Thursday, June 9, 2011

जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वरुप



धुंधली रेखाएं

शहर आज क्या है जिसमें शामिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है? जो चुम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खींचती है। उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के परीवेश में होती है।

कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता है। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंधली रेखाएं माहौल में विराजमान रहती हैं। मन की चैष्टायें धूप की तरह अस्तिव में बिख़र जाती हैं। कोई शायद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगी में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास करता है। पूर्ण क्षमताओं से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिलाकर बातें करती हैं।

घूंघट से देखती वो (बदमाश ) नजरें जो किसी के रूप को चुरा लेने की फिराक में रहती हैं या किसी कलाकारी में व्यस्त हाथ जो किसी के शक़्ल-सूरत को गढ़ने के साथ, अपना वज़ूद गढ़ते चले जाते हैं। ये इशारों की वो रेखाएं है जो हमारे चारों तरफ खिंची हैं और इसके बीचो-बीच हम हैं जिनमें हम अपने निजी के दायरे को जीते हैं।

उसे साझा करने के लिये शहर में निकल पड़ने की जिद्द को लिये समाज के बँटवारे को बिना काटे हम अपनी कतारों से बाहर झांक कर देखें की कौन-कौन हमारे संम्पर्क में है।

हम निजी जब लाते हैं तो क्या दिखता है शहर में? ये सवाल ही अपने को किसी तत्व से बिल्ट कराता है। अपनी तस्वीर, अपनों के साथ अपनी आवाज़ें, आँधी मे आने वाली रातें जो सुबह का इंतजार नहीं करती। वो शिद्दत करती हैं उस विराट मौज़ूदगी की जो शहर के किसी कोने से उठती हैं और ख़बरिया चैनलों की भांती अपनी छवि लोगों से मुखातिव करवाती हैं।

बताने वाला और सुनने वाला दोनों शहर में कहां का स्पेस तलाश रहे हैं। शहर जो नक्शोवाला गुच्छा है और उसमें कई अदखुली गुत्थियाँ हैं जिसमें कोई आवाज़ लिपटी हैं और कोई सड़क तो कोई चीजों का अपने वज़ूद के साथ होने का अहसास करवटें ले रहा है।


राकेश

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