हर कोई अपने अंदर कई ऐसी परछाइयाँ लिये चलता है जिसे वे किसी छाया के रूप के बनाने की कोशिश में है। वे परछाइयाँ जो उसकी हैं, उसपर जिसकी पड़ी हैं उसकी हैं, उसकी हैं जो उसे छोड़कर चला गया है और उसकी जो उसके लिये आया है। एक अकेली परछाई हकीकत में कई छुअनों का अहसास देती है और एक छाया कई परछाइयों के मिलन से बनती है।
वो मिलन जो किसी के छूने से बना है, किसी के इशारे से पनपा है, किसी के अक्श से बना है। इसमें उस गुंजाइश का कल्पना होती है जो कई और जगहें और ठिकाने बनायेगा। वे ठिकाने जो किसी एक के लिये नहीं होगें।
लख्मी
1 comment:
परछाइयों को पकड़ना भी तो आसान नहीं....
regards
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