शहर के बीच ही किन्ही स्पर्श को टटोलटी सांसे अपने ही शरीर की गिरफ़्त में है। ये आजादी नहीं मांगती इनकी मदहोशी किसी सीने में बसे दर्द की आवाज़ से जान सकते हैं।
चीजों को अपनी कल्पनाएँ करने दों वो भी किसी के पुर्ण:निर्माण में जाने की मांग करती हैं। जीवन उनके लिये भी स्पेस चुनता है। चीजों का क्या डर होता है? डर होता क्या है? जिसे जीने के रूप विभिन्न है।
राकेश
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