Wednesday, August 3, 2011

जवाब 'हाँ' और 'न' से बाहर थे

यहाँ पर सवालों की मानयिता उतनी ही थी जितना की जवाबों की। लेकिन हर जवाब अपने साथ एक ऐसी दुनिया लेकर आता जिसमें सवालों को खोजना बेबकूफी के समान होता और कभी सवाल अपने अन्दर कई दर्शन लिये चलता है जिसमें किसी एक जवाब से संतुष्ट हो जाना एक बड़ी और असमान्य बेवकुफी के समान होगा।

शहर में एक सवाल को लेकर घूमने की तैयारी दी जा रही थी। इस तैयारी में सबको पिरोने और भिन्नता में रखना था। लेकिन किस तरह की भिन्नता?

क्या बँटवारे की? क्या खास की? क्या विरोध की? शायद नहीं, इस भिन्नता में था सीधे और साफ लब्ज़ों में बँटवारा। दो तरह की दुनिया की कल्पना एक जो सज्जन रूपी जीवन और दूसरा बाघी रूपी जीवन। इसके अंदर शहर को आंकने की तैयारी बिलकुल अपने शब्द की भांति एक दम कठोर और ठोस थी।

तैयारी का मतलब क्या?

निपूर्ण हो जाना?, जवाबों से ऊपर रहना?, दुनिया से पूछने वाले बनना या फिर जवाबों में घूम न जाने वाले? शायद इसमें जो एक सबसे ठोस बात थी वे ये की सुनने वाले बन जाना। एक ऐसा सुनने वाला जिसे जवाब पहले से ही ज्ञात है।

हाथ में एक फोर्म पकड़ाया गया जिसमें कई सवाल थे। लेकिन उनके नीचे थे दो ही मार्क, जिसके सामने टिक लगाकर अपना जवाब भरना था। जिसको लेकर सिखाया जा रहा था।

सिखाने वाले ने तेज़ आवाज़ में कहा, “सबके जवाब "हाँ या "न" में होने चाहिये।
किसी ट्रेनिंग लेने वाले ने पूछा, “और अगर सर जवाब न "हाँ" हो और ना ही "ना" में तो?

ट्रनिंग कुछ समय के लिये टल गई।

लख्मी

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