आसपास न तो पड़ोस है, ना ही निजी दायरा और ना ही वे सीमायें जिनको हम अपने जीने के तरीके मानकर चलते है। "आसपास" सोचने और जीने के कई पहलु और अंदाज़ के साथ खेलता है व मिलता है। "आसपास" अन्दर इतना घुलामिले अहसास की भांति होता है इसे सोचना न भी चाहे तब भी ये हमारे साथ जुड़ ही जाता है। किसी ऐसी फोर्स के साथ जो ना तो बाहर निकलने देती और ना ही अपने अंदर आसानी से दाखिल होने देती। "तुम कौन हो?” सवाल लिये ये हमेशा बहस मे रहता है। जैसे हमारा परिचय इस आसपास के नज़रियों से बनता और बदलता हो नियमित। जीवन का शायद कोई ऐसा सार नही है जिसे लोगों और जगह के बिना सोचा जा सकता है। तो ये लोग और जगह मिलेगे कहां? आसपास वो कहां का रूपक है। हम अपनी जीवनी, जीवन, कहानी, सोच, सवाल भी सोचे तब भी हमारी नब्ज का भराव इस कहां से ही रचा जाता है।
ये कभी 'जहाँ' बन जाता है तो कभी क्षितिज़। कभी इसमें घूमते लोग समय का रुप ले लेते हैं तो कभी भविष्य यानि आने वाले समय का संकेत बन जाते हैं। जैसे किसी सक्रियेता की भूख के अंदर हम स्वंय शामिल हो रहे हैं। इस समझ से जुदा की ये अंदर है या बाहर? हम आसपास है या हमारा आसपास है? के गहरे और हल्के सवाल के बीच में जीवन की इतनी छोटी लकीरें खीचते हम किसी चीज की बुनाई मे है - जैसे नियमित है और जो बुना जा रहा है या जो बुनकर तैयार हो रहा है उसे कह रहे हैं आसपास। – ये कहना शायद ही ठीक हो लेकिन इसकी प्रवृति इससे कोसों आगे की है।
हम जिसे देखते है, भोगते हैं उसे अपने सप्रुत कर उसे चिंहित करने लगते हैं।
एक लिखने वाले के लिये, जीने वाले के लिये और जीवन बनाने वाले के लिये आसपास आगे की कल्पना दे पाता है जिसमें हम भले ही सोचे की ये "मैं" कर पाया लेकिन रॉल मॉडल जिनमे हम टकराये, भिड़े, जुस्तजू मे रहे, चौंकने मे रहे, वे आसपास हमें जैसे तोहफे मे दे देता है। क्या हम कभी सोच पाते हैं कि हम किनसे इन्सपायर होकर किसी दिशा को भेद पाये हैं? वे कौन है?
हर एक पल मे बदलता नज़ारा और हर एक पल मे बदलती सोच हमें जैसे हर वक़्त "कोई" बख्श रहा है भले ही वे हमारी दिमाग उपज बन जाये पर उस का अंकुर किसी फोर्स को लिये है। सवाल आता है कि खुद को, सोच को, जानकारी को, कुछ बनाने को हम टेस्ट कहां कर पाते हैं? ये कोई है कौन?” आसपास में इस कोई की पहचान क्या है?
यह "कोई" मिलेगें कहाँ? आसपास में, समुह में, किताबों में या खुद में? "आसपास" किसी के लिये ये "कोई" बन जाता है तो कभी यह "कोई" आसपास का चेहरा। ट्रांसफर होती ये छवि सक्रियता को बड़ाये रहती है। अपनी जिन्दगी, जिन्दगी सोचने के तरीक में इस भिड़ंत के साथ टकराना व जूझना बेहद महत्वपूर्ण बनता है। अनेको "कोई" कि कल्पना को साथ में लेकर चलना हर बार चैलेंज से ही टकराने के समान रहता है। आसपास वो कोई है?
एक शख़्स से बात करते हुये लगा की जैसे उस शख़्स ने खुद को दोहराया तो, वे अपने साथ में किसी छुपे हुए एक और "कोई" को बना गया। वे "कोई" जिसके बारे में सुना है। मगर देखा नहीं। उसको देखने की चाह ने किन्ही और शख्सों के बीच में उतार दिया। सवाल उभरा - कोई अपनी जिन्दगी की किस छवि को अपने साथ आगे ले जाना चाहता है और कौनसी छवि को परछाई बनाकर जीना चाहता है?
कई बार किसी शख़्स से मिलाकात होती और वो किन्ही और जीवनों में भेज देता। तार से तार जुड़ते शख्स एक दूसरे से चिपकते नहीं बल्कि किसी करंट की तरह स्पार्क करते जाते रहे हैं। आसपास इस अचिंहित तार की तरह हैं - जिसके स्पार्क ट्रांसफर होते पहलू बनाते है और अचिंहित दिशा को भेद कर कोई रूप बना पाते हैं।
लुफ्त अगर यह "कोई" बनकर जीने में है। जगह को रचने में है। अनेकों "कोई" के मिलने की जगह। वे जो काल्पनिक है, वे जो बिखरा हुआ है, वे जो परछाई की तरह है। वे जो अंधेरे में गायब नहीं होती बल्कि पूरे शरीर पर छा जाती है। विभिन्न अभिव्यक़्ति इन "कोई" के पीछे छुपी है। आसपास इन अभिव्यक़्तियों के साथ नियमित बहस मे रखता है।
आसपास क्या है को अगर सोचा जाये की “किसका आसपास?” तो -
घर के मुखिया का?
स्कूल के किसी बच्चे का?
किसी जवान प्रेमी का?
किसी लेखक का?
किसी सरकारी मुलाजिम का?
किसी भटके मुसाफिर का?
वही सपाट, तरंगफुल, शौरगुल, शहरी रूप में उभरता या बयां होता शहर चुनौतीपूर्णतह बन बहुमुखी हो जाता है और अभिव्यक़्तियों के समक्ष खड़ा हो जाता है। बहुमुखी हो जाना यहां पर उभरता है - जिसके अनेको द्वार है जो हर घुसने वाले को कहीं भी निकाल सकता है या खड़ा कर सकता है। किसी बेग्राउंड की झलकी की तरह। वे जो हर वक़्त जोश मे रहती है, सर्तक रहती है, चुनौतीपूर्ण है, वो जो कभी सिंगल अवस्था कि चिहिंत धारियों को तोड़ती है। जैसे आसपास की कोई चिंहित तस्वीर नहीं हो। वे जो जहां पर खड़ा हो गया। वहीं पर उसका आसपास बनने लगता है।
आसपास की सक्रियेता को सोचना क्यों जरूरी है? कोई कब तक खुद को दोहरा सकता है? खुद को दोहराने में वे क्या मनचित्र बना पाता है? वे कब खुद से बाहर हो जाता है? कब लगता है कि उसे खुद को अब दोहराने से बाहर होकर सोचना होगा? इर्दगिर्द जीवन की अचिंहित झलकियों से हम क्या दुनियावी तरंगे बुन सकते हैं? कई लोग जो इन तरंगों को बनाते हुए निकलते हैं उनके समक्ष रहना क्या है? आसपास कई अनकेनी दृश्यों से बना मण्डल के समान है।
कुछ साथियों का गुट जो स्कूल टाइम से साथ मे रहे हैं। जीवन के मूल्यवान फैसलो को अपने जीवन का कारण मानते वे कामयाबी और ना कामयाबी को अपना हथियार नहीं मानते। कहां फेल हुए या कहां पर पास रहे को सोचना उन्होनें जैसे कब का त्याग दिया है। नफा नुकसान से अपना दिन दोहराते हैं मगर इस तराजू बट्टे की सोच से वे अपने जीवन को नहीं दोहराते। जो हो गया वे मूल्यवान फैसले के अन्दर से निकला कोई फल है जिसे मीठा मानकर जीना उनके लिये वर्तमान को आगे की ओर धकेलता है। उनके लिये धकेलना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की वे आगे की ओर जा रहा है ये सोचना।
कुछ दोस्तो से मिला :
सुभाष पिछले कई सालों से सब्जी की रेहड़ी लगाता है। गलियों मे सब्जी की रेहड़ी लेकर घूमना उसके लिये महज़ कमाई का रूट मेप ही नहीं बल्कि वे खुद घूमने मे रहना चाहता है से है। उनकी रेहड़ी पर जब खरीदारो की भीड़ लग जाती है तो वे रेहड़ी पर रखी टोकरी रेहड़ी पर बिखेर देते हैं तो सबको चुनने के लिये बोल देते हैं। हर कोई उस सब्जी के ढेर मे से खुद के लिये चुनना शुरू करते हैं।
यह करना क्या है? आसपास चुनने और छाटने के बीच रहता है।
देवा – पिछले कई सालो से लिफाफे बनाने का काम करते हैं। लिफाफे बनाने के लिये वे किसी पास की कबाड़ी की दुकान पर जाकर हर रोज़ बेकी गई रद्दी को चुनते है। किसी कॉपी मे अगर कुछ ही पन्ने भरे होते हैं तो वे उसे फाड़ कर नया बनाकर रख लेते हैं और किताबों को भी। बाकी के पन्नो के लिफाफे बनाने के लिये बैठ जाते हैं। लिफाफे बनाना उनका काम है लेकिन इसके लिये पेपर छांटना और नया करना उनके जीने के तरीके को ताज़ा बनाता है।
जैसे उनके तीसरे साथी - रात मे पोस्टर चिपकाने का काम करते हैं। वे जिन दिवारों पर रात मे पोस्टर चिपकाते हैं सुबह होते होते उन्ही दिवारों से उनका रिश्ता उन लोगो की तरह हो जाता है जिनके लिये वे पोस्टर लगाये गये हैं। ये महीन बदलाव क्या सोचने के तरीके को पुश कर पाता है।
उनके चौथे साथी राजू – शहरी घुमतू जगहों पर फोटो खींचने का काम करते हैं। उनकी एक दुकान भी है। मगर वे अपनी दुकान पर कम और बाहर ही ज्यादा दिखती है। शहरी फेमस जगहें जहां पर सबसे ज्यादा मुसाफिर आते हैं वे उनकी फोटों खिंचकर – दूसरे दिन उन्ही जगहों पर जाकर बैठ जाते हैं। कभी कभी होता है कि वहां पर वही लोग दोबारा आये लेकिन फोटो खींचवाते समय ये मिलन दोबारा जरूर होता है। यह मिलना क्या है?
उनके घर पर हर महीने एक गुट बैठता है। जिसमें हम बार कोई ना कोई नया शख्स जरूर होता है। हर कोई कुछ ना कुछ लिखकर लाता है और उसे सुनाता है। सुनाने के बाद मे वहां बैठा हर बंदा उससे जुड़ता अपना कुछ सुनाता है। वो हर मुलाकात के सुनाने को रख लेते है और अपना कुछ बनाने के लिये चले जाते हैं।
घर और बाहर उनके लिये कोई फर्क नहीं रखता। जब घर उनका बाहर बन जता है और कब बाहर उनका घर। वो अपनी उम्र के शायद कई पड़आव इस बाहर को बनाने मे दे चुकजे है। बाहर उनके लिये जीने का वो ससाधन है जिसमे वे कई और लोगों के बीच मे उतर जाते हैं।
किसी को भी देखकर कुछ लिख लेना उनके लिये शौक भी है और परिचित होने की राह भी। वे कई लोगों जो उनके दोस्त ही थे। उनका लिखा पढ़ते हुये कभी ये नहीं सोच पाये थे की वो भी कभी लिख सकते है। लेकिन उनकी पढ़ने की भूख ने उन्हे बदनाम कर दिया। पढ़ने की भूख लिखने की चाहत से ज्यादा कारगर होते हैं। जिसमा लिखना कौशल नहीं है। वे पढ़ने की भूख को एक दिशा देने के लिये होती है। जो उनके अन्दर जैसे घर कर गई है।
आसपास मे झलकियां या आसपास की झलकियां नियमित इस टकराव मे रहती है जिन्हे अनदेखा कर नहीं निकला जा सकता।
लेकिन ये आसपास लेखन मे किस तरह से आता है?
लख्मी
ये कभी 'जहाँ' बन जाता है तो कभी क्षितिज़। कभी इसमें घूमते लोग समय का रुप ले लेते हैं तो कभी भविष्य यानि आने वाले समय का संकेत बन जाते हैं। जैसे किसी सक्रियेता की भूख के अंदर हम स्वंय शामिल हो रहे हैं। इस समझ से जुदा की ये अंदर है या बाहर? हम आसपास है या हमारा आसपास है? के गहरे और हल्के सवाल के बीच में जीवन की इतनी छोटी लकीरें खीचते हम किसी चीज की बुनाई मे है - जैसे नियमित है और जो बुना जा रहा है या जो बुनकर तैयार हो रहा है उसे कह रहे हैं आसपास। – ये कहना शायद ही ठीक हो लेकिन इसकी प्रवृति इससे कोसों आगे की है।
हम जिसे देखते है, भोगते हैं उसे अपने सप्रुत कर उसे चिंहित करने लगते हैं।
एक लिखने वाले के लिये, जीने वाले के लिये और जीवन बनाने वाले के लिये आसपास आगे की कल्पना दे पाता है जिसमें हम भले ही सोचे की ये "मैं" कर पाया लेकिन रॉल मॉडल जिनमे हम टकराये, भिड़े, जुस्तजू मे रहे, चौंकने मे रहे, वे आसपास हमें जैसे तोहफे मे दे देता है। क्या हम कभी सोच पाते हैं कि हम किनसे इन्सपायर होकर किसी दिशा को भेद पाये हैं? वे कौन है?
हर एक पल मे बदलता नज़ारा और हर एक पल मे बदलती सोच हमें जैसे हर वक़्त "कोई" बख्श रहा है भले ही वे हमारी दिमाग उपज बन जाये पर उस का अंकुर किसी फोर्स को लिये है। सवाल आता है कि खुद को, सोच को, जानकारी को, कुछ बनाने को हम टेस्ट कहां कर पाते हैं? ये कोई है कौन?” आसपास में इस कोई की पहचान क्या है?
यह "कोई" मिलेगें कहाँ? आसपास में, समुह में, किताबों में या खुद में? "आसपास" किसी के लिये ये "कोई" बन जाता है तो कभी यह "कोई" आसपास का चेहरा। ट्रांसफर होती ये छवि सक्रियता को बड़ाये रहती है। अपनी जिन्दगी, जिन्दगी सोचने के तरीक में इस भिड़ंत के साथ टकराना व जूझना बेहद महत्वपूर्ण बनता है। अनेको "कोई" कि कल्पना को साथ में लेकर चलना हर बार चैलेंज से ही टकराने के समान रहता है। आसपास वो कोई है?
एक शख़्स से बात करते हुये लगा की जैसे उस शख़्स ने खुद को दोहराया तो, वे अपने साथ में किसी छुपे हुए एक और "कोई" को बना गया। वे "कोई" जिसके बारे में सुना है। मगर देखा नहीं। उसको देखने की चाह ने किन्ही और शख्सों के बीच में उतार दिया। सवाल उभरा - कोई अपनी जिन्दगी की किस छवि को अपने साथ आगे ले जाना चाहता है और कौनसी छवि को परछाई बनाकर जीना चाहता है?
कई बार किसी शख़्स से मिलाकात होती और वो किन्ही और जीवनों में भेज देता। तार से तार जुड़ते शख्स एक दूसरे से चिपकते नहीं बल्कि किसी करंट की तरह स्पार्क करते जाते रहे हैं। आसपास इस अचिंहित तार की तरह हैं - जिसके स्पार्क ट्रांसफर होते पहलू बनाते है और अचिंहित दिशा को भेद कर कोई रूप बना पाते हैं।
लुफ्त अगर यह "कोई" बनकर जीने में है। जगह को रचने में है। अनेकों "कोई" के मिलने की जगह। वे जो काल्पनिक है, वे जो बिखरा हुआ है, वे जो परछाई की तरह है। वे जो अंधेरे में गायब नहीं होती बल्कि पूरे शरीर पर छा जाती है। विभिन्न अभिव्यक़्ति इन "कोई" के पीछे छुपी है। आसपास इन अभिव्यक़्तियों के साथ नियमित बहस मे रखता है।
आसपास क्या है को अगर सोचा जाये की “किसका आसपास?” तो -
घर के मुखिया का?
स्कूल के किसी बच्चे का?
किसी जवान प्रेमी का?
किसी लेखक का?
किसी सरकारी मुलाजिम का?
किसी भटके मुसाफिर का?
वही सपाट, तरंगफुल, शौरगुल, शहरी रूप में उभरता या बयां होता शहर चुनौतीपूर्णतह बन बहुमुखी हो जाता है और अभिव्यक़्तियों के समक्ष खड़ा हो जाता है। बहुमुखी हो जाना यहां पर उभरता है - जिसके अनेको द्वार है जो हर घुसने वाले को कहीं भी निकाल सकता है या खड़ा कर सकता है। किसी बेग्राउंड की झलकी की तरह। वे जो हर वक़्त जोश मे रहती है, सर्तक रहती है, चुनौतीपूर्ण है, वो जो कभी सिंगल अवस्था कि चिहिंत धारियों को तोड़ती है। जैसे आसपास की कोई चिंहित तस्वीर नहीं हो। वे जो जहां पर खड़ा हो गया। वहीं पर उसका आसपास बनने लगता है।
आसपास की सक्रियेता को सोचना क्यों जरूरी है? कोई कब तक खुद को दोहरा सकता है? खुद को दोहराने में वे क्या मनचित्र बना पाता है? वे कब खुद से बाहर हो जाता है? कब लगता है कि उसे खुद को अब दोहराने से बाहर होकर सोचना होगा? इर्दगिर्द जीवन की अचिंहित झलकियों से हम क्या दुनियावी तरंगे बुन सकते हैं? कई लोग जो इन तरंगों को बनाते हुए निकलते हैं उनके समक्ष रहना क्या है? आसपास कई अनकेनी दृश्यों से बना मण्डल के समान है।
कुछ साथियों का गुट जो स्कूल टाइम से साथ मे रहे हैं। जीवन के मूल्यवान फैसलो को अपने जीवन का कारण मानते वे कामयाबी और ना कामयाबी को अपना हथियार नहीं मानते। कहां फेल हुए या कहां पर पास रहे को सोचना उन्होनें जैसे कब का त्याग दिया है। नफा नुकसान से अपना दिन दोहराते हैं मगर इस तराजू बट्टे की सोच से वे अपने जीवन को नहीं दोहराते। जो हो गया वे मूल्यवान फैसले के अन्दर से निकला कोई फल है जिसे मीठा मानकर जीना उनके लिये वर्तमान को आगे की ओर धकेलता है। उनके लिये धकेलना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की वे आगे की ओर जा रहा है ये सोचना।
कुछ दोस्तो से मिला :
सुभाष पिछले कई सालों से सब्जी की रेहड़ी लगाता है। गलियों मे सब्जी की रेहड़ी लेकर घूमना उसके लिये महज़ कमाई का रूट मेप ही नहीं बल्कि वे खुद घूमने मे रहना चाहता है से है। उनकी रेहड़ी पर जब खरीदारो की भीड़ लग जाती है तो वे रेहड़ी पर रखी टोकरी रेहड़ी पर बिखेर देते हैं तो सबको चुनने के लिये बोल देते हैं। हर कोई उस सब्जी के ढेर मे से खुद के लिये चुनना शुरू करते हैं।
यह करना क्या है? आसपास चुनने और छाटने के बीच रहता है।
देवा – पिछले कई सालो से लिफाफे बनाने का काम करते हैं। लिफाफे बनाने के लिये वे किसी पास की कबाड़ी की दुकान पर जाकर हर रोज़ बेकी गई रद्दी को चुनते है। किसी कॉपी मे अगर कुछ ही पन्ने भरे होते हैं तो वे उसे फाड़ कर नया बनाकर रख लेते हैं और किताबों को भी। बाकी के पन्नो के लिफाफे बनाने के लिये बैठ जाते हैं। लिफाफे बनाना उनका काम है लेकिन इसके लिये पेपर छांटना और नया करना उनके जीने के तरीके को ताज़ा बनाता है।
जैसे उनके तीसरे साथी - रात मे पोस्टर चिपकाने का काम करते हैं। वे जिन दिवारों पर रात मे पोस्टर चिपकाते हैं सुबह होते होते उन्ही दिवारों से उनका रिश्ता उन लोगो की तरह हो जाता है जिनके लिये वे पोस्टर लगाये गये हैं। ये महीन बदलाव क्या सोचने के तरीके को पुश कर पाता है।
उनके चौथे साथी राजू – शहरी घुमतू जगहों पर फोटो खींचने का काम करते हैं। उनकी एक दुकान भी है। मगर वे अपनी दुकान पर कम और बाहर ही ज्यादा दिखती है। शहरी फेमस जगहें जहां पर सबसे ज्यादा मुसाफिर आते हैं वे उनकी फोटों खिंचकर – दूसरे दिन उन्ही जगहों पर जाकर बैठ जाते हैं। कभी कभी होता है कि वहां पर वही लोग दोबारा आये लेकिन फोटो खींचवाते समय ये मिलन दोबारा जरूर होता है। यह मिलना क्या है?
उनके घर पर हर महीने एक गुट बैठता है। जिसमें हम बार कोई ना कोई नया शख्स जरूर होता है। हर कोई कुछ ना कुछ लिखकर लाता है और उसे सुनाता है। सुनाने के बाद मे वहां बैठा हर बंदा उससे जुड़ता अपना कुछ सुनाता है। वो हर मुलाकात के सुनाने को रख लेते है और अपना कुछ बनाने के लिये चले जाते हैं।
घर और बाहर उनके लिये कोई फर्क नहीं रखता। जब घर उनका बाहर बन जता है और कब बाहर उनका घर। वो अपनी उम्र के शायद कई पड़आव इस बाहर को बनाने मे दे चुकजे है। बाहर उनके लिये जीने का वो ससाधन है जिसमे वे कई और लोगों के बीच मे उतर जाते हैं।
किसी को भी देखकर कुछ लिख लेना उनके लिये शौक भी है और परिचित होने की राह भी। वे कई लोगों जो उनके दोस्त ही थे। उनका लिखा पढ़ते हुये कभी ये नहीं सोच पाये थे की वो भी कभी लिख सकते है। लेकिन उनकी पढ़ने की भूख ने उन्हे बदनाम कर दिया। पढ़ने की भूख लिखने की चाहत से ज्यादा कारगर होते हैं। जिसमा लिखना कौशल नहीं है। वे पढ़ने की भूख को एक दिशा देने के लिये होती है। जो उनके अन्दर जैसे घर कर गई है।
आसपास मे झलकियां या आसपास की झलकियां नियमित इस टकराव मे रहती है जिन्हे अनदेखा कर नहीं निकला जा सकता।
लेकिन ये आसपास लेखन मे किस तरह से आता है?
लख्मी
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