हफ्ते
मे शायद ही कोई ऐसा दिन होता
होगा जिस दिन बिमला जी घर में
कुछ खोज ना रही हो। अक्सर पलंग
के अंदर से चावलो के कट्टे में
रखे बर्तनो को निकालकर वे
घण्टा भर उन्हे देखती व खकोकरती
रहती हैं। कटोरियां अलग,
गिलास अगल, चम्मचे
अलग, थालियां,
लोटे सब अलग। साथ ही
पीतल, सिलवर और स्टील
अलग। उनके थैले में बर्तनों
के साथ साथ चुम्मबकों के कई
छोटे छोटे पीस पड़े रहते हैं।
वे सबके अलग अलग चिट्ठे बनाकर
उन्हे गिनती रहती है। अपने
कोई हिसाब लगाकर उसे वापस उसी
बोरी मे बड़ी सहजता से रख देती
है। मगर यह देखा और खकोरना
यहीं पर नहीं थमता। यहां से
शुरू होता है। हर वक़्त उनके
कान उस आवाज़ को सुनने की लालसा
करते हैं जिसमें कुछ अदला-बदली
के ओफर हो। कुछ लिया जाये और
कुछ दिया जाये। वो इस बात पर
हमेशा कहती है, “यह
सारे बर्त बेटी की शादी में
काम आयेगें। उसके कन्यादान
देने के लिये।" उनके
घर मे सारे बर्तन ऐसे ही किन्ही
नाम से रखे गये हैं। सबके घरों
मे गुल्लके होती है मगर बिमला
जी के घर मे यह चावलों के कट्टे
ही उनकी गुल्लके थी। जिसमें
पैसे नहीं बर्तन थे।
आज
बी कुछ ऐसा ही दिन थास। होली
चली गई है। पर कई ऐसी चीजें
छोड़ गई है जिनका उपयोग किया
जा सकता है। उनके घर मे कुछ भी
बेकार नहीं है। डिब्बे,
प्लास्टिक, लोहा
और यहां तक की कपड़े। एक भी
होली खेला कपड़ा ऐसा नहीं था
जो बेकार हो। सुबह ही उन्होने
एक एक कपड़ा एक कोने मे जमा कर
दिया था। कमीज़, पेन्ट,
सूट, साड़ी,
टीशर्ट, पजामा,
बनियान, कच्छे
और टोपिया यहां तक की जूते भी।
अलमारी खोलकर सारे कपड़ो को
बाहर निकाल कर उनमे कुछ तलाश
रही है। तलाशते तलाशते बात
भी ऐसी कहति है कि किसी को बुना
ना लगे। "चलो भई
आज अलमारी मे से गर्म कपड़े
बाहर निकाल दिये जाये और पतले
कपड़ों की जगह बनाई जाये।"
कई
तो ऐसे कपड़े है जो पहने नहीं
जाते मगर फिर भी रख रखे है।
इनका क्या होगा? एक
एक कपडा हाथ मे उठाती और कहती,
“यह नीली पेन्ट पहनता
है कोई?” पहले इस
तरह की आवाज़ मारी जाती। एक
बार, दो बार, तीन
बार और अगर कोई नहीं सुनता तो
वो पेन्ट या कपड़ा घर से विदा
करने की सूची में डाल दिया
जाता।
उन्होनें
जैसे ही यह आवाज़ लगाई तो छत
पर से उतरते श्याम लाल जी बोले,
“उसे रख दे अभी, वो
सही है।"
यह
सुनकर वे बोली, “पहनते
तो कभी देखा आपको मैंने?”
क्योंकि कपड़े में
वो बात है कि एक पतीला ले सकता
है।
यह
सुनकर एक दम से श्याम लाल जी
बोले, “तेरे को पता
है, कुछ कपड़े खास
मौके के लिये बने होते हैं।
इसका मौका नहीं आया है अभी।"
वे
पेंट को उलटते पलटते बोली,
“पता नहीं यह खास मौका
होता क्या है?”
श्याम
लाल जी चहक कर बोले, “तू
अपनी साड़ी क्यों नहीं देती?”
गुस्से
में उनकी ओर देखती हुई बिमला
जी बोली, “बस, जब
देखो मेरी साड़ियों के पीछे
पड़े रहते हो। साड़ियां तो
कभी भी घर की किसी भी लड़की को
दी जा सकती है।"
यह
कहती हुई बिमला जी किन्ही और
कपड़ो को छाटने लगी। यह लडाई
तो घर मे अक्सर चलती है। पर
जिन कपड़ो को घर से विदा होना
होता है वो तो होकर ही रहते
हैं। तभी गली में से गिलासों
को टकराने की आवाज़ आई। यह वही
बर्तन वाले हैं जो आजकल आवाज़
नहीं मारते बस कांच के गिलासों
को आपस मे टकराकर आवाज़ करते
हैं।
“ओ
भइया बर्तन वाले रूकयो जरा।"
बिमला जी कमरे के अंदर
से ही चिल्लाई।
एक
आवाज़ दूसरी आवाज़ से चाहे
कितना ही शोर क्यों ना हो एक
दम से कनेक्ट हो जाती है। सुनना
तो आखिरकार सुनना ही है। दरवाजे
पर ही उसने अपने कपड़ो से लदी
पोटली को कांधो से उतार कर रख
दिया। साथ ही सिर पर से बर्तनों
कि टोकरी को भी। हाथ मे पकड़े
बाल्टी और टब को भी उनके सामने
दरवाजे पर ही रख दिया। वहीं
उसकी छोटी सी दुकान अब लग चुकी
है।
बिमला
जी ने कहा, “कितने
कपड़ों मे दोगे भइया यह बर्तन?”
बर्तन
वाला बोला, “कपड़े
तो दिखाईये बहन जी।"
बिमला
जी बोली, “पहले बताओ
तो सही भइया तभी तो निकालूगी
ना कपड़े तो।"
बर्तन
वाला बोला, “टब तो
7 कपड़ो मे दूंगा
बहन जी, बाल्टी 6
मे, छोटे
बर्तन 2 कपड़ो में
एक और कढ़ाई 5 कपड़ो
में। अगर फटे - वटे
ना हो तो।"
बिमला
जी अंदर जाते जाते थोड़ा गुस्से
के अंदाज मे बोली, “हम
क्या पागल है भइया जो आपको फटे
कपड़े देगें।"
बस
बिमला जी ने सारे होली के कपड़े
उसके आगे लाकर पटक कर वहीं बैठ
गई। वो अग एक एक कपड़े को उठाता
और पूरी नज़र भरता। जेब,
जिप, मोहरी,
पीछे का भाग, फॉल,
बटन, हुक,
सिलाई, बाजू,
पट्टी, रंग,
कपड़ा सब का सब एक एक
करके छूकर देखता और पूरी गुंजाइश
करके बोला, “सारे
होली के कपड़े है बहन जी?”
बिमला
जी उसकी तरफ मे नजर गड़ाकर
बोली, “हां भइया वो
तो है। अब नये तो दे नहीं सकते
ना।"
वो
फिर से कपड़ों मे हाथ फिराता
हुआ बोला, “कोई साफ
कपड़ा नहीं होगा बहन जी?
इनपर से तो रंग भी नहीं
उतरेगा और रंग अंदर तक गया हुआ
है। इसे तो उल्टा करके भी नहीं
बनाया जा सकता।"
"अब
मुझे तो पता नहीं भईया। मेरे
जो था वो मैंने दे दिया आपको।
जो पहले पुराने कपड़े थे उसकी
मैंने दरी बनवाली। अब तो यही
है इनमे देना है तो दे दो भइया।"
वो बोली।
वो
एक बार फिर से कपड़ो मे हाथ
घुसाता हुआ बोला, “इनमे
टब तो नहीं दूंगा मैं बहन जी
गिलास ले लो।"
बिमला
जी का मन टब मे ही अटका था वो
बोली, “नहीं नहीं
भइया चाहिये तो टब ही।"
वो
बोला, “तो एक दो
कपड़े और हो या कोई साफ एक पेंट
ही ले आइये।"
ये
सुनकर वो बोली, “अरे
भइया 8 कपड़े दे चुकी
हूँ तुमको।"
बर्तन
वाला बोला, “हां जी
पर सारे के सारे रंग मे हो रखे
है। एक दो कपड़े तो साफ हो ना।"
बिमला
जी बोली, “ठीक है
भइया देखती हूँ।"
वो
अपने और बाकी के कपडों की गठरी
की तरफ चली गई। उन्हे मालूम
होता है कि ये बर्तन वाले हमेशा
ऐसे ही करते हैं तो वे हमेशा
कुछ कपड़ो को पहले ही छुपा
देती है। ताकी बाद मे उनमे से
ला सके। पहले अगर देगी तो वो
उन्हे देखकर और मांगेगे।
उन्होने उन्ही कपडो से एक पेंट
निकाली और उसे लाकर दी। और
सौदा पक्का हुआ। बर्तन वाले
ने टब उनकी तरफ खिसकाया और
सारे कपड़े बांधने लगा।
तब
तक बिमला जी का ध्यान बाकी के
बर्तनों पर जम गया। लोहे की
कढ़ाई चाहिये उस लड़की के
लिये, फ्राइफेन
चाहिये इस लड़की के लिये,
टीफिन चाहिये लड़के
के लिये, बाहरह
कटोरियां चाहिये उसके लिये,
पतीले चाहिये इस मौके
के लिये, पांच बर्तन
सेट चाहिये इसके लिये। उनका
दिमाग ना जाने कहां कहां घूम
रहा था।
उस
बर्तन वाले ने जैसे ही अपना
टोकरा अपने सिर पर रखा तभी
बिमला जी बोली, “भईया
यह बाल्टी कितने कपड़ों मे
दोगें?”
खेल
दोबारा से शुरू हुआ। पोटलियां
फिर से खुलने लगी।
लख्मी
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