गली के
अन्दर कोई जागते हुए भी जागा हुआ नहीं होता था। किसी के भी घर की बत्ती जली हुई नहीं होती
थी। बस, गली के
अन्दर लगे खम्बों में ही तीन अलग-अलग जगह पर ही 100 वॉट के
बल्ब जले रहते थे। कभी-कभी लोगो
का शौर उठ जाता था और बस दो ही तरह की आवाज़ें सुनाई देती थी। जिसमें एक तो लठ को जमीन में मारते हुए भागने की आवाज़ें थी तो दूसरी लोगों की जो बेहद जोर-जोर से चिल्लाते थे, “आ गए –
आ गए" और थोड़ी ही देर के बाद सारा का सारा मामला शुमशान हो जाता। जैसे तेज बारिश के बाद में आसमान साफ हो जाता है।
सन
1984 में दक्षिणपुरी का पूरा का पूरा हुलिया बदला सा हुआ था। हर तरफ खामोशी
के बादल छाये रहते थे। कोई आवाज़ नहीं होती थी। ना गाने, ना टीवी
और ना ही कुछ और। रातभर हर घर से एक आदमी अपने हाथों में कोई न कोई हथियार पकड़े जागता रहता था। सब कुछ रुक गया था। हर दुकान पर ताला था। न कोई फ़िल्म का माहौल और न ही पार्कों में पर्दा। एकदम से सब कुछ चुप हो गया था। मदनगिर इलाका उस समय दक्षिणपुरी से बेहद करीब था। हर तरह से वे इलाका दक्षिणपुरी से जुड़ा था। कुछ लोग वहाँ पर काम करते थे तो कुछ लोगों का वहाँ पर अपना करोबार था।
श्यामलाल जी
उन्ही लोगों में शामिल थे जो दंगों से अपनी गली और
परिवार को बचाने के लिए हाथों में लठ लिए पूरी रात जागते थे। उस हल्ले में काफी डर रहता था। शौर में भी गज़ब का खौफ था। अगर दरवाज़े पर गलती से भी किसी का हाथ लग जाता तो अन्दर हर
शख़्स के गले सूख जाते।
एक बार
उसी बीच दक्षिणपुरी में बड़ी जबरदस्त तलाशी का दौर चला था। किसी भी घर में पुलिष वाले
घुसकर तलाशी ले रहे थे। दंगों के दौरान काफी सारे
समान का इधर-उधर हो जाना कोई मुश्किल काम नहीं था।
पता नहीं क्या सोचकर यहाँ दक्षिणपुरी के घरों में तलाशी का काम किया जा रहा था। लेकिन इतना
ज्ञात था की ये दंगों के बाद का काम था।
वे बताते
हैं, “दूसरे दिन
यहाँ हर खत्ते में कई समान पड़ा मिला, बिलकुल नया। शायद ये तलाशी के खौफ का असर था। जिसने भी कुछ किया था वे
अपने घर की तलाशी होने से पहले ही सारा समान यहाँ पर खत्तों में फैंक गया था। हर समान बेहद महंगा था और नया
था। समान पूरी रात और पूरे दिन यहाँ खत्तों में पड़ा रहा मगर मजाल
है कि कोई उन समानों को हाथ भी लगा सके। आज सपनों - ख़्याबों में आने वाला ये समान सभी के लिए कुछ और ही हो गया था। छूना तो दूर
की बात है कोई उन समानों की तरफ देख भी नहीं सकता था। ललचाना तो दूर कोई उस खत्ते के सामने खड़ा भी नहीं हो
सकता था। खत्ते में पड़े इन समानों में कई टीवी थे, काले-सफेद और रंगीन, वीसीआर-वीसीपी, तेल और घी
के डिब्बे, कपड़ो के
बण्डल, जूतो के
बॉक्स, ड्राम, रेडियो-डेक और भी
कई ऐसा समान था जो कई हिस्सो से मुड़ा हुआ था। हर समान को यहाँ पर खत्तों में रख दिया गया था। ऐसा लगता था कि यहाँ पर आकर कोई हर समान को जमीन
पर सही-सलामत रखकर
गया है। अगर फैंका होता तो टूट जाता।"
लोग घंटों
उन समानों को देखते रहे थे। हर किसी के मन में एक
लालचीपन तैर रहा था। कोई सोचता की जब ले ही आये थे तो यहाँ कूड़े में डालने की क्या जरूरत थी गाँव भाग जाता। क्या मेंहनत करने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगा। तो कोई कहता, काश मुझपर
होता तो मैं भी धंधा शुरू कर देता। खूब कमाता। मगर ये अब नहीं हो सकता था। क्योंकि चिड़िया
खेत चुग चुकी थी। यहाँ दक्षिणपुरी में तो कोई बड़ी दुकान नहीं थी जहाँ पर ये समान बिकता
था तो लोग मदनगिर मार्किट में ही अपनी आँखे सेकने चले जाते थे और बच्चे तो अगर गली में किसी के घर में भी फ़िल्म चल रही होती थी तो उनके
दरवाज़ों की दरारियों में से झाँकते थे और जैसे ही किसी के आने का अंदेशा
होता तो उलटे पाँव भाग जाते थे। अन्दर फ़िल्म चलती थी तो बाहर खेल।
लख्मी
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