Monday, August 29, 2011
एक बार घर लौटा
"एक बार घर लौटा, ऐसा लगा की हर रोज़ ही घर लौट रहा हूँ।" जहाँ मैं पिछले मे जाना नहीं चाहता हूँ और आगे को बांधा हुआ नहीं है तो रोज़ घर लौटकर जाना मेरे लिये क्यों है?
क्या ये थकावट है? है, लेकिन वो मेरे शरीर का होता है। मैं शरीर से थकने को मेरे थकने का नाम नहीं देना चाहता। जब मैं थकने को सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में एक शख़्स का चेहरा आता है। जो मेरे पास साइकिल से 8 किलोमीटर का सफ़र तय करके आते थे अपना कुछ सुनाने के लिये और जब मैं उनके सुनाने के बाद मे उनसे कुछ सवाल करता या चुप भी रहता तो वे मुझे देखते रहते। कभी अगर कुछ लिखने को कहता तो तभी तुंरत लिखने बैठ जाते। तब लगता है थकान शरीर से ही है शायद, लेकिन उसमे रंग किसी और अहसास का भरा जा सकता है।
फिर आना - जाना, रास्ते लम्बे होने के अहसास से भी दूर हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन के किन हिस्सों मे जाऊं जो मुझे इस तरह की थकावट मे ले जाये? मगर उसमें मुझे वे नज़र आता है जो मेरे मन लगे काम से जुड़ा है। इससे बाहर नहीं है, पर विनोद जी लगते है जैसे मन और बेमन से बाहर किसी खोज़ मे है। जो मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं।
मेरे पिताजी अक्सर कहते थे अपने काम करने के समय में की "मैं कभी घर पर बैठूगां नहीं - अगर बैठा तो अपने काम से लेकिन अपनी उम्र से नहीं" आज ये बात सोच पा रहा हूँ। मेरे साथी ने एक बार कामग़ार शख़्स के बारे कहा, “कोई शख़्स अपने काम से वापस लौटता है - थका हुआ लेकिन दूसरे दिन फिर से तैयार हो जाता है उसी शहर मे जाने के लिये।"
ये दोनों बाते एक दूसरे के लिये बिलकुल भिन्नता में है। पिताजी जब वापस आने को बोलते हैं तो वापस आना उनके लिये घर लौटना नहीं है। बल्कि वे वापस जाने को भी सोचने की कोशिश करते हैं। और मेरा साथी - वापस जाने को सोचा है आने को नहीं। घर लौटना उसको तैयारी देता है अगले दिन की। उस चिड़िया की तरह है जो उड़ाने भरकर टहनी पर बैठी है। सुस्ताने के लिये नहीं बल्कि कहीं जाने के लिये। पर उसका टहनी चुनना, समय चुनना, आसपास चुनना, थकान चुनना उसके वहाँ पर आने मे निहित है। वे लौटती नहीं है -
वापस आने में परिवार उनके लिये बहाना नहीं है। काम उन्हे वहाँ पर फैंकने के लिये नहीं है। शरीर के लिये कोई आरामदायक जगह नहीं है। वापस आना मतलब उनके लिये उस रूप मे आना है जो इन सब बेरिकेडो से बनकर लोहा लेता है जीने का। बहस से बना है, जीने की जिद्द से बना है -
मैं जब ये सोच पाता हूँ तो उनका घर आते ही बाहर निकल जाना समझ मे आता है या कभी ना आना, देर से आना, किसी के साथ आना ये समझ मे आने की कोशिश करता है।
मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे करने में क्या है? मैं जो कर रहा हूँ उसमें कौन है? क्या वे मुझसे ताल्लुक रखता है तो उसमें मेरे इर्द-गिर्द का क्या रोल है और अगर इसमे मेरा इर्द-गिर्द है तो मेरे होने का क्या रोल है। परिवार हमेशा कहता रहा है, “हमारे लिये कुछ मत कर लेकिन खुद के बारे मे सोच" मगर ये खुद मे कौन-कौन है?
मैं चले जा रहा हूँ किसी तलाश में - रोज निकलता रहा हूँ लेकिन शायद कोई देखे - जाने हुए पते को ढूँढने। ये तरीका मुझे कहाँ ले जायेगा? से मुझे डर रहता है। मैं उसी जगह पर पहुँच जाऊंगा जहाँ के बारे मे मेरे पहले कई लोग जानते आये।
एक बार मैनें अपने एक दोस्त ने पूछा, “तुने कभी अपने लेकर सोचा है?”
वो बोला था हाँ सोचता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे तुने अपने को लेकर सोचा है। मैं अगर तुझसे ना मिलूँ, तेरे घर ना आऊँ, तेरी बातें ना करूँ और अपने घर पर भी कभी न लौटूँ, दिन को बाहर निकलो और शाम मे वापस आ जाओ।क्या ये जिन्दगी होती है? इससे तो अपने को सोचूँ ही नहीं तभी अच्छा है।
जब वे ऐसे बोलता था तो लगता था कि कोई बड़ी कल्पना लेकर जीने की बात करता है। वे अपने बारे मे नहीं, उस तरीके के बारे मे बोल रहा था जो मैं और वो साथ और एक तरह से जीते हैं। ये वाक्या मुझे सोचने पर मजबूर किया की मैं अपने शरीर को किस लिबास के थ्रू देखने कि कोशिश मे हूँ।
मैं कई लोगों के साथ कहीं से चलकर आया हूँ। जो शायद कहीं चले गये हैं - ये कहीं उन्होनें खुद से तय किया होगा। मगर अब सोचता हूँ ऐसी जगह पर जाकर खड़ा हो जाऊँ जहाँ पर मेरे जैसा कोई है या नहीं का कोई टेंशन नहीं हो दिमाग में। वहाँ पर बहुत भीड़ है, हर कोई एक दूसरे को देख रहा है, कुछ पूछने की कोशिश कर रहा है। कोई किसी को नहीं जानता मगर फिर भी मिलने की कोशिश मे हैं। लगता है जैसे वे सभी मेरे साथ ही आये हैं उन्हे मैं ही लेकर आया हूँ। मगर अब आकर मैं उनके साथ मे अनुभव बाटूँगा नहीं, अपने यहाँ तक आने की कहानी नहीं सुनाऊँगा। वहाँ कई रास्ते निकले हुए दिख रहे हैं -
लख्मी
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