Wednesday, April 4, 2012

सम्मुखत्ता की विरूधत्ता

01

कल्पना की दुनिया में जाने की राह मचलते दृश्य के सामने खड़े होने के समान है। जो उन्माद मे है, उसके सम्मुख खड़े होना - विचारने और ठहराव की प्रत्येक चौहदियों के विरूध हो जाना है। लकीरों के बिना मगर कुछ परछाइयां बनाते हुये। भटके हुए राहगीर की तरह जो रेगिस्तान में कुछ देर खड़ा हो उसके सपाट होने में अपने मन को जीने के ठिकाने बनाने लगा है। जिसका मानना है कि यहीं पर वो है जिसे वे देख सकता है। किसी नई दुनिया की नीव पर सारी धाराएं वापस लौटने को तैयार हो जैसे। उन तरंगो की भांति जिसका किनारा तय है लेकिन उस बीच उसके मचलने की कोई सीमा नहीं।


02

तरंगे किसी जाल की तरह असंख्यता मे हैं, छोटी व अधूरी- एक दूसरे मे गुथी, पानी को लहरिया बनाने मे सक्षम होने को भूखी रहती हो जैसे। असंख्य इनके भीतर है, मगर अंत तक जाने की चेष्ठा के बिना। एकल होना सिमटे हुए से बाहर है। एकांत और असंख्य के बीच खड़े किसी बिम्ब की भांति। ध्वनियां उसके भीतर से निकलती हैं, निरंतर और चीखती हुई - उसे बिखेर देने के लिये।



03

सरफस के नामौजूद होने की बैचेनी हवा के किसी झोंके पर ले जाती हो जैसे। जिसका छोर वहां पहुँच जाने वाले के लिये भी शायद किसी बेतालादर की तरह हो। कौन निकला था घर से, कौन था रास्ते में और कौन पहूँच पाया वहां- ये किसी एक से रूबरू होने जैसा नहीं है शायद। किसी पके पत्ता के उस हिचकोले खाते समय को बोलने जैसा जो इस नामौजूद सरफस पर झूल रहा है।


04

किसी भीड़ के भीतर खड़ा होना, और उसपर अपनी निगाह को बार – बार लाना जो असपष्ट है मगर शायद इसलिये क्योंकि कोई निगाह उस तक नहीं पहुंच सकती। जैसे कोई अपने अनुमान को अपने भ्रम में से जोड़ जीने के लिये निकला हो। किसी तह की गई चीज़ की तरह – जिसकी हर तह के खुलने और बंद होने की चाहत पर एक अस्पष्टता की गहनता का अहसास होता है। स्वयं के दाव पर लगाने के चैलेंज से समय के टूकड़ों को जीवंत्ता में बदल रहा हो। उस शरीर को कैसे पकड़कर पायेगे जो किसी झूले की तरह है, जो हर चक्कर में वापस आता है मगर किसी नई रफ्तार और फोर्स के साथ। स्वयं से समझोता, स्वय के साथ डिमांड़ मे रहने की ज़द्दोज़हाद है। ये कैसे जान पाओगें की बराबर मे चलना और साथ में चलने मे क्या फर्क है?


05

गहराई से आती सांसे कभी जोश मे उठ पड़ रही है तो कभी आसमान से गिरती ओस पानी की सतह पर अपनी छाया की परत से उसे शंक्खिये बना रही है।

उन्होनें आखिरी पन्ने पर लिखा था। जिसे सबने तकरीबन एक बार तो पढ़ा ही होगा। पढ़ने वाला एक बार तो उसे शंक्ख की तरह उसे अपने होठों तक लाया होगा। कई आड़ी तेड़ी लकीरों के बीच में मुड़ी पड़ी ये दुनिया, दास्तान, ज़ज्बात, बात या कल्पना की ये बिखेरी हुई दुनिया का कोई किनारा नहीं। शायद डायरी को पढ़ते रहने वाले इसके आगे के पन्नों को पढ़ने के लिये एक तस्वीर तो बनाई होगी की शायद, इसका किनारा जरूर होगा। शायद, ये बंदा कुछ गा रहा होगा। शायद, इसमे दिल मे कुछ रहा होगा। शायद, इसके पास से कोई होकर गया होगा।


लख्मी

2 comments:

Prasannan gramya said...

I like your blog very much

Anonymous said...

Bht sundr... Par apne me gutha hua...