Monday, July 25, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

तेज आंधी थी। कोई भी चीज़ जमीन पर नहीं थी। दीवारों पर चिपके पोस्टर फड़फड़ा रहे थे। कोई उन्हे फिर से चिपकाने वाला नहीं था। लुढ़कती चीजें अपने से भारी सहारे से टकराकर वहीं पर जम जाती। कोई गा रहा है। उसकी तेज आवाज़ आंधी के साथ बह रही है। कभी लगता है जैसे वे बहस कर रही है। आंधी को अपने काबू मे कर रही है। आंधी के बीच से निकलते कई लोग उस आवाज़ तक जाने के लिये भटक रहे हैं। हर किसी को जैसे उसके पास जाने की तलब है। वे कभी अपने अलाप पर होती तो कभी उस नमी मे जैसे वे आंधी को पी गई है। हर कोई उसके साथ अब गाने लगा है। आंधी से लड़ने के बहाने के जैसा। कोई किसी को देख नहीं सकता। सब जहां खड़े हैं वहीं पर रूक गये हैं। वहीं से उस आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ को भिड़ा रहे हैं। कभी कोरस बन जाते हैं तो कभी जुगलबंदक। समा में आवाज़ें नहीं है, किसी एक तार मे खो गई हैं। एक हो गई है। आंधी की धूल छटने लगी है। पूरा शहर एक ही जगह पर खड़ा है। मगर बिना किसी को पहचाने की कोशिश मे।


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एक हूजूम सड़क से निकल रहा है। किसी मदमस्त हाथियों के झुण्ड की तरह। हर किसी के पास एक तस्वीर है। हर तस्वीर मे कोई नहीं है। जैसे जगह उनके साथ उठकर कहीं जा रही है।

कोई छूट गया मगर लगता नहीं है कि छूटा है। वो यहां रह गया मगर लगता नहीं है कि रह गया।
वे यहां का हो गया मगर लगता नहीं है कि वे यहां का हो गया।
वे यहां कुछ देर रूकेगा मगर लगता नहीं है कि कुछ देर रूकेगा।
वे यहां बसेगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां बसेगा।
वे खत्म होगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां समाप्त होगा।

वे समाप्ति से बाहर होकर आया है। वे कहीं भी जा सकता है।

हूजूम अपने साथ जो लेकर गया है उसे कहीं ज्यादा वे छोड़कर गया है।


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बंद बोरे सड़क के किनारे किसी एक जगह पर पड़े। जिन्हे खोलकर देखना किसी के बस का नहीं है। हर रोज़ वहाँ पर कभी तीन तो कभी दर्जनों के हिसाब से छोटे बड़े बोरे कोई न कोई फैंक ही जातान जा रहा है।

लख्मी

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