Wednesday, November 3, 2010

एक जगह ऐसी -

( विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता )
एक शख़्स हताशा से कहीं बैठ गया।
मैं उस शख़्स को नहीं जानता था मगर हताशा को जानता था।।
मैंने उसे अपना दिया। वो हाथ पकड़ा और खड़ा हुआ।
वो मुझे नहीं जानता था। मगर मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था॥
हम दोनों कुछ देर साथ चले।
हम एक दूसरे को नहीं जानते थे बस, साथ चलने को जानते थे।


वो कोनसी जगह होगी जहाँ पर खिलने और उड़ने का मौका मिले। जहाँ पर रूकने और तैरने का इशारा मिले। जहाँ पर मिलने और ठहरने का अंदेशा मिले। हमको लगता है हर शख़्स अपने भीतर ऐसी ही किसी जगह की कल्पना लिये चल रहा है। वो जगह जिसे वो रोज़गार और रिश्तों से बाहर देखता है। जिसमें खुद की कल्पना होती है। ऐसी कल्पना जिसे वे एंकात में जीना चाहता है। ऐसा एंकात जिसमें वो खुद को नये रूप में देखे और बनाये। अपना वक़्त, अपनी कला, अपने रियाज़ और अपना ठहराव – तेजी सब कुछ किसी ताल में सोच पाये।
आप ऐसी कोनसी जगह की क्या कल्पना करते हैं? जो परिवार, काम, दुकान और ट्रनिंग सेंटर से अलग है? वो जगह जो आपको उड़ान की तरफ ले जाती है। वे उड़ान जिसकी ओर आप जाना चाहते हैं।



हमें बताएँ वो जगह कोनसी होगी और कहाँ पर होगी? कैसी होगी? उसका वक़्त क्या होगा? अपनी कल्पना को तस्वीर दें।
ट्रिकस्टर ग्रुप
पता - जे 558, दक्षिणपुरी, नई दिल्ली - 110062
इमेल - ek.shehr.hai@gmail.com
फोन नम्बर - +919811535505, +919811233689

2 comments:

शरद कोकास said...

विनोद जी को यहाँ देख कर अच्छा लगा ।

Ek Shehr Hai said...

दोस्त शरद जी,

विनोद कुमार जी यहाँ पर उस अहसास का काम करते हैं जो अजनबियों का शहर होकर भी एक दूसरे से मिलकर जीने को कहता है। रिश्तों से बाहर, परिवार से बाहर और काम से दूर।

हमारी यहाँ पर कोशिश है उस जगह को कल्पना में लाने की जो इस अहसास को ढाँचा दे पाये। आपकी कल्पना में इस अहसास की कोई तस्वीर जरूर होगी।

तो हमें जरूर शेयर किजिये:-
लख्मी