Monday, June 27, 2011

इसकी कोई आकृति नहीं है








इसकी कोई आकृति नहीं मगर फिर भी किसी संगीत की तरह इसके भीतर अनेकों तार एक दूसरे से हमेशा टकराते रहते है, रहे हैं।

इन बेजोड़ तारों के साथ बजने वाला संगीत इस कठोर ढांचे की उन कग़ारों को छू जाता है जिसका रूप बिना चेहरे के है। किस कण से इसके भीतर की जमीन को महसूस किया जा सकता है। संगीत से, हलचल से, गूंजल होती दृष्टि से, रफ्तार से, ट्रांसफर होती तीव्रता से।

मैं उन सभी दिशाहीन रूपों से खुद को कभी उलझा तो कभी दूर पाता रहा हूँ। कभी बिना किसी शौर के तो कभी बिना किसी शांति के। ये हर दम मेरे अन्दर के किसी हिस्से को सक्रिये बनाता रहा है। ये मेरे से बाहर है, मगर मेरे अन्दर को बनाता रहा है नियमित। ये मेरा रूप नहीं है मगर मेरी छवि इसकी रहनवाज़ है।

समय के बिना और समय के पुनर्चित मे :

लख्मी

1 comment:

prabhat said...

बेहद खूबसूरत शब्दों का प्रयोग.....राकेश जी और लख्मी जी, आपका ब्लॉग वाकई बहुत खूबसूरत है...