Friday, August 20, 2010

मन चंगा तो कटौती मे गंगा

इससे पहले की मैं कुछ कर पाता उसने मेरी बोलती बन्द कर दी, खामोश!

चारो तरफ नाचने वाली मक्खियाँ हैवानियत पर उतर आई, जैसे उनकी शान्ती किसी ने भंग करदी हो।

पीटर माना नहीं, वे अपनी जेब से रुपिये निकालता और ऊँची आवाज़ में कहता, "देख मेरे पास माल कितना है। तू कटपुतली की भांति जीता है, अपुन का ज़िंदगी एक दम झकास है।"

वे अपने आत्मविश्वास की नींव दिखा रहा। उसकी वास्तविकता जो मुझे अस्विकार कर रह थी।अभी उसका आत्मविश्वास चुनौती की कग़ार पर उतरना बाकी था। उसकी पागलों वाली हंसी को देखकर चंद कदमों की दूरी पर तैनात पुलिसकर्मी हमारे नज़दिक आ गए। कुछ ठिठ्की हुई बोली मे उन्होनें हमें लपेटना चाहा। ज़्यादा कुछ नहीं था हमारे पास। पर्स और जेब उन्होने टटोली और सिर से पांव तक तलाशी भी ले ली। पीटर तो सुन्न हो गया। कमाल है बेवजह इतनी बेदर्दी से इन्होने हमारी तलाशी ले ली। इन्हे इस बेदर्दी का जरा भी अहसास नहीं मालूम होता।

दो तीन बार पीटर ने उन्हे पलट-पलट कर देखा। वो अपनी ड्यूटी कर रहे थे या मश्खरी पता नहीं चला। जब वो यहाँ-वहाँ हाथ लगा रहे थे तो गूदगूदी हो रही थी। वो कदमों की ठप-ठप खींचातानी से बना शौर-गूल पास से रगड़ कर चली जाता कोई जो किसी वक़्त को धूंआ सा बना जाता। वे अभिव्यक़्तियाँ यहाँ किसी गली की दिवार पर साया बनकर चिपकी हुई थी।

सेवाराम अपने पान के खोके का पल्ला लगा रहा था उसने कुछ सामान अपने साथ झोले में रखा। उसके खोके के दोनों तरफ पान के लाल रंग की छीटें पड़ी थी।

"अरे ओ सेवाराम के बच्चे जल्दी कर नहीं तो तेरा लाईसेन्स कैंसल करवा दूंगा फिर लगता फिरयों दफ्तरों के चक्करों में"
"हाँ-हाँ साहब करता हूँ। डरा क्यों रहे हो।" पीटर अपनी बात पर अड़ा था। उसने तुरन्त धूंऐ कि तरफ मेरा मुँह किया मेरी ओर देखा। उस रात हम दोनों किसी काम से बाहर आये थे रास्ते में देर होने के कारण हमें घर पहुँचने का कोई ऐसा रास्ता चुनना था जिसमें हमें कोई डर न हो न ही कोई पुलिस वाला मिले। जिसका हमे अंदेशा था वही हुआ सड़कों से बचकर हम इसलिये आये की कोई पुलिस वाला न मिले पर पुलिस वाले बाजार की इस गली में भी अपनी धूनी रमा कर बैठे थे।

ये बाज़ार हमारे लिये कोई नई जगह नहीं थी यहाँ से हम पहले भी गूजरें हैं पर इस वक़्त का अनूभव नया और पैचीदा था। रात के गहरे घने अंधेरे में जैसे कोई देत्य आसमां से उतर आया हो। बुझी लाल टेन और बिजली के बल्बों के घेरे जिनपर स्लेटी और मटमेला रंग धूल की तरह पढ़ा था जैसे कोई खण्ड़रों की तस्वीर सामने आ गई हो। चट्टानों कैसा एक बड़ा सा हवा का गोला हमारे पास घूमता हुआ आ रहा था। कोई सुलघती आग ओस को खा रही थी या ओस उस आग में से चटकते शोलों खा रही थी। पता नही, कौन किस को खा रहा था।

हमारे पांव जमीन से उखड़ रहे थे। जैसे वो देत्य रूपी आग तेज हुई। उससे उत्पन्न रोशनी ने सामने की तस्वीर हमे साफ दिखा दी।

पीटर बोला, "अबे डरपोक वो तो कोई बूढी औरत है जो अंगीठी में आग जला कर बैठे हैं।" कुछ भी हो उसका चेहरा तमतमा रहा था।
"मुझपर हंसने से पहले अपनी तरफ देख तेरे माथे पर पसीनों की झड़ी लगी है।" दोनों एक-दूसरे की ओर हैरानी से देखने लगे। उनके साथ कुदरत क्या करने वाली थी इस बात की उन्हे जरा भी भनक नहीं थी। उस जगह जहां आग के पीले, केसरी धूआँ बन कर फैलते छल्ले दिख रहे थे। उसकी ओठ में दिवार पर किसी की परछाई बनी नज़र आ रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहता था की कोई है वहाँ। किसी का वजूद उस अंधेरी रात में दखिल हो रहा था। हमारे पीछे से आता वो हवलदार सहानुभूती दिखाता हुआ बोला, "कोई प्रोबलेम है क्या?”

कितना आसान सवाल था पर सुनने में हकिकत में ये उतना ही दुर्लब था जितना हम सोच भी नहीं सकते थे। आसान सवाल क्या होते? क्या कोई सवाल आसान होता है? आखिर इस जद्दोजहद से क्या हासिल होने वालामन चंगा तो कटौती मे गंगा था। हवालदार बस इतना पूछकर चला गया। "चलो यहाँ से निकलों" फिर कोई सवाल वो हवलदार करेगा। वक़्त के सात इस जगह में शौरगुल ठहाके और आवाज़े हल्की पड़ गयी थी। परिस्थितियों खुर्दे-सपाट रास्ते खूद भी सो गये थे। मगर मेरा अहसास जागा था। वो इच्छाएँ जो कभी मरती नहीं वो मन में करवटें बदल रही थी। जिन्हे अभी बहुत ऊँचा उड़ना है। स्वर्ग और नर्क के बीच में फसीं इस जिन्दगीं कल्पना देनी है। कितना हैरान किया है इस जीवन की समझ ने मुझे। कुछ हासिल नहीं होता बस कुछ क्षणों की तसल्ली मिलती है फिर बाद में वही दर्द जिसमें जीने की आदत है। वो भला कैसे बदल सकती है। पुरानी आदत कैसे छूट सकती है और नई आदतों को कैसे अपना जाये। कोशिश करो, कोशिश करो। किये जाओ। । वो सम्भव और असम्भव के बीच मेरा प्रवेश अजीब था।

राकेश

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