Thursday, July 15, 2010

एक चुन्नू सी दुनिया

वैसे तो कहते हैं कि ये दुनिया बहुत बड़ी है, विशाल है और बेआकार है। लेकिन उसके बाद भी मिलना - बिछड़ना लगा रहता है। साथ ही साथ ये भी कहते हैं कि हर कोई अपनी दुनिया अपने साथ लिये चलता है और एक वायव्रेश्न छोड़ता चलता है जो शहर मे एक चुम्बक की भांति काम करती है और उस दुनिया को विशालता मे बदलती चलती है। विशालता जो न जाने कितनी ऐसी सांसों और धड़कनों से बनी होती है जिसका रिश्ता और नाता क्या है वे तक नाममेट होता है। बेअसर होता है, बेनाम होता है और महीम होता है।

मगर एक असर जो मुझे अक्सर बहुत महसूस होता है की विशाल दुनिया जब हम कहते हैं तो असल में किसी एक दुनिया का जिक्र नहीं करते या करते हैं तो उसमे अनेकों दुनियाएँ जी रही होती है, पल रही होती है। हर कोई अपनी कोई विशालता तलाशने का जिम्मा उठाकर कहीं दूर जाना चाहता है। किन्ही और रिश्तों, चेहरों मे खो जाना चाहता है, किन्ही और दरवाजों पर दस्तक देना चाहता है। मगर क्या हम जानते हैं कि ये असलियत मे होता है?

पिछले दिनों अपनी एक दोस्त से बात कर रहा था। वे लिखती हैं, वे सपनों को भी अपनी प्ररोफाइल ( परिचय ) में जगह देना चाहती हैं और उन लोगों को देखना चाहती है जिनको सपनों मे जगह नहीं मिलती। यानि अपने मन को आजाद रखकर दोस्त बनाना चाहती है।

उसके साथ बातचीत में रोमांचक था की तलाश अपने अन्दर जाने की नहीं है बल्कि अपने से बाहर "किन्ही और" के बीच में उतर जाने की है।

क्या दुनिया वही होती है जो हमें मिलती है या दुनिया वो होती है जिसे हम बनाते हैं? ,मिलना और बनाना क्या है? एक वक़्त मे लगा जैसे मिलना हमें समाजिक नितियों मे ले जाता है लेकिन फिर भी उसमे एक उर्वर स्पेश होता है। कभी - कभी खुद बनाना भी उस चुनाव की तरह हो जाता है जो अपने बेहद नजदीक होता है। नजदीकी हर तरह की सूरत मे हो सकती है लेकिन बनाना और चुनाव दोनों एक साथ चलते हैं।


माना की इस दुनिया का तैराकी सफ़र बहुत रोमांचक होता है। लेकिन एक बात दिमाग में ठहरती जाती है - यहाँ पर हर कोई अपनी दुनिया को विशालता में ले जाना चाहता है लेकिन इसे विशाल करने की प्रक्टिक्स क्या है?, यानि अभ्यास क्या है?

लोग जो अपनी दुनिया बनाते हैं उसमें साथी चुनने का अभ्यास क्या है? एक बार तो लगता है कि जैसे चुनाव ही हमारी जिन्दगी का सबसे हसीन और सबसे खतरनाक अभ्यास भी है। इसमें बँटवारें का वो पहलू छुपा है जिसको हम अपने बेहद नजदीक लेकर जीते हैं।

अपनी दोस्त से बात करते हुये एक रोमांचक स्थिती पर पहुँचा - मैं उसके परिचय को पढ़ता हुआ उसकी तस्वीरों को भी देखने लगा। कुछ देर के बाद मे उसमे बहुत अटपटे सवाल किये।

उसने लिखा, “आप कौन है?”
मैनें लिखा, “मैं लख्मी हूँ"
उसने लिखा, “हाँ, ठीक है लेकिन आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लड़का हूँ।"
उसने लिखा, “वो तो ठीक है मगर आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लेखक हूँ दिल्ली मे रहता हूँ।"
उसने लिखा, “आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं एक हिन्दी ब्लॉग चलाता हूँ अपने एक साथी के साथ।"
उसने लिखा, “ये सब तो ठीक है लेकिन आप कौन हैं?”
मैंने लिखा, “मैं फेसबुक में नये संवाद करता हूँ, दोस्तों की फोटो के साथ खेल करता हूँ।"
उसने लिखा, “तो मैं क्या करूँ, आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं आपके फेसबुक के घर मे एक बिना किराये का पेइंगगेस्ट हूँ।”
उसने लिखा, “ आप मुझे जानते हैं?”
मैनें लिखा, “हाँ आपके लिखित परिचय से वाकिफ हूँ।"
उसने लिखा, “बिना रिश्तों के किसी के दरवाजे से अन्दर दाखिल नहीं होते।"
मैंने लिखा, “तो क्या बिना जान – पहचान के कोई रिश्ता नहीं होता?”
उसने लिखा, “नहीं, हम अपने को सोचते हुये अपना घर सजाते हैं।"

मैनें लिखा, "हम बिना चुनाव के अपनी दुनिया को बड़ा नहीं कर सकते? घर से बाहर आये मगर वहाँ पर भी दोस्त अपनी मनमर्जी के क्यों चुनते हैं?”
उसने लिखा, “उसी को तो हम अपने घर मे सोचेगें की जिसको जानते हैं, समझते हैं!”
मैंने लिखा, “पूरी दुनिया को सजाने का अहसास लिये हम अपना कोना क्यों तलाशते हैं? हर जगह आसरा क्यों चुनने लगते हैं?”
उसने लिखा, “अस्पताल में बेड बदलने वाला भी अपना सारा समान लेकर जाता है और वहीं पर रूकना है कुछ समय के लिये, ये सोचकर ही तो अपना ठिकाना तय करने लगता है!”
मैंने लिखा, “आप कौन हैं फिर ये सवाल क्यों पूछते हैं हम? मैं भी तो उसी अस्पताल का कोई शख़्स हूँ जो किसी लाइन, भीड़, पर्चे, रास्ते मे मिला होऊँगा आपको।"
उसने लिखा, “इट्रस्टिंग।"

बातचीत कुछ समय के लिये रूक गई, लेकिन अपना आसरा, अपना कोना और अपना चुनाव ये किस ओर ले जाता है? और उसके निश्कर्ष क्या है? अगर "साथी" उसका निश्कर्ष है तो उसमे संभावनाये क्या है और नकारात्मक चीज़ क्या है?

एक वक़्त मे लगा की हमें साथी, संवादक, पाठक और सलाहकार को दोबारा से सोचना होगा।

लख्मी

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