाल क्या हो जिनसे पाठ को आगे की ओर ले जाया जाये। हर बार पाठ को पढ़ाने के बाद में उसके पीछे लिखे सवालों से पाठ को क्यों दोहराया जाये जो पाठ को किताब के अंदर ही रख कर संवाद करते है। पाठ को पढ़ने वाले के जीवन तक जाने ही नहीं देते। स्कूली किताब इन सवालों से भरी हुई है। किताब की कहानी के लिये सवाल बनाये जाते हैं क्या ऐसा हो सकता है कि सवालों से कहानी बनाई जाये?

आखिरकार सवाल होते क्या हैं? सवाल छुपी हुई कहानियों को बाहर ले आने के लिये होते हैं। वे कहानियां जो रोजमर्रा जिन्दगी में किसी घटना की तरह घटती है और उन्हे घटना की भरपाई के बाद भुला दिया जाता है। सवाल उन दृश्य से मिलवाने के लिये होते हैं जो पेज दर पेज जुड़कर अनुभव के बड़े विशाल रूप बनते हैं। सवाल उन हरकतों को बहला फुसलाकर कहानी बन जाने का मौका देते हैं जिन्हे शैतानियां कहकर भूल जाने के लिये कह दिया जाता है। सवाल उन बातों व यादों को किस्सा बन जाने के लिये उक्साते हैं जिन्हे इस बंटवारे मे रखा जाता है कि क्या दोहराने लायक है और क्या नहीं। सवाल किसी सुने हुए को दोहराने के लिये नहीं होते बल्कि वे सुने हुए के अगले पड़ाव बुन लेने के लिये होते हैं।

किताब के भीतर के सवाल उन बाऊंडरियों में जीते हैं जिनमें कहानी को, उसके बुने जा रहे दृश्य को, उसके अनेकों जाने पहचाने किरदारों को अथवा कहानी में बहते अहसास को याद मे ले जाने की ताकत होती है। मगर वे क्या सवाल हो जो यादों से इन सब चीजों को वापस खींच लाये। हमेशा क्लास मे पढ़ाते किसी भी पाठ के बाद मे होती बातें इन सवालों के बनने को उक्साती हैं। पाठ के खत्म होते होते सभी किसी ना किसी बात को याद करके तुरंत ही उसमें जोड़ देते। "ऐसा हमारे साथ भी हुआ था या ऐसा एक बंदा हमारे यहां भी रहता है" बातों के शुरू होने से पहले ये लाइनें पाठ को भूल जाने को कहती और साथ ही ये भी की पाठ मे कुछ कमी छोड़ दी लिखने वाले ने। नौसिखया से ये दृश्य कहानी बनकर पाठ को फिर से पढने को जोर देते। हर बार, लगातार, जब भी कोई पाठ पढाया जाता ये बातें जुड़ने लगती। कभी कभी एक ही पाठ को दुबारा पढाया जाता तो फिर से उसपर यादों से कुछ झलकियां साथी सुना देते और ताज्जुब की बात ये ही कि हर बार उसमें कोई नया ही दृश्य होता।


ये पाठ को ऐसे छुते की जैसे पाठ इन्ही की जिन्दगी से निकलकर इस किताब में आया हो। साथ ही ये अहसास भी होता कि पाठ को छूना क्या होता है।

आज क्लास में "नन्हा फनकार" पाठ खत्म ही हुआ था। टीचर ने सभी को कहा की अगर तुम इस नन्हे फनकार से कुछ सवाल करो तो क्या करोगे? कुछ देर तक सभी खमोश रहे। फिर सभी ने कोशिश की के कैसे हम उससे बात करेगें। सभी ने कुछ पूछना शुरू किया। "हम सवाल कैसे कर सकते मैम वो दिखता तो है नहीं।", “वो तो हमारा दोस्त भी नहीं है।", “हम तो उससे मिले भी नहीं है।"


ऐसा लगा की सवाल करने के लिए क्या किसी को जानना जरूरी होता है? साथी बिना नन्हे फनकार से मिले, बिना उसे जाने क्या उससे बात कर सकते हैं? तो कैसे?

"फनकार क्या होता है?” टीचर ने सभी से पूछा।
सभी ने अपनी अपनी समझ से जवाब देने शुरु किये - कोई कहता की गीतकार होता है, कोई कहता संगीतकार, कोई कहता नाटक करने वाला, कोई कहता चालाक आदमी। छोटे छोटे जवाबों की लिस्ट मे अनेकों लोग बिना नाम और परिचय के शामिल थे। ये वे लोग थे जो उन्हे कभी रास्तों पर, कभी सफ़र में, कभी गली मे तो कभी किन्ही खास मौकों पर टकराते हैं। फनकार का होना अपने अन्दर अनेको अपने जैसे लोगो को लिये चलता है महसूस होने लगा। कोई भी अपने यहां के उन लोगों के चित्र खींच रहा था जो उन्हे मनोरंजन करते हैं। औरों से अलग लगते है।

क्लास के कोने मे बैठे एक साथी ने बोला, “हमारे यहां पर हर शानिवार को एक आदमी आता है जो कभी हनुमान बना होता है तो कभी कुछ और। हम उसके साथ साथ खेलते हैं। उसके पीछे पीछे चलते जाते हैं। वो हमें बहुत हंसाता भी है। सभी उसे कुछ न कुछ देते है। मैं तो उसके ऊपर लगे रंग को छुटा लेता हूँ। अच्छा लगता है।"

दूसरे ने कहा, “मेरे पापा तो एक जगह पर काम करते हैं जो उन्हे गाना भी सिखाती है। वो बहुत अच्छी ढोलक भी बजाते हैं। गली में सभी उनसे चिड़ते हैं। मगर मेरे पापा फिर भी ढोलक बजाते हैं।"

अब किस्सों को रोक पाना बेहद मुश्किल था। क्लास के साथियों की सुनने की क्षमता भले ही कम हो लेकिन कमजोर नहीं होती और साथ ही सुनाने की भूख कभी खत्म नहीं होती। उनके लिये फनकार वो आदमी व लोग थे जिनसे वो उत्साहित होते और उनके जैसा बनना चाहते।

हमारे यहां पर बहुत सारे गाना गाने वाले लोग आते हैं। वो जब भी टेंट लगा देखते हैं तो भेष बदलकर चले आते हैं। फिर नाचने लगते हैं। वो थकते नहीं। उनको देखकर उनको देखने वाले भी नाचने लगते हैं। पता है वो किसी को खींचते नहीं है लेकिन फिर भी उनको देखकर सबका मन करने लगता है नाचने का। हम तो उनको देखकर खुश होते हैं।" सबसे आगे बैठे एक और साथी ने सुनाया।

उसी के पलटवार में उसके साथी ने कहा, “मेरे पापा जाते हैं उन गाने वालो के साथ में। मैंने बताया था ना कि मेरे पापा ढोलक बजाते हैं।"

टीचर ने पूछा. “चलों अगर हम तुम्हारे पापा के लिये सवाल बनाये तो क्या सब क्या क्या पूछेगे उनसे जरा एक एक करके बोलो।"

"तुम्हारे पापा ने ढोलक बजाना कहां से सीखा?” एक ने पूछा।
टीचर ने उसका सुनकर ब्लैकबोर्ड पर लिखा - ढोलक कौन कौन बजाते हैं?
टीचर के लिखने पर उस साथी ने कहा, “मैम मैंने तो ऐसा नहीं पूछा।"
तो टीचर ने कहा. “हम इसके पापा से पूछ रहे हैं लेकिन उनके बारे मे नहीं पूछेगे।, ठीक है।"
सभी ने कहा, “ठीक है।"
उसी साथी ने पूछा जिसके पापा ढोलक बजाते हैं, “ढोलक बजाने कहां जाते हैं?”
टीचर ने कहा, “ये भी ठीक है।"
मैंम कब कब ढोलक बजाई जाती है? तीसरा साथी
"ढोलक क्यों बजाते हैं?” पहला साथी
कुछ सिखने वाले कैसे दिखते हैं?” चौथा साथी।
ढोलक नहीं होती तो क्या बजाते हैं?” दूसरा साथी।
मैंम ढोलक तो खुशी मे बजाई जाती है। मेरी मम्मी को भी ढोलक बजाने के लिये गानो मे बुलाया जाता है। तो हम ये भी तो पुछ सकते हैं कि खुशी मे बजाने वाले कौन होते हैं?” पहले वाले साथी ने पूछा।
"मैम खुशी बांटने वाले कौन होते हैं?” दूसरे मे झट से पूछा।
हल्ला मचाना क्या है?” एक ने अपनी हैरत को खत्म करने के लिये पूछा।

मगर कोई जवाब नहीं आया - इस दौरान जवाबो की ओर कोई जाना नहीं चाहता था। सबने रेस लगी थी की ज्यादा से ज्यादा सवाल उनके बोले हुए बोर्ड पर लिखे जा सके।

सवाल आया - "हम कब हल्ला मचाते हैं?” एक नई आवाज़ आई।
किसी ने चुपके से दबी सी आवाज़ मे कहा, “जब मैंम नहीं होती।"
पीछे पीछे जोरों से हंसने की आवाजें गूंजी। टीचर को भी मालूम था की क्या मस्ती चल रही है।

"मैम हमारे यहां पर एक आदमी रहता था। गली के बाहर एक पेड़ था उसने नीचे ही उसका बिस्तर था। वो ना रात को बहुत बहुत अच्छे अच्छे गाने गाता था। गली के बहुत सारे आदमी उसे बोलते थे की गाना सुना तो वो सुनाता था। वो ना मर गया। अब वहां पर कोई नहीं रहता। एक दुकान खुली है मोटरसाइकिल की।" दूसरे साथी ने ये किस्सा सुनाया।

टीचर इस कहानी के बाद मे कुछ देर तक कुछ नहीं बोली। फिर कुछ देर के बाद उन्होने कहा, “वो आदमी अब नहीं है लेकिन अब भी लोग उसके बारे मे एक दूसरे को बोलते हैं। जैसे आज तुमने हमे बताया। तो वो तो आज भी है ना। सुनाने वालो की बातों मे?”

वो साथी हंसकर बोला, “हां मैम।"

टीचर ने सवाल किया, “अच्छा बताओं हमारे आसपास में मिलने की जगहें कैसे दिखती है?”

कहानियां आना फिर से चालू हुआ। वे जगहे जिमने शायद इनका जाना आना मना हो लेकिन उनकी उड़ती कहानियां इन तक जरूर पहुँच जाती होगी। जिनको हर साथी अपना समझकर क्लास के अन्दर होती बातचीत मे सुना देता है। एक एक कर क्लास मे इन लोगों और जगहों के किस्से आने शुरू हुए। जो किसी के निजी होते तो किसी के देखे दिखाये चित्र की तरह। किस्सो में फनकार की वो छवि उभरकर आती जिसकी छुअन पाठ से मिली मगर दृश्य आसपास के भीतर से खींच लाई। ये आसपास पाठ के हर अहसास मे शामिल होता है। पाठ अपना आसपास अपने साथ लेकर चलता है तो साथ ही वे किसी अंजान आसपास को रचता भी जाता है। जिसमे पढ़ने वाला खुद के देखे, झेले और सुने किस्सो को भी उसमे जोड़ सकता है। मैं सोच रही थी की अगर सवाल होता - "नन्हा फनकार कौन था?” तो क्या होता?


 लख्मी

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