Thursday, September 13, 2012

हूटर पर नृत्य

आसमान में सो चक्कर लगाने के बाद पानी पीने उतरे एक पक्षी ने खुद के अक्श को देखते हुये सोचा -

कभी कभी सोचता हूँ की पनियल सा बनकर बस चलता चला जाऊं। लोग मेरे अन्दर से होकर निकलते जाये। मेरा अहसास हो उन्हे लेकिन मुझे चलने के लिये रास्ता ना दे। कभी किसी के साथ साथ चल दूं। उसे लगे की उसके साथ कोई है, मगर वो मुझसे दूरी ना बनाये। डरे नहीं, भागे नहीं।

घर, परिवार, यारो की गढ़ी नजरों को धोका दूं। या फिर उन्हे भी चौंका दूं। मुझे चिंहित करने वालो को परेशान करूं या उन्हे हैरान करूं।

रात मे चिपकने वाले उन पोस्टरो की तरह हो जाऊं जिनमे जाने - पहचाने चेहरे भी उस तरह अंजान बन जाते है कि उन्हे फिर से खोजना पड़ता है। हर आंख उसे उस तेड़ी निगाह से देखती है जिसमें यह तंज होता है कि "ये पहले मिला या नहीं" इस तंज़ को अपना लिबास बना लूँ।

या किसी नाटक के उस किरदार की तरह हो जाऊं जो बिना डायलॉग के खड़ा है या रामलीला के स्टेज पर दिखती उस परछाई की तरह दिखने लगूं जिसे सब देख सकते हैं कि वे उड़ रही है या मेकअप उतारते उस कलाकार की तरह बन जाऊं जो मेकअप में भी  अंजान था और मेकअप उतारने के बाद भी या ऐसा बन जाऊं या वैसा दिखने लगूं या तैसा बन जाऊं या.....या.....या.... या....

इस "या" की भूख कभी बूढ़ी नहीं होती। वे हमेशा जवान रहती है। अनेकों 'या' एक अकेला मन अपने मे लिये चलता है। फेलियर से बाहर निकालने वाला या, खो जाने के लिये बना या, तैयार होने के लिये या, चौंकाने के लिये या, जीवन मे "नहीं बन पाया" की भरपाई का या, चुनाव की कसौटी का या, शख्सियत बदलने के लिये या, डर से भरा या, उन्माद का या, मसखरी से सजा या, मजबूरी का या, सलाह सा बना या। आइने के सामने दिख रहे बिम्ब ने खुद के चेहरे पर हाथ मारते हुए इस पल में अनेकों 'या' के होने को जिया हो जैसे। दरवाजा सामने दिख रहा है। जिससे हर रोज़ जो अन्दर आयेगा, बाहर भी वही जायेगा के ऊपर करोड़ो सवाल बिछा दिये गये।

पक्षी सा मन आइने के सामने खड़े बिम्ब में मिक्स हो गया।


हाथ में कुछ किताबें लिये वे उस जगह पर पहुँच गये जहां से शहर मे निकलने का पहला दौर शुरू हुआ था। एक साइकिल पर रखी किताबें उन्हे जितना लोगों के बीच मे उतारती  उतना ही अपने अंदर भी ले जाती। उनके पास कोई नहीं आता। वे ही सभी किताबों को पढ़कर अलग अलग नाम लिख देते। उनके रजिस्टर मे लिखा होता - अशोक एक किताब ले गया है जिसका पता ये है। अनेकों लोग उनके नाम, किताबों के नाम और पते लिख वे ही सभी को पढ़ रहे थे। काम कि दुनिया के साथ खेल कर वे किन्ही भीड़ को खुद से रचते चले जा रहे थे।

सरकारी संदेश अनुसार किताबघर के बंद होने को बोल दिया गया था। वे अनेकों नाम लिख कर उन सभी किताबों को अपने घर ले गये। आज वे उन सभी को निकालकर उनमें खुद को तलाश रहे थे। जैसे वो एक परछाई हो और उड़ रहे हो।

पक्षी सा बन वे कमरे से बाहर निकल गये।

लख्मी

1 comment:

Prabodh Kumar Govil said...

Ek parchhai see pakad me to aati hai, par vo sath nahin le jati.