Thursday, April 22, 2010

पिरोने और उधेड़ने के साथ

वो चार दोस्त हर रोज़ मिलते हैं कई सारी बातें करते हैं, ऐसा लगता है जैसे वो कभी नहीं थकेगें और न ही कभी उनकी बातें खत्म होगीं। बड़े -बड़े फैसलो मे जब भी उनमें से कोई फँस जाता है तो इतने बड़े और गहरे आइडियें दे डालते हैं कि उनकी जीवन की ये ही सबसे बड़ी बात है अगर इसे ज़िंदगी से बेदखल कर दिया तो न जाने क्या होगा।

लेकिन, सबसे मजे की बात ये है कि यही फैसले जब खुद के ऊपर आते हैं तो कभी ये सब नहीं निकल पाता क्यों?

असल में, वो एक ऐसी जगह से वास्ता रखते हैं जो बिना शर्तों और निजित्ता होने से दूर रही है तो उसमें घुलना और उसी मे घुले रहना उनका अभिव्यक़्ति भी बनाता रहा है और उनका तोड़ भी। जो किसी के अकेले होने और जुदा होने से बैर रखता है।

कल उनके बीच मे एक और साथी आया। उसने कहा वो कहीं पर जाना चाहता है। वहाँ पर जहाँ पर वो किसी और के जीवन के साथ खुद को जोड पाये। किसी और के साथ बहस कर पाये। वे अपने घर और काम के साथ इतना सख्त हो गया है कि उसको हमेशा ये सोचने मे वक़्त लगता रहा है कि वे खुद के साथ क्या जोड पा रहा है या क्या है जिससे दूर जाना चाहता है।

वे बोलता गया और यहाँ पर सभी ऐसे खुश होते गये जैसे आज सबसे महीम तार जिसको छूने से डर जाते थे वे मिल गई। उस तार का डर, गम और खुशी तीनों का एक अनोखा संगम बन रहा था। जिसको जिसनें देखा और महसूस किया वे खुद को खुशनसीब समझने मे कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।

लेकिन सभी को जितनी खुशी थी उतना ही कुछ रूकावट भी महसूस होती जा रही थी। कि आखिर मे ये बताना है या पूछना। वो पूछ क्यों रहा है? अगर जाने की इच्छा है तो डर किस चीज़ का? इच्छा और चाहत को अगर कोई चीज़ दूविधा मे डाल देती है वो क्या है?

धीरे - धीरे सभी खमोश होते गये। कोई बस इतना कहता, “अगर चाहत है कुछ पाने की तो पा लो।" तो कोई कहता, “अगर कुछ डर है तो फैसला मत लो।"

लेकिन बात का कोई हल नहीं निकला। बात तो वहीं की वहीं पर रूकी रह जाती। इस माहौल के बीच मे बैठा मैं यही सोचे जा रहा था। किसी चीज के छूट जाने पर हम खुद मे कमी महसूस करते हैं? क्या कुछ छूटना भी जीवन मे आगे की तरफ मे बड़ाता है या पीछे के लिये कुछ गड्ढे खोद जाता है?

यहाँ पर किसी जगह के, साथ के, आदत के छूट जाने का डर नहीं था बल्कि कुछ बीच मे ऐसे तार भी हैं जिसको छोड़ना नहीं चाहते। ये तार पिछले कई सालों की चुभन और ताकत से बने हैं। जिनमे कई यादें, वादें और चाहतें पिरोई गई हैं। उस पिरोने के उधड़ जाने का भय होता है। ये भय खुद का नहीं है और ना ही किसी और के जीवन मे उछल जाने का।

न जाने कितने और फैसले जीवन के इन्ही बिसात पर धरे रह जाते हैं। हम रिश्तों और काम से थोड़ा मुँह जोर बनकर रहे तो कुछ ऐसी अभिव्यक़्ति की तलाश कर पाते हैं जिसको पाना खुद के लिये भी चौंकना बन जाता है। लेकिन क्या हमें पता है हमारे रिश्तों का शरीर क्या है? वो किस वेशभूषा मे है? और काम की तार क्या है? वो किस रफ़्तार मे हैं? इस शरीर और तार को हमें बस, सोचना पड़ता है।

खाली किसी नई जगह, संदर्भ और खेल की मांग जीवन मे नहीं होती वे कुछ पिछला भी चाहता है। जिसमें कुछ पिरोया गया था। जिसे उधेड़ा जा सकता है लेकिन काटा नहीं जा सकता। यहाँ पर भी बातें कुछ ऐसे ही मोड़ पर जा रूकी थीं।

लख्मी

2 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 13 मई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट पिरोने उधेड़ने के बीच शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।

अविनाश वाचस्पति said...

आप अपना ई मेल पता भेजेंगे तो इसका स्‍कैनबिम्‍ब भेजना चाहूंगा avinashvachaspati@gmail.com

और डेशबोर्ड की सैटिंग में जाकर कमेंट में वर्ड वेरीफिकेशन डिसेबल अथवा निष्क्रिय करेंगे तो हिन्‍दी के मार्ग की अंग्रेजी रूपी बाधा स्‍वयं हट जाएगी।