Tuesday, October 4, 2011

उनको पकी नज़रों से नहीं देखा जा सकता

15 ब्लॉक मार्किट – एक कमरा जहाँ पर सितारे बिखरे पड़े थे और कोई नहीं था। आशा वेदप्रकाश जिनसे मैं मिला। ये अभी बीए पास कोर्स कर रही हैं। उम्र ज्यादा नहीं है, मगर हर बार पढ़ाई छूट जाती है लेकिन इस बार इन्होने छूटने नहीं दिया। पीस बनाती हैं, घर-घर देकर आती है, काम के लिये औरतों को कनवेंश करती है और उनके साथ काम करती है। हर रोज़ पीस लेने ये सुबह निकलती है और साथ ही जो हर दिन के हिसाब से काम करते हैं उनका पैसा लाती है और जो महीने के हिसास से काम करती है उनका हिसास लिखवाकर लाती है। हर रोज़ सबके कहने के अनुसार ये काम लाती है।

पूछने वाला, "हमें कब लगता है कि अपने समय को अब हमें खुद से बांधना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “ जब लग रहा हो की अपने लिये कुछ भी निकालना नहीं हो पा रहा है। कितना भी कोशिश करलो लेकिन निकालना मुश्किल हो रहा हो तब मन किलसता है- गुस्सा भी आता है मगर इसी के अन्दर कोई काम अच्छा हो रहा हो तो लगता है कि अपने लिये टाइम क्यों चाहिये? पर हर वक़्त तो नहीं ऐसा नहीं चाहिये। कुछ पाने की खुशी ही सब कुछ नहीं होती है ना! अगर यूंही समय को नहीं खुद से बांधा गया तो एक ही चीज़ को करने में रह जायेगें आगे कुछ नहीं होगा।"

पूछने वाला, "समय के बंधन के बाद मे खुद की कल्पना किस रूप या प्रकार मे करने की कोशिश उभरती है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं ये सोचती हूँ की मेरी क्या पहचान होगी? मुझे लोग कैसे जान पायेगें? मैं चाहती हूँ कुछ करूँ, कुछ ऐसा जो मैंने किया हो। मेरे परिवार मे किसी ने ना किया हो। अभी मालूम नहीं है मगर करना चाहती हूँ। जब हम समय के बंधन से बाहर है या समय को खुद बांध रहे हैं तो ख्याल उड़ने लगते हैं। तब तो आप कहीं भी जा सकते हो। इन्ही के बीच में मैं कल्पना करती हूँ कि लोग मेरे पास आये मुझसे बात करने और मैं लोगों के पास जाऊँ। बस मेरे आसपास माजमा जमा हो।"

पूछने वाला, "कब हम किन स्थितियों से अपने आपको एकांत और असंख्य में देख पाते है? उस एकांत में होना या असंख्य में होना क्या होता है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं हर रोज़ के झमेलों से दूर जाना चाहती हूँ लेकिन इनमें मुझे रहना पड़ेगा। मुझे एकांत पसंद नहीं है, अगर वे खमोशी मे जाये तो। इतना शोर है आसपास में क्यों मैं दबी सी रहूँ। क्यों ना बातें करूँ, दूसरों की सुनूँ। लेकिन कभी लगता है कि जब हमें इन्ही झमेलों से, घरेलू कामों से और इसकी बंदिशों से नफरत होने लगती है तब लगता है कि एकांत हो। इनसे बाहर निकला जाये। किसी ऐसी जगह पर जाया जाये तो इन सबसे बाहर हो, इतनी बाहर नहीं की वापस ना आया जाये लेकिन बाहर हो। थोड़ी दूरी पर।"

पूछने वाला, "हमारे लिये कोई जगह बनाकर देगा तब हम जीना तय करेगें या हम भी कभी बनाने वाले बनेगें? कब ये सोच आती है कि अब हमें बनाने वाला बनना है?”
आशा वेदप्रकाश, “अब तक तो ऐसा होता आया है कि हमारे लिये किसी ने जगह बनाई है। घर मा-पिता ने बनाया और बाकि सब सरकार ने बनाया। लेकिन एक जगह है जो किसी ने नहीं बनाई बस बन गई। जैसे मेरी मां का घर, वे किसी को बुलावा नहीं देकर आई फिर भी हर रोज़ घर में कई औरतें आकर बैठती है और फिर शुरू होता है दिन। वे सब ऐसे बातें करती हैं जैसे फिर कभी नहीं मिलेगी। अगर किसी ने बात शुरू करदी तो आज ही खत्म करके जायेगी चाहें कितनी ही देर उसे हो जाये। और मेरी मां भी इसी मे खुश रहती है।"

पूछने वाला, "कब लगता है कि हमें अपने याद और अतीत के बाहर जाकर जीना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “हम अपने बारे मे कब तक बता सकते हैं? हर वक़्त तो यह नहीं किया जा सकता। जब तक हम यह नहीं समझ सकते तो क्या अपने आने वाले समय को सोच पायेगें? बिलकुल नहीं। जब मैं अपने बीते समय को सोचती हूँ कुछ नज़र नहीं आता। लगता है जैसे आँखों से मिट गया है। जब उससे बाहर निकलकर देखती हूँ तो कुछ साफ तो नहीं दिखता लेकिन फिर भी लगता है जैसे अब जाया जा सकता है।"

पूछने वाला, "इसमें "तलाश" क्या है? तलाश को किस तरह समझे? उसमें कितनी जगहों का असर मौजूद रहता है?”
आशा वेदप्रकाश, “तलाश तो होती है, बिना तलाश के तो कुछ नहीं है। कौन जितना वो कर पाया है उसमें खुश रहता है? मैं तो खुश नहीं रहती है। तलाश तो हमें एक्टिव रखती है। ऐसा लगता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। महज़ अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने साथ कई औरों के लिये। तलाश दो चीज़ों से तो बनी होती है - पहली : अपने लिये और दूसरा : अपने से किसी और के लिये।"

पूछने वाला, “अगर किसी चीज़ का अंत का पता न हो तो वे जीवन में जिन्दा कैसे रहती है?”
आशा वेदप्रकाश, “तभी तो वो जिन्दा है, अगर अंत हो गया तो समझो वो गई। वो जिन्दा रहती है ऐसे की उसे कुछ और नहीं चाहिये। वे हर रोज़ आपके सामने आकर खड़ी हो जायेगी। लगेगा जैसे कुछ बोल रही है। लेकिन शायद हमें समझ मे नहीं आता। रोज़ उससे मिलकर जाओगे, शाम को आकर मिलोगे, अपने साथ लेकर जाओगे और वापस भी लेकर आ जाओगें मगर वो मरेगी नहीं।"

लख्मी

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