आज मैं जब बाहर निकला तो मेरे दिमाग मे एक सवाल घूम
रहा था की मेरे अंदर और बाहर दिखते या मेरे खुद के बनाये शहर का लेंथ आखिर क्या है?
अपने से बाहर के शहर की स्पीड को किस तरह सोचूँ? खुद के ठहराव से या खुद की रफ्तार से?
आज पहली बार में अपने ही दिल्ली शहर में एक लंबे सफर पर घूमने के लिए निकला। ये घूमना वे नहीं था जो मैंने चुना। ये एक दम अंजान था। रात का। जैसे - जैसे अंधेरा गहराता जाता वैसे - वैसे मेरे मुताबिक चलने वाली मेरी खुद की कल्पना मुझसे दूर जाती, जाती और छूटती और फैलती और बहकती और मचलती और खोटी और भटकती जाती। मैं जिन रास्तों से कभी मिला ही नहीं हूँ या जगह को जानता हूँ ये ढोंग करता उससे पहले ही वो कठोर होती चली जाती। बिलकुल एम्बूलेंस की तरह जो एक पते पर भागती है लेकिन जब मरीज़ उसमें लेटा होता है तो रास्ते अपने होकर भी अपने दुश्मन हो जाते हैं।
मैं अपने दोस्तों के साथ था लेकिन कुछ ही देर में मैं उनसे अंजान हो
गया। अपने
दायरे से दूर हो गया। कई ऐसे चेहरे और मोडों से मैं मिला जो शायद पहले भी कभी मेरी जिन्दगी से टकराये होगें। लेकिन आज वो कलोनी और रेज़िडेंस के लिबास से बाहर थे। उनमे से कुछ तो ऐसे नाजूक होते की किसी बड़ी तस्वीर के पीछे छूप जाते तो कुछ ऐसे जबरदस्त जो मीलों तक याद रहते।
जैसे सड़क के किनारे पर दो आदमी बिन मौसम की बरसात से बचने के लिये एक ही छोटी सी पन्नी के नीचे छूपने की कोशिश कर रहे थे। सड़क के किनारे पर ही उनका रिक्शा खड़ा था जिसपर समान लदा था। एक शख़्स पुल के बराबर मे अपने हेलमेटो को बड़ी तिरपाल से ढकने की कोशिश कर रहा था मगर पुल की ये हवा उसे हर बार उड़ा ले जाती। लगता था जैसे उसे आज दो मोटे पत्थर तलाशने मे सबसे ज्यादा मेहनत की होगी। ये नांगलोई और उद्योगनगर के बीच की रोड़ पर देखा मैनें। एक शख़्स तो टेलीफोन पर बहुत जोरों से बातें कर रहा था। गाड़ी की चालीस की स्पीड़ मे भी उसकी आवाज़ की गाडी के तेज होर्न की तरह कानों को छू गई थी। उसकी आवाज़ को बन्द हो गई थी लेकिन पलट कर देखने पर नज़र आया की उसका टेंट का समान बाहर जमीन पर मोटी रस्सियो मे बंधा पड़ा है।
क्या ये नज़ारे कहीं और नहीं दिखते?
दिखते होगें। कई बार तो हमने एक साथ अपनी ही बस्ती/कलोनी मे देखे होगे। मगर ड्राइव पर देखने मे लगा की ये दृश्य कुछ कहते हैं। रूकने को,
ठहरने को,
चलते हुये देखने को, एक झलक को पता नहीं मगर चेहरा भले ही नहीं दिखता स्पीड़ मे मगर शारीरक भाषा
आपको मोहीत कर ही
लेती है।
मैं अपने साथ मे बैठे अपने दोस्त से बोला - आपको
भी बताता हूँ,
“लोग,
जगह और सफ़र भले ही एक दूसरे से मेल रखते हो या नही मगर बिना लोगों के शहर है, बिना जगह के है और बिना सफर के है और अगर ये तीनों मिल जाते हैं तो मेप बनता है शहर नहीं। लेकिन हमने एक खेल अपने बीच मे रखा कि हर एक घंटे मे दो लोग अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर रखेगे और आसपास वाले उसे बतायेगे की वो क्या देख रहे हैं?
मैंने जब आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी तब कुछ समय के लिय लगा जैसे सारी दूरियाँ पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। ऐसी हर आवाज़ को सुनने के बाद मे महसूस होता। हर आवाज़ अपने साथ कोई ऐसी तस्वीर लेकर आती जैसे वो मिटने के लिये तैयार हो रही हो। “शहर का लंबा सफर” शहर को अपने नजदीक या रास्ता समझने के लिये नहीं होता। बल्कि ऐसा लगता हर पल जैसे एक – दूसरे पर चढ़ता जा रहा है और दूरियाँ खत्म कर रहा हैं।
लख्मी
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