कभी-कभी सब अजीब सा लगता खुशी और ग़म साथ चलने वाले दो साएँ की तरह होते हैं। जो न हाथ में आते हैं और न ही हमें छोड़ते हैं। हालातों के टकरावों में सोया हुए तूफान को छेड़ देते हैं। जिसके कारण दर्द असानिये हो जाता है। दर्द का पता भी तब चलता है। जब झुँझलाकर अपनी वास्तविक इच्छाओं को मार दें।
ये कैसी मौत हैं? जिसमें आँखों से पट्टी बांधकर किसी ज्वालामूखी में उतरने की कोशीश कि जा रही है। चारों तरफ भागकर और सब के बीच रहकर भी कोई अकेला नहीं होता। क्या चाहिये, कहाँ जाना है? हम इस सवाल को भूलकर अपनी दूनिया में मस्त होकर जीवन को जीते जाते हैं। वो जीवन जो नित-नये रूपों में दिखाता है। वो जो किसी आँख के दोष या छलावे पर निर्भर करता है।
नीला दूपट्टा, सूखमय अहसास, आराम की नींद, हासिल करना। उसे पाना जो खोया है। ये किस तरह का जीवन है? क्या सब किसी छल का चक्कर हैं? समाज में जीवन का नियम है उस से कोई बचा है या किसी ने इस समाज में आने के लिये अपने नियम बनाये हैं। अगर वो निजी है तो वो समाज में कैसे खुद को जमा सकते हैं। समाज तो बना ही विभिन्न नियम और आजादियों को लेकर। जो सब के लिये कुशल हो लाभप्रद हो। उस समाज के नियमों का गठन ही तो एक मात्र जीवन का घेरा है जिसमें खुद को किसी पर किसी मे जाहिर करने की प्रक्रिया जारी रहती है। जहाँ से हम अपने स्वप्न दर्शनों को किसी के ऊपर उडेल देते हैं। वो अपना हो जाता है या हम उसके हो जाते हैं। यही जिन्दगी का मेल है।
राकेश
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