Wednesday, March 14, 2012

सवाल के कई जवाब

"आज का सवाल" जब भी स्कूल में इस लाइन को लिखा देखता था तो समझ नहीं पाता था की ये लाइन किसके लिये है? लिखने वाले के लिये, पढ़ने वाले के लिये, देखने वाले के लिये या सिर्फ यूंही है। और उसके नीचे लिखा सवाल तो और भी ज्यादा परेशान करता था की ये सवाल क्या है? क्या इसका जवाब मिल गया है किसी को तब लिखा गया है, अभी तक नहीं मिला है, अब भी ढूंढा जा रहा है, कभी मिल ही नहीं सकता, मिल गया है फिर और ढूंढना है - कुछ समझ नहीं आया। स्कूली दुनिया से बाहर निकल कर जब उन सवालों को दोहराया या समझने की कोशिश कि तो उनके मायने मिले - जवाब तो नहीं।

हम सवालों को किस तरह से सोचते है? क्या वे हमारी दिक्कतों को हल करते हैं?, नई दुनिया मे ले जाते हैं?, आगे का दिखाते हैं?, किसी से मिलवाते हैं?, पीछे का याद दिलाते हैं?, खुद से मिलवाते हैं?, ज्यादातर सवाल - उस असपष्ट दुनिया की ओर इशारा भर है जिसके बाहर खड़े हम उसके अनुमान लगाते हैं। वे हमारी है या हमारी नहीं है - की टाइट उलझनो से बेनज़र होकर। सवाल, पूछे जाते हैं - कहे नहीं, सवाल बताये जाते है- पढ़े नहीं, सवाल गढ़े जाते हैं - दोहराये नहीं। मगर कभी ये समझने की कोशिश मे रहते हैं की सवाल दोबारा जीवन मे लौटते हैं। पर सवाल कभी किसी एक फिक्स जवाब से मरते नहीं।

कुछ सवाल मेरे दिमाग मे रहे हैं - जिन्हे जब बातों मे डालने की कोशिश की तो जीवन की वे झलकियां सामने खुल कर आई जिन्हे मैं कभी अपने खुद के रिश्ते, एकांत, समुह मे नहीं सोच पा सकता था। उसके लिये मुझे इनसे बाहर जाना होता।

ये बातचीते हैं - उन सवालो पर जो मेरे दिमाग मे रूक गये। जिन्हे अपने आसपास में, घूमते शहर मे, सोते शहर मे, खोते शहर मे, इसे पाया।


सवाल , "हमें कब लगता है कि हमें अपने जीने के तरीके पर सोचना होगा?”

सोनम जी, “मैं अपनी जिन्दगी में काफी पीछे रह गई हूँ। सबसे अलग हो गई हूँ। मैनें अपनी पूरी जिन्दगी ऐसे आदमी के साथ बिता दी जिसने मुझे कभी ये सोचने ही नहीं दिया की मैं क्या हूँ। बस, घर और उसको संभालने मे लगी रही। मैं भी चाहती हूँ की बाहर निकलूं, कुछ करूँ, जो मौका मुझे आज मिला है वे पहले कभी नहीं मिला। मैं रोई, अकेली रही, सब कुछ छुपाया, किसी को कभी कुछ अंदेशा नहीं होने दिया कि मैं क्या झेल रही हूँ। लेकिन, अब ऐसा नहीं चाहती। मैं अपने हाथों मे लेना चाहती हूँ सब कुछ, ताकी मेरे बच्चे मेरे आने वाले टाइम को लेकर डरे ना। अब सोचने को मिला है। मुझे सबने खींचने की कोशिश की, मगर मैं वावली सी बनी रही। जैसे मुझे कुछ समझ ही नहीं है दुनियादारी की। बस, उसके और परिवार-परिवार करते हुए पूरा जीवन ही चला गया। मैं अब अगर किसी को बताऊँगी तो क्या। मैं याद ही नहीं करना चाहती वो 20 साल जिन्दगी के जो मैनें परिवार नाम से और मेरे हाथ पर जिसका नाम लिखा है उसके हाथ के नीचे बिताये है। मुझमे अब जैसे ताकत आ गई है। मैं बस, 2 साल ही तो दूर रही हूँ अपने उस नर्क से और इसी टाइम ने मुझमे जान डालदी। मैं बहुत खुश हूँ।"


शामू चाचा, “मुझे रोटी की चिंता नहीं है और न ही तेरा चाचा परिवार की चाहत रखता। मैं तो मस्तमौला हूँ। जब भजन था तब तक तो कभी खुद को सोचा ही नहीं था। उसके साथ रहना और चलना मुझे लगता था की तुझे और चाहिये क्या। पर अब वो नहीं है तो लगता है कि जो वो मुझे अकेला छोड़ गया है तो मैं अकेला होकर क्या करूगां। दारू पीकर जीवन खत्म नहीं करना चाहता मैं। मैं भी चाहता हूँ कि कोई शामू मुझे भी मिले और मेरे साथ रहे। उसके जाते ही सब कुछ मिटने लगा है अब मैं सोचता हूं की यार, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, परिवार मे गया तो मुझे बाप बना लेगें और मैं बाप नहीं बनना चाहता। बाप बनना होता तो शादी कर लेता। जिन्दगी बीत गई अब नहीं होता ये सब। पर कुछ करूंगा, अकेला नहीं रहूँगा। ज्यादा कुछ दिल में आया तो पहुँच जाऊंगा भजन के पास। उसकी छत पर।"


राजू भाई, “एक ही तरह से जीते - जीते जब लगता है ना की कुछ बन नहीं रहा तो तरीका बदलना होता है। वैसे तो घर ऐसी चीज़ है कि ज्यादा समय तो आप एक ही तरीके से जी नहीं सकते। वो अपने आप बदलवा देता है। शादी हुई नहीं कि आपको सोचना होता है कि अब कैसे जिया जाये। क्योंकि आपका जीने का तरीका आपके अकेले का नहीं है, उसके साथ अगर कोई और भी जुड़ा है तो तरीके को बदलना ही पड़ता है। नहीं तो रहो जीवन मे उसी बासी रोटी की तरह जो ना फेंकी जाती और न खाई जाती।"

बाला जी, “जब बहुत हो जाये ना, तो बदलना पड़ता ही है। वैसे तो कोई बदलना चाहता नहीं है, मगर जब लगे की पानी सिर से ऊपर बहने लगा है तो बदलना पड़ता है। नही तो लोग तुम्हे पागल समझकर तुम पर चड़ जाते हैं और तुम चुपचाप रहते हुये सब कुछ करते हो। अगर भइया चुपचाप ही जीना है तो मत बदलों।

मैं घर से ज्यादा काम पर अच्छी थी, काम पर जाते हुए लगता था की कब तक कमाऊंगी और सबको खिलाऊंगी। तो घर पर बैठ गई। लेकिन घर तो चूस लेता है। बाहर जाती थी तो इतने लोग जानते थे मुझे की क्या बताऊं। 427 बस वाले, दूर से देखते ही बस रोक लिया करते थे की अंटी आ गई। मगर अब तो मुझे खुद नहीं पता की 427 बस चलती भी है या नहीं। स्टाफकैलाश में दुकान वाले, किस्त पर मेरे नाम से समान दे दिया करते थे। अब तो पता नहीं है की और कोन-कोनसे नये समान आ गये है। घर अपनी तरफ बुलाता है, मगर यहाँ पर बैठ जाना हमेशा के लिये ये बहुत बुरा साबित होता है। मैं समझा है, अब तो मैं कहीं जाने की ही नहीं रही। लेकिन ज्यादा दिन तक ऐसा चलने नहीं दूंगी।"

लख्मी

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