पांचवा दिन - ओखला
डब्बा फेक्ट्री जो ओखला में है, वहां पर सुरेश नाम का एक शख़्स फैक्ट्री मे मोटे तौर पर मजदूर के ऊपर काम करता है। उनका दिल्ली मे आने का एक खास तरह का मक्सद था, पर वो उस मक्सद मे कामयाब नहीं हो सका लेकिन उसके बाद उन्होने कोशिस करना नहीं छोड़ा, काम की तलाश मे उनको ओखला में उनके जिले का एक शख़्स मिला। उसने ओखला मे काम करने वालो के बारे मे बताया और कहा की आप को मैं कहीं फिट कराऊगां। यहां पर वही जमता है जो जो कुछ कलाकारी जानता हो, यानी कोई ज्ञान होना जरूरी है। उसने सुरेश को अपने जीजा के साथ डब्बा बनाने की जगह मे भेज दिया जहां पर हर रोज छोटे और बड़े गत्ते कि डब्बे बनते थे। डब्बे बनाना सुरे को आता नहीं था। शुरूवात मे वो कारीगर के साथ उसकी मदद करने के काम मे लगा, जिसे हेल्पर कहते हैं।
500 किलो के कुछ पेपर को रोज मशीनो मे डालकर काटा जाता था। फिर पेस्टिंग कर उन्हे गोंध से चिपकाने के बाद कटिंग की जाती। तरह तरह कि मशीनो के सातह उसको रहने की आदत सी पड़ गई। वो रोज ओखला से, संगविहार जाता और अकेला ही वो अपने गांव से यहां संगमविहार मे रहता था। मगर उसका सारा धचयान अपनी मशीनो मे लगा रहता। 12 घंटे के काम के बाद भी उसका मन नहीं भरता था। उसका लगता था की वो घर आने के बाद भी वहीं उन्ही मशीनों मे है। सिखने के इस दौर मे और कमाई के सफर में उसके सपने तक बदल गये थे। शहर और उसकी आवाजों के साथ मशीन का शरीर और आवाज उसके कान मे हमेशा गूंजती रहती।
शुरू मे जब वो मशीनो मे रहता था तो उसका कैंद्र मशीनो के पुरजों पर छाया रहता था। वो उन्हे काटने और बनाने के काम को देखता रहता था। मशीन कैसे चलती है और काम कैसे करती है वो इसको बडी ध्यान से देखता और जब मालिक चला जाता तो मशीनो को स्टार्ट करके उन पर काम करने की कोशिश करता। ओखना वो साइकिल से ही जाया करता। अब बस में चड़ना - उतरना उसे परेशानी देने वाला सफर लगता। लेकिन बाकी मजदूरों के साथ काम करते करते उसे इसकी आदत हो गई थी। वो जब यहां आया था तो उके रहने का कोई इंतजाम नहीं था। और फैक्ट्री के मालिक को कोई ऐसा बंदा चाहिये था जो दिन मे काम भी करे और रात को फैक्ट्री मे रूक कर रात मे भी काम करवाना हो तो कारीगरों को कंपनी मिल जाये। ये काम भी हो जाये। सो सुरेश को काम की सारी शर्ते मंजूर हो गई थी।
सुरेश नया था मगर उसके काम करने का जूनून बहुत पहले का था। काम चाहे जो भी हो वो कोशिस करने से क्या नहीं हो सकता। वो इसे मानकर जीता था। वो ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। मगर सेंटीमिटर, स्क्यर, मेप का उसे आइडिया भी हो गया था। उसके बाद फैक्ट्री मे एक शख़्स काम करने के आया। वो था मंगलू जो कभी गलियों में कबाड़ जमा करता था और गोदाम मे बेच आता था। मंगलू का अपनी अदा है। वो अपने काम को खुद करता है। नियम है कि कब क्या करना है और मोबाइल पर गाने सुनने का सुख बस इस मे अपनी दुनिया बनाया है और उसे बेशक जीता है। वो स्टींग मशीन पर ज्यादा काम करता है। जो मेप, द्वारा बनाई गये गत्तों को सही करती है। इस तरह की कुछ और भी मशीने है। जैसे लॉटरी पेटींग कटिंग, चैन लौटाल जिस पर सारे मजदूर काम करते हैं। घंटो का काम मिंटो मे होता है।
ये कोई अनोखी दुनिया नहीं है, असल मे कोई दुनिया अनोखी नहीं होती, उसे अनोखा बनाया जाता है। जो सुरेश, मंगलू और उनके साथ रहने वाले वो लोग जो किस दुनिया से आये है को कोई नहीं पूछता, बस जो सामने है उसे देखकर हंसते हैं जिन्दगी को।
राकेश
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