ये एक ख़ास मिलन है। इस मिलन में एक ख़ास झलक है और इस झलक में एक ख़ास पल भी छुपा है। साथ ही साथ इसको एक ख़ास भविष्य से भी समझा और देखा जा सकता है। भई, सरकारी महकमों का तो यही समझाना है। फिर कोई कैसे चूक सकता है इसे समझने के लिये। 'तैयारी औ डर' ये संजोग इस सारे सफ़र का।
तैयारी जहाँ विश्वासजनक दुनिया बनाने की पूर्ण कोशिश करती है वही पर एक डर के पायदान को भी खुला छोड़ देती है। हम किस ओर जा रहे हैं और हमरा ओर है कोनसा? इस सवाल का सबसे महत्वपूर्ण भाग तो तब शुरू होता है जब ये दोनों की एक दूसरे के बहुत नजदीक होते हैं। दिनॉक 1/10/2010 को दिल्ली की सड़कों पर इस अहसास को महसूस किया मैंने। वैसे तो मेरे एक साथी ने इसे पहले ही मुझे महसूस करवा दिया था मगर मैं सोच रहा था कि सारे सविधान तोड़ने वाली और उसे भिड़ने वाली पब्लिक कैसे नियमित दुनिया की रहनवाज़ हो सकती है?
'यहाँ पोस्टर लगाना मना है' इस लाइन को छुपा देता है शहर पोस्टर के नीचे।
'नो पार्किंग' इसपर डिप्पर लाइट ओन करके सुस्ताता है शहर।
'ये आम रास्ता नहीं है' इसे अपना समझकर इस्तेमाल करता है शहर।
मगर ये सारे सविधानों का पिता दिखा उस तारीख को। शहर का 'नीला डर' ये आसमान नहीं है और न ही पानी है। ये तो कुछ और है।
लेकिन खेल फिर भी चालू है - भिड़ंत को हर जगह महसूस किया जा सकता है।
एक बार हमारे एक साथी ने सवाल किया था जो आज खुला महसूस होता है -
जो नियमों को माने वो सच्चा और अच्छा नागरिक और जो नियम न माने वो बाग़ी लेकिन जो नियम में जाये और बाहर आ जाये उसे क्या कहेगें?
लख्मी
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