मीलों का सफ़र करके घर लौटा, मैं जहां लौटा वो घर नहीं था।
वापस उसी रास्ते पर गया, मैं जिस रास्ते को लौटा वो रास्ता नहीं था।
मैं कुछ देर चला, मैं कुछ देर रूका, मैं कुछ देर ठहरा, मैं कुछ देर अटका, मैं कुछ देर भटका
फिर मैं घर को लौटा, मैं जहां लौटा वो घर था
मगर मैं "मैं" नहीं था।
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कुछ भगदड़ मची थी। लोग एक दूसरे से टकराने के लिये तैयार थे। हर किसी को टकराने के अहसास था। पर, टकराने वाले से अंजान थे। भीड़ मे होने के बाद भी भीड़ से कोसों दूर थे।
कोई सड़क के बीच मे खड़ा पैगाम बांट रहा था। किसी के पास उसे सुनने के वक़्त नहीं था। मगर पैगामों के मनचले भागमभाग मे वे सब फंसे थे।
वो हर चक्कर पर अपने हाथों से एक पन्ना उड़ा देता। कई पन्ने पूरी सड़क पर बिखर रहे थे। उन पन्नों को पकड़ने की कोई कोशिश भी नहीं कर रहा था पर वे जानता था कि सब अपने नाम का पन्ना तलाश रहे हैं।
कुछ देर वो यूंही पन्ने लुटाता रहा। फिर कई कोरे पन्नें सकड़ पर ही चिपका कर चला गया।
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बेइंतिहा धूंआ छाया है। रोशनी कभी उसे छेद देती तो कभी उसके पीछे किसी आशिकी जोड़े की भांति गुपचुप कुछ कहती। अचानक से कोई उसमे से निकल आता। कोई गा रहा है, कौन है ये पता नहीं। मगर उसकी आवाज़ में धूंएँ के पीछे जाने की लरक पैदा की हुई है। हाथ डालकर कुछ निकालने की तड़प ने धूंए को खतरनाक पौशाक से बाहर कर दिया है।
“मैंने अपने जीवन से कुछ नहीं दिया तुम्हे। तुम ही मेरे से हमेशा कुछ मांगते रहे। जब तुम जिद् करते थे तो मैं डर जाया करता था। मैं छोड़े जा रहा हूँ वो सब डर और उनमे छुपे वो तमाम किस्से जो तुम्हे तुम्हारी मांगी हुई चीज ना देकर कोई बात बता दिया करता था। वो तुम्हे फिर से शायद वही दर्द देगीं लेकिन मेरे उस डर का अहसास जरूर करवा पायेगीं जो मैंने हमेशा महसूस किया है।"
धुंआ बहुत बड़ गया है।
लख्मी
3 comments:
दो मिनट के शहर में ....
किसको फुर्सत है की वो
कुछ सोचे किसी के लिए
और अगर
कोई सोचता भी है तो
उसे ये जहान
पागल कहता है ....
इस भागते दो मिनट
के शहर में
किसी से हमदर्दी
किसी का साथ देना
एक मुसीबत बन जाता है
इस लिए ...
यहाँ ...हर कोई
खुद में ही
मस्त कहलाता है
माना...साथ दिया
दिया तो दिया ..
किसी का क्या जाता है
पर नहीं ....
वो तो ...किस्सा ही
सारे आम बन जाता है
इस दो मिनट के शहर
में ...उठने लगती है
उंगलियाँ अपने ही वजूद पर
हर कोई ...झूठा किस्सा
सच्चा बना के सुनाता है ....
इस दो मिनट के शहर में ...................
मैं...मैं ना रही ....
खो बैठी ...खुद को
बेकार की बातो में ...
(अनु)
इसे रखे अपने ब्लॉग में मेरे नाम से......
बहुत खूब अनू
इसमे लगा कि जो शहर के गर्द से बाहर निकलकर जब लौटता है तो वे थक कर चूर होने के लिये नहीं रहता। बल्कि तैयार होता है फिर से - एक शहर बनाने के लिये।
इतना वक़्त देने के लिये और अपने शब्द बांटने के लिये शुक्रिया
जरूर रखेंगे।
very nice
http://www.ganganagarpr.com
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