Friday, April 30, 2010
हमारे सामने बनी एक रूपरेखा
जो रोज़ मिलता है और मिलकर कहीं खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटीन में रखेगें?
हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है। बस, जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नहीं कर पाते। कैसे देख सकते हैं उस द्वृश्य को जो हमारे सोचने की वज़ह है? क्या उसका फैलाव है? या हमारे देखने का नज़रिया? जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी एक रूपरेखा दिलो-दिमाग पर अदा सी छोड़ जाती है।
वो मिलने की चाहत। वो पाने की लालसा। जो ले आती है हमें कई रफ्तारों के बीच जिसमें हमारी भी इक रफ्तार होती है। पहले हम जगह को समझने के लिये समय को अपने लिये रोक लेते हैं फिर समझ आने के बाद उस रफ्तार में गिर जाते हैं। ये क्या? क्या ये कोई प्रणाली है या जाँच? या फिर कोई प्रयोगनात्मक समझ है।
हर जगह ऐसी होती है?
राकेश
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