Wednesday, September 3, 2014

आवाज़ों का चक्रव्यू


गाड़ी नियमित चल रही है। रास्ते के दोनों ओर रेत का लंबा मैदान फैला हुआ है। दोपहर का समय है। खिड़की के बाहर भी अगर देखने की इच्छा हो तो क्या देखा जाए। गाड़ी चलाने वाला आंखो पर काला चश्मा लगाए अपना पूरा ध्यान सामने की ओर रखा हुआ है। कभी रोशनी गाड़ी के शीशे पर गिरती कभी पूरी गाड़ी में भर जाती। पर गाड़ी नियमित चल रही है। कोई रोकटोक नहीं है। रास्ते के किनारे में जैसे ही कोई दिखाई देता तो बिना गाड़ी को देखे ही आगे की और चला जाता। गाड़ी की रफ्तार एक समान है। 
 
बच्चे चिल्ला रहे है। औरतें भी एक दूसरे को गालियां दे रही हैं। बर्तनो के गिरने से बच्चो का चिल्लाना जैसे बंद हो जा रहा है। धड़ाम से जैसे कुछ गिरा हो। आंखे छोटी सी स्क्रीन में उन्हे खोज रही है। गाड़ी अब भी उसी रफ्तार में है। रास्ता गाँव से होकर गुजर रहा है। पकड़, पकड़, अबे रुक जा, ऐसा क्या हो गया, मार, छोड़ मत फिर से अपने जोरों पर कूदा। “धड़,धड़,धड़,” गाड़ी के बड़े से घड्ढे से गुजरी। आसपास में खड़े लोगो ने उसे देखा। गाड़ी में गाना चल पड़ा। गाड़ी चलाने वाला उसे कुछ दूरी तक सुन रहा है। “अभी दिखाता हूँ तुझे की मैं चीज क्या हूँ?” अबे जा – जा बहुत देखे तेरे जैसे।“

गाड़ी शहर में दाखिल हुई। बड़ी बड़ी बिल्डिंग के बीच से गुजर रही है। बिना हॉर्न के रास्ते से कई गाड़ियों से मिल गई है। लंबी लंबी लाइन लगी है।

बच्चे अब भी रो रहे है। औरते भी रो रही है। “टन टन टना टन” गूंज रही है। कुछ स्टील की लंबी सलाखे आपस में टकरा ही रही हो। कान पूरी तरह से स्क्रीन में घुस गए। जानने के लिए आखिरकार मजरा क्या है? गाड़ी वाले ने गाड़ी का गाना बंद कर दिया। और एक बड़े से बार के सामने रुक गया। गाड़ी पूरी तरह से धुलमिट्टी में रंगी हुई है। अचनाक उपर से कोई गाड़ी पर गिरता है। गाड़ी का हॉर्न अपने आप ही बजने लगा है। बार के अंदर से गाड़ी चलाने वाला भाग कर आता है और गाड़ी छोड़ भाग रहा है।

कई सारे लोगो के एक साथ भागने की “धपड़ धपड़” ने जोर पकड़ा। किसी के रोने की तड़प बहुत जोरों से आई। मेरी साथ में स्क्रीन में आवाज़ खोजती यशोदा ने अचानक से स्क्रीन को नीचे की ओर गिरा दिया और घर के हर हिस्से में अपने सिर को घुमाने लगी। कूलर बहुत आवाज़ कर रहा है। घूँ, घूँ, घूँ, घूँ, जैसे उसी की कोई फनती उसी के पंखे से टकरा रही हो। यहाँ से वहाँ अपने सिर को घूमने के बाद में उसने फिर से एक बार कानो को धक लिया और अपना ध्यान फिर से उस स्क्रीन पर लगा दिया। कमरा काला हो गया। चेहरा स्क्रीन की रोशनी से चमक उठा।

गोली चलने लगी है। कुछ लोग उस गाड़ी चलाने वाले के पीछे भाग रहे है और धुयाधुन्ध गोलियां चला रहे हैं। गाड़ियों के हॉर्न बज रहे है। लग रहा है जैसे सब गलियाँ दे रहे हो।

मार डाल, छोड़ियो मत” औरते फिर से रोने लगी। किसी के दर्द में तड़पने की आवाज़ कानो के आरपार हो गई। यशोदा ने एक बार फिर से स्क्रीन को नीचे की ओर गिरा दिया और कूलर की तरफ में भागी। उसे लगा जैसे पत्ती, पंखड़ी से टकरा गई है जिससे वो टूट गई है। पर ऐसा कुछ नहीं था। कमरा पूरी तरफ से उनही आवाज़ों में लीन था। बच्चो को गुस्से में अंदर ले जाने का शोर सुनाई दिया। यशोदा बाहर बालकनी की ओर भाई। गली में सभी बाहर खड़े थे और कोने की ओर देख रहे है। गली के कोने पर दिल्ली पुलिस की गाड़ी खड़ी है। उसकी लाइट चमक रही है।  

लख्मी  

1 comment:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04-09-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1726 में दिया गया है
आभार