Tuesday, June 25, 2013

भाषा कहाँ की ओर ले जाती है


समाजिक और साधारणता के बीच में उभरते दृश्य को बोला कैसे जाये? भाषा बोल नहीं देती। वे साधन बनाती है - चीजो को अभिव्यक़्त करने मे जाती है उतना ही आधार को पुर्नरचित करने में भी जीती है। दोहरा दिया, बोल दिया, दर्ज कर दिया से दूर वे उस बहस के बीच मे खड़ा कर देती है जिसमें स्वयं से निकल जाने की राह है।

वे जो किसी खास व निजी अनुभव को नहीं कहते। समाजिक छवियों से होते हुये सफ़र तक आना - साधारणता के रहस्य के साथ जूझना हुआ। वे जो दिख रहा है या वे जो मौजूद है से दर्ज नहीं बल्कि उसे लिखित रूप मे लाने वाली भाषा उसे किस तरह देख रही है से बयां होती है। छवि वो नहीं है जो दिख रही है - छवि वे है जो देखने वाला दिखा रहा है।

भीड़ के बीच मे रहना :

छवियों को लिखना या आसपास मे अजनबी से दिखते दृश्य को किसी समाजिक छवि मे उतारते हुये जीना जमीनी है। जो तिलिस्म तो बनाता है मगर लिखने वाले व दर्ज करने वाले के स्वयं के साथ टकराव में नहीं रहता। इस दौरान सोच व कल्पना का वास "मेरे से बाहर है" का होकर रहा। इसमें समय, अंशिया जीवनी, क्षणिक दृश्य किसी कथनी की भांति, लघू कहानियों से उभरते और विभिन्नता को बुनने मे चले जाते।

स्वयं के साथ उसका कोई नाता नहीं है - से होकर लिखना भरपूर होता रहा लेकिन समय की छोटी छोटी बुनाइयां विभिन्नता को विशाल बनाकर किसी अदृश्य जमीन को बनाने मे रही। वे जमीन किसकी थी, किसका अंग बनी, किसके बोल रहे जैसे सभी किरदार एक दूसरे से बनते और एक दूसरे को बनाते चले जाते। लिखना असल में खुद की देखी दुनिया का एक ब्यौरा देने के समान रहा। किसी खास केटवॉक की तरह। जिसमें खुद के चलने के लिये जमीन तय कि गई है लेकिन उसके महीन होने के अहसास से। शायद, भीड़ के बीच मे रहना इसके लिये सांस के समान बनकर रहा। कहानियां असल मे कहानियां नहीं, किन्ही सोच व सवाल को सोचने के उदाहरण की तरह थी।

भाषा जहां खुद को व्यक़्त करने के लिये है उतना ही वे बेस लाइन को भी पुर्नरचित में ले जाती है। भाषा देखने को जुबान नहीं देती बल्कि देखने को शब्द दे उसको किसी एक के रूप से बाहर ले जाती है। एक दूसरे से टकराव का खेल खेलती है।




जैसे “सफ़र” को  - लिखना, अनुभव फैक्ट्री से बाहर लिखने की कोशिश, उज्वल होती छवियां काल्पनिक और नैतिक जीवन के बीच की दुनिया को बुन पाई। जिसमें स्वयं की बैचेनी और टेशंन की अस्पष्ट दुनिया का दृश्य था। वे दुनिया कहां स्थित है? कैसी दिखती है? कौन उसका वासी है? उसका पड़ोस क्या है? और उसका शहर कैसा है? का चेहरा उन क्षणिक दृश्य में बसा था। दुनिया को उस आंख से देखना जिसमें दुनिया को बदलकर दोहराने की ताकत है। जैसे ही दृश्य के समय और चलन को बदल दिया जाये तो वे काल्पनिकता की ऐसी लकीरें खींच देता है जिसमें शहर के साथ प्रत्येक कनेक्शन दोबारा से बनने लगते है। वे लकीरें फिर से शहर के बीच जाने को ललचाने लगती है। "सफ़र" एक ऐसी भाषा को ला पाया जिसमें अंदरूनी सफरिंग का अहसास था। स्वयं के सामने खड़े होकर दोहराने के अहसास के समान। हम क्या देख पा रहे हैं? और हम क्या दिखा पायेगें के बीच मे लिखना - किसी ऐसी भाषा की डिमांड करता - जिसमें महज़ बुनाई ही मुकमबलित नहीं रहती बल्कि वे रचती है और पुर्नरचना करती है। जैसे किसी कोरे कागज पर नहीं बल्कि किसी पहले से लिखे जा चुके के साथ खेल हो रहा हो। यहां पर भाषा - जुबान नहीं रहती, वे बहस बनकर टकराव मे रहती है।

क्या हर उस चीज़ को बयां किया जा सकता है जो ठोस रूप ले चुकी है? ये ठोस रूप क्या है - समाप्त वर्जन या कोई दायरा। आखरी बितते छ: महीनो ने इन दुविधाओं के बीच में लाकर खड़ा कर दिया। यहां पर था “लिखना” आखिर इसका मतलब क्या है?
अपनी भीतरी उलझनों को आकार देना या बाहरी चलती दुनिया को पुर्नरचित करना - दोनों के बीच में क्या छवियां है?

आधार के साथ में जूझना और उसे पुर्नगठित कैसे किया जाये? जो नैतिक और सविधान के बीच हैसाधारणत: को गठता है मगर उसको नियमित ठेस में लेते हुये।

सपने,
गिनती से बाहर,
पहचान की विविधत्ता

ये तीन राहों से जब सोचना शुरू किया तो शरीर की थिरकन के साथ वास्ता पड़ा जो इंसानी व जानवर दोनों के समक्ष रहती है।

चलचित्र में साधा‌रणता :
भाषा के साथ असली बहस इन झरोखों से होती दिखी। पल पल में बितता समय जो अपने साथ उस शहर को चिंहित करता है जिसका पिछले से या आने वाले से कोई रिश्ता नहीं है। टूकड़ो सा बिखरा शहरकिसका शहर और कहां का शहर के ढेरो बीज जिनसे एक और शहर की तस्वीर उभरती दिखी। असल मे भाषा, अभिव्यक़्त करने से कोसो दूर होती दिखी।

सवाल अब भी वहीं रहता है कि - समाजिक और साधारणता के बीच में उभरते दृश्य को बोला कैसे जाये?

पिछले दिन अपने एक साथी के साथ बातचीत में उभरा
सविधान की भाषा उन छवियों के साथ नियमित कठोरता में है जिससे यह माना जाता है कि साधारणता वैसी नहीं दिखती जिससे वे चिहिंत की जा सकती हो। साधारणता शरीर को चिंहित करती है - तो वे साधारण ही रहे।


ये साधारणता क्या है? जीवन की क्या कगार सेट करती है? कहां देखने से रोकती है और कहां को बुनती है? वे भाषा क्या हो जिससे इन दोनों के बीच के "ब्लैकहॉल" को बयां किया जा सके।

मनचित्र को उभारना और अपने से बाहर दिखते दृश्य को बुनना - दोनों के बीच में घूमती साधारणता अनेकों समय के गठन लिये है।


यह ब्लैकहॉल कहाँ है?


लख्मी

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